कायस्थों का स्त्रोत श्री चित्रगुप्तजी महाराज को माना जाता है। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने चार वर्णो को बनाया (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) तब यम जी ने उनसे मानवों का विवरण रखने में सहायता मांगी। फिर ब्रह्माजी ११००० वर्षों के लिये ध्यानसाधना मे लीन हो गये और जब उन्होने आँखे खोली तो देखा कि "आजानुभुज करवाल पुस्तक कर कलम मसिभाजनम" अर्थात एक पुरुष को अपने सामने कलम, दवात, पुस्तक तथा कमर मे तलवार बाँधे पाया।
तब ब्रह्मा जी ने कहा कि "हे पुरुष तुम कौन हो, तब वह पुरुष बोला मैं आपके चित्त में गुप्त रूप से निवास कर रहा था, अब आप मेरा नामकरण करें और मेरे लिए जो भी दायित्व हो मुझे सौपें। तब ब्रह्माजी बोले जैसा कि तुम मेरे चित्र (शरीर) मे गुप्त (विलीन) थे इसलिये तुम्हे चित्रगुप्त के नाम से जाना जाएगा। और तुम्हारा कार्य होगा प्रेत्यक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करते हुए उनके द्वारा किये गए सत्कर्म और अपकर्म का लेखा रखना और तदानुसार सही न्याय कर उपहार और दंड की व्यवस्था करना। चूंकि तुम प्रत्येक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करोगे इसलिये तुम्हे और तुम्हारी संतानो को कायस्थ भी कहा जाएगा ।
श्री चित्रगुप्त जी को महाशक्तिमान क्षत्रीय के नाम से सम्बोधित किया गया है । इनकी दो शादियाँ हुईं, पहली पत्नी सूर्यदक्षिणा/नंदनी जो ब्राह्मण कन्या थी, इनसे ४ पुत्र हुए:
- भानू (श्रीवास्तव): उनका राशि नाम धर्मध्वज था जिन्हे चित्रगुप्त जी ने श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार के इलाके में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ। उस विवाह से देवदत्त और घनश्याम नामक दो दिव्य पुत्रों की उत्पत्ति हुई। देवदत्त को कश्मीर का एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव २ वर्गों में विभाजित हैं यथा खर एवं दूसर। कुछ अल इस प्रकार हैं: वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया, रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा, तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन इत्यादि।
- विभानू (सूर्यध्व्ज): उनका राशि नाम श्यामसुंदर था जिनका विवाह देवी मालती से हुआ। महाराज चित्रगुप्त ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। चूंकि उनकी माता दक्षिणा सूर्यदेव की पुत्री थीं, तो उनके वंशज सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाये और सूर्यध्व्ज नाम से जाने गए। अंततः वह मगध में आकर बसे।
- विश्वभानू (वाल्मिक): उनका राशि नाम दीनदयाल था और वह देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ। यह ज्ञात है की उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया। इस तपस्या के समय उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढका हुआ था। उनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। उनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात में जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। आज वह गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। गुजरात में उनको "वल्लभी कायस्थ" भी कहा जाता है।
- वीर्यभानू (अष्ठाना): उनका राशि नाम माधवराव था और उन्हीं ने देवी सिंघध्वनि से विवाह किया। वे देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री वीर्यभानु को आधिस्थान में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज अष्ठाना नाम से जाने गए और रामनगर (वाराणसी) के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। आज अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान, चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या ध्यान रखने योग्य है। वह ५ अल में विभाजित हैं।
- चारु (माथुर): वह गुरु मथुरे के शिष्य थे। उनका राशि नाम धुरंधर था और उनका विवाह देवी पंकजाक्षी से हुआ एवं वह देवी दुर्गा की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनके वंशज माथुर नाम से जाने गाये। उन्होंने राक्षसों (जोकि वेद में विश्वास नहीं रखते थे), को हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। इसके पश्चात् उनहोंने आर्यावर्त के अन्य हिस्सों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई पद ग्रहण किये। माथुर को ३ वर्गों में विभाजित हैं: देहलवी, खचौली और गुजरात के कच्छी। उनके ८४ अल हैं जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं: कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया, दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया, रानोरिया इत्यादि। इटावा के मदनलाल तिवारी द्वारा लिखित मदन कोश के अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की आज के समय में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे।
- चितचारु (भटनागर): वह गुरू भट के शिष्य थे जिनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था। वह देवी जयंती की अराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने उन्हें भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए। उनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए जो ८४ अल में विभाजित हैं जिनमे से कुछ अल इस प्रकार हैं: दासनिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया, बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि। भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है।
- मतिभान (सक्सेना): इनका विवाह देवी कोकलेश से हुआ और वे देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने श्री मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र एक महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। चूंकि वह शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सकसेन कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। आज वे कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह, इटावाह, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं। सक्सेना 'खरे' और 'दूसर' में विभाजित हैं और इस समुदाय में १०६ अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं: जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया, दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया इत्यादि।
- सुचारु (गौड़): वह गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। वह देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री सुचारू को गौड़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। श्री सुचारू का विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ। गौड़ ५ वर्गों में विभाजित हैं: खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी एवं वदनयुनि। गौड़ कायस्थ को ३२ अल में बांटा गया है और इनमे महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त प्रसिद्द हैं।
- चारुण (कर्ण): उनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारूण को कर्ण क्षेत्र (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनके वंशज समय के साथ उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और आज नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। उनकी बिहार की शाखा दो भागों में विभाजित है: 'गयावाल कर्ण' (जो गया में बसे) और 'मैथिल कर्ण' (जो मिथिला में जाकर बसे)। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि, मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित है। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है। पंजी वंशावली रिकॉर्ड की एक प्रणाली है। कर्ण ३६० अल में विभाजित हैं और इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्हों ने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर पलायन किया। इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
- हिमवान (अम्बष्ट): उनका राशि नाम सरंधर था और उनका विवाह देवी भुजंगाक्षी से हुआ। वह देवी अम्बा माता की अराधना करते थे। गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। श्री हिमवान की पांच दिव्य संतानें हुईं: नागसेन (२४ अल), गयासेन (३५ अल), गयादत्त (८५ अल), रतनमूल (२५ अल) और देवधर (२१ अल)। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। अंततः वह पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए "खास घर" प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल किये जाते हैं। कुछ "खास घर"(जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे) के नाम हैं: भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर, कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार, नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार, देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार, करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार आदि।
- चित्रचारु (निगम): उनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। वह देवी दुर्गा की अराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र (सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। आज के समय में वे कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं, महोबा में रहते हैं। वह ४३ अल में विभाजित हैं जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं: कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी, चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि।
- अतिन्द्रिय (कुलश्रेष्ठ): उनका राशि नाम सदानंद है और उन्हों ने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री अतिन्द्रिय (जितेंद्रिय) को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। श्री अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से अधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाली संतानों में से थे। उन्हें 'धर्मात्मा' और 'पंडित' नाम से जाना गया और स्वभाव से गुणी थे। आधुनिक काल में वे मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, इटाह, इटावाह और मैनपुरी में पाए जाते हैं। कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव (बंगाल) में पाए जाते हैं।
bahut accha likha hai
जवाब देंहटाएंधन्यवाद यशदीप जी।
हटाएंबेहतरीन लेख .... तारीफ-ए-काबिल .... Share करने के लिए धन्यवाद...!! :) :)
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंBahut mahatvpurn jankari. Bahut bahut dhanyavad 🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपका बहुत धन्यवाद
हटाएंBahut matvapurn jankari di hai.bahut bahut dhanyawad
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