पुराणों के अनुसार महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया और उनसे ही सभी जातियों की उत्पत्ति हुई। इसके बारे में विस्तार से यहाँ देखें। कश्यप एवं उनकी की पत्नी क्रुदु से नाग जाति (नाग और सर्प जाति अलग-अलग है) की उत्पत्ति हुई जिसमे नागों के आठ प्रमुख कुल चले। इनका वर्णन नीचे दिया गया है:
- अनंत (शेषनाग): कद्रू के पुत्रों में सबसे पराक्रमी। उन्होंने अपनी छली माँ भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। भाइयों तथा क्रुदु का का विमाता विनता तथा सौतेले भाइयों अरुण और गरुड़ के प्रति द्वेष भाव ही उसकी सांसारिक विरक्ति का कारण था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि उसकी बुद्धि सदैव धर्म में लगी रहे। साथ ही ब्रह्मा ने उसे आदेश दिया कि वह पृथ्वी को अपने फन पर संभालकर धारण करे, जिससे कि वह हिलना बंद कर दे तथा स्थिर रह सके। शेष नाग ने इस आदेश का पालन किया। उसके पृथ्वी के नीचे जाते ही सर्पों ने उसके छोटे भाई, वासुकि का राज्यतिलक कर दिया। श्रीहरि विष्णु शेषनाग पर ही शयन करते हैं। जब वसुदेव भगवान कृष्ण को नन्द गाँव पहुँचाने के लिए यमुना में उतरे तो इन्होने ही दोनों की रक्षा की थी। श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण और श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम इन्ही के अवतार माने जाते हैं।
- वासुकि: प्रसिद्ध नागराज जिसकी उत्पत्ति प्रजापति कश्यप के औरस और कुद्रू के गर्भ से हुई थी। इसकी पत्नी शतशीर्षा थी। नागधन्वातीर्थ में देवताओं ने इसे नागराज के पद पर अभिषिक्त किया था। शिव का परम भक्त होने के कारण यह उनके शरीर पर निवास था। जब उसे ज्ञात हुआ कि नागकुल का नाश होनेवाला है और उसकी रक्षा इसके भगिनीपुत्र द्वारा ही होगी तब इसने अपनी बहन जरत्कारु को ब्याह दी। जरत्कारु के पुत्र आस्तीक ने जनमेजय के नागयज्ञ के समय सर्पों की रक्षा की, नहीं तो सर्पवंश उसी समय नष्ट हो गया होता। समुद्रमंथन के समय वासुकि को ने पर्वत का बाँधने के लिए रस्सी की तरह उपयोग किया गया था। त्रिपुरदाह के समय वह शिव के धनुष की डोर बना था।
- तक्षक: तक्षक पाताल वासी आठ नागों में से एक है। यह माता 'कद्रू' के गर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा इसके पिता कश्यप ऋषि थे। तक्षक 'कोशवश' वर्ग का था। यह काद्रवेय नाग है। श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डँसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। इससे क्रुद्ध होकर बदला लेने की नीयत से परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्पयज्ञ किया था, जिससे डरकर तक्षक इंद्र की शरण में गया। इस पर जनमेजय की आज्ञा से ऋत्विजों के मंत्र पढ़ने पर इंद्र भी खिंचने लगे, तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया। जब तक्षक अग्निकुण्ड के समीप पहुँचा, तब आस्तीक ऋषि की प्रार्थना पर यज्ञ बंद हुआ और तक्षक के प्राण बचे। यह नाग ज्येष्ठ मास के अन्य गणों के साथ सूर्य रथ पर अधिष्ठित रहता है।
- कर्कोटक: कर्कोटक शिव के एक गण थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार सर्पों की माँ ने साँपों के द्वारा अपना वचन भंग करने से श्राप दिया कि वे सब जनमेजय के नाग यज्ञ में जल मरेंगे। इससे भयभीत होकर शेष हिमालय पर, कुलिक नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में, और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए। एलापत्र ने ब्रह्म जी से पूछा - "भगवान! माता के शाप से हमारी मुक्ति कैसे होगी?" तब ब्रह्माजी ने कहा कि तुम महाकाल वन में जाकर महामाया के पास सामने स्थित लिंग की पूजा करो। तब कर्कोटक नाग वहां आया और उन्होंने शिवजी की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि - "जो नाग धर्म का आचरण करते हैं उनका विनाश नहीं होगा।" इसके उपरांत कर्कोटक नाग वहीँ लिंग में प्रविष्ट हो गया। तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं। मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार को कर्कोटेश्वर की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती।
- पद्म: पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से है और आज भी भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में नागों की पूजा महत्वपूर्ण रूप से की जाती है। ये नागों की सबसे शक्तिशाली जातियों में से एक मानी जाती है।
- महापद्म: यह भी नाग जाति का सर्प है जो वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म आदि के कुल का है। विष्णु पुराण में सर्प के विभिन्न कुलों में महापद्म का नाम भी आया है। पद्म और महापद्म नाग कुल में विशेष प्रीती थी जो एक दूसरे की सदैव सहायता करते थे।
- शंख: नागों के आठ मुख्य कुलों में से एक। कहा जाता है कि शंखों पर जो धारियां होती है वो दरअसल इसी नाग का चिन्ह है। ये जाति अन्य नाग जातियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान मानी जाती थी।
- कुलिक: कुलिक नाग जाति नागों में ब्राह्मण कुल की मानी जाती है जिसमे अनंत भी आते हैं। ये अन्य नागों की भांति कश्यप ऋषि के पुत्र थे लेकिन इनका सम्बन्ध सीधे परमपिता ब्रम्हा से भी मना जाता है। जन्मेजय के नाग यज्ञ की प्रतिज्ञा के बाद ये परमपिता ब्रह्मा की शरण में चले गए।
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