युयुत्सु महाभारत का एक महत्वपूर्ण पात्र है। महाभारत के युद्ध के अंत में बचे हुए १८ योद्धाओं में से एक वो भी था। दुर्योधन एवं अन्य कौरवों की भांति युयुत्सु भी धृतराष्ट्र पुत्र था किन्तु उसकी माता गांधारी नहीं थी। ऐसा वर्णित है कि महारानी गांधारी की एक वैश्य दासी थी जिसका नाम सौवाली (सुग्धा) था। वो गांधारी की सिर्फ दासी ही नहीं अपितु अभिन्न सखी भी थी जो गांधारी के विवाह के पश्चात उसके साथ गांधार से हस्तिनापुर आयी थी और मृत्युपर्यन्त उसके साथ ही रही।
जब गांधारी गर्भवती थी और धृतराष्ट्र की सेवा करने में असमर्थ थी तब सुग्धा ही धृतराष्ट्र की सेवा के लिए नियुक्त की गयी थी। धृतराष्ट्र सौवाली की सुंदरता पर मुग्ध हो गए और उनके संयोग से एक पुत्र हुआ जो देखने से ही अत्यंत बलवान लगता था और इसी कारण उसका नाम युयुत्सु (योद्धा) रखा गया। वो दुर्योधन से छोटा और दुःशासन से बड़ा था। कई जगह ये भी कहा गया था कि वो दुर्योधन से भी बड़ा था किन्तु महाराज का पुत्र होने के बाद भी उसे कभी भी कौरवों में वो स्थान नहीं मिला जिसका वो हक़दार था।
महात्मा विदुर की ही भांति उसने भी जीवन भर राजपुत्र होकर भी दासीपुत्र होने का दंश झेला। हालाँकि उन्ही की भांति उसका महत्त्व भी हस्तिनापुर में बहुत था और अन्य सभासदों के लिए वो भी राजपुत्र ही था। पर जब भी कौरवों की गिनती होती है तो धृतराष्ट्र और गांधारी के १०० पुत्रों का वर्णन मिलता है। बहुत कम जगह ही युयुत्सु को १०१वें कौरव के रूप में गिना जाता है। युयुत्सु के अतिरिक्त उसे धार्तराष्ट्र (धृतराष्ट्र का पुत्र होने के कारण), कौरव्य (कुरुवंश में जन्म लेने के कारण) और वैश्यपुत्र (वैश्य स्त्री की संतान होने के कारण) भी कहा जाता है। महाभारत के युद्ध के बाद वही एकलौता कौरव जीवित था और उसी ने धृतराष्ट्र और गांधारी की मृत्यु के बाद उन्हें मुखाग्नि दी थी।
शकुनि जिस प्रकार अपने अन्य भांजों से प्रेम करता था उतना उसने युयुत्सु से कभी नहीं किया। इसका युयुत्सु को लाभ ही हुआ और वो कभी भी शकुनि के प्रभाव में नहीं रहा। अपने अन्य भाइयों से उलट उसका मन सदैव धर्म की ओर ही झुका था। यही कारण था कि वो दुर्योधन के किसी भी पाप में भागीदार नहीं रहा। ऐसा भी कहा जाता है कि बचपन में उसने ही युधिष्ठिर को ये सूचना दी थी कि दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया है। द्यूतभवन में भी उसने विकर्ण के साथ चीरहरण का पुरजोर विरोध किया था किन्तु दोनों की बातें किसी ने नहीं सुनी। हस्तिनापुर में उसके कर्तव्य बहुत अधिक थे किन्तु अधिकार बहुत कम।
वो एक उत्कृष्ट योद्धा था और उसकी गिनती भी श्रेष्ठ रथियों में की जाती है। जब महाभारत का युद्ध ठन गया तो ना चाहते हुए भी उसे कौरवों के पक्ष से ही युद्ध लड़ना पड़ा। लेकिन युद्ध आरम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर ने ये घोषणा की कि जिसे भी लगता है कि धर्म पांडवों के पक्ष में है वो इधर आ जाएँ। ये सुनकर युयुत्सु ठीक युद्ध से पहले कौरवों का पक्ष छोड़ कर पांडवों के पक्ष में चला गया। ये देख कर दुर्योधन को बड़ा क्रोध आया और अगर वो चाहता तो युयुत्सु का वध भी कर सकता था किन्तु युयुत्सु जैसा भी था उसका भाई था इसीलिए उसने उसका वध नहीं किया।
वो एक उत्कृष्ट योद्धा था और उसकी गिनती भी श्रेष्ठ रथियों में की जाती है। जब महाभारत का युद्ध ठन गया तो ना चाहते हुए भी उसे कौरवों के पक्ष से ही युद्ध लड़ना पड़ा। लेकिन युद्ध आरम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर ने ये घोषणा की कि जिसे भी लगता है कि धर्म पांडवों के पक्ष में है वो इधर आ जाएँ। ये सुनकर युयुत्सु ठीक युद्ध से पहले कौरवों का पक्ष छोड़ कर पांडवों के पक्ष में चला गया। ये देख कर दुर्योधन को बड़ा क्रोध आया और अगर वो चाहता तो युयुत्सु का वध भी कर सकता था किन्तु युयुत्सु जैसा भी था उसका भाई था इसीलिए उसने उसका वध नहीं किया।
पांडवों के पक्ष में मिलकर भी युयुत्सु ने कभी भी कौरव सेना का कोई भेद पांडवों को नहीं बताया किन्तु फिर भी पांडवों के शिविर में उसका सदा सम्मान किया गया। युधिष्ठिर ये जानते थे कि इस युद्ध में धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का नाश हो जाएगा इसीलिए उन्होंने युयुत्सु को कभी भी सीधे युद्ध में भाग लेने नहीं दिया। उन्होंने युयुत्सु को पांडव सेना के लिए अस्त्र और रसद आपूर्ति करने की कठिन जिम्मेदारी सौंपी जिसे उसने बखूबी निभाया। उसने अपने कुशल प्रबंधन से कभी भी पांडवों की ७ अक्षौहिणी सेना के लिए शस्त्र और भोजन की कमी नहीं होने दी। हालाँकि महाभारत में उसके और शकुनि पुत्र उलूक के युद्ध का भी वर्णन मिलता है जहाँ उसे उलूक द्वारा अति आहत कर देने के कारण युद्धक्षेत्र से पीछे हटना पड़ा था।
महाभारत युद्ध के पश्चात जब कौरवों की पत्नियां और अन्य स्त्रियां विलाप कर रही थी और भीम के भय से राजमहल में सभी भय से त्रस्त थे तब युयुत्सु ने युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर स्वयं हस्तिनापुर राजमहल में प्रवेश किया और सभी राजकन्याओं को सांत्वना दी। फिर वे महात्मा विदुर से मिले और फिर उनकी आज्ञा से कई दिनों तक धृतराष्ट्र एवं गांधारी के साथ रहे जिससे उन्हें बड़ी सांत्वना मिली।
महाभारत युद्ध के पश्चात जब कौरवों की पत्नियां और अन्य स्त्रियां विलाप कर रही थी और भीम के भय से राजमहल में सभी भय से त्रस्त थे तब युयुत्सु ने युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर स्वयं हस्तिनापुर राजमहल में प्रवेश किया और सभी राजकन्याओं को सांत्वना दी। फिर वे महात्मा विदुर से मिले और फिर उनकी आज्ञा से कई दिनों तक धृतराष्ट्र एवं गांधारी के साथ रहे जिससे उन्हें बड़ी सांत्वना मिली।
उन दोनों की मृत्यु के पश्चात युयुत्सु ने ही पुत्रधर्म निभाते हुए उनका अंतिम संस्कार किया। जब युधिठिर हस्तिनापुर के सम्राट बनें तो उन्होंने युयुत्सु को अपना मंत्री बनाया। ३६ वर्ष राज करने के बाद जब युधिष्ठिर अन्य पांडवों एवं द्रौपदी के साथ स्वर्गारोहण को चले तो उन्होंने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को हस्तिनापुर का सम्राट घोषित किया और युयुत्सु को ही उसका संरक्षक बनाया। हरियाणा और उत्तरी भारत के जाट समुदाय को युयुत्सु का ही वंशज माना जाता है।
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