आप सभी को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं। इस बार देश में अलग अलग राज्यों में दो दिन, १३ एवं १४ को महाशिवरात्रि मनाई जा रही है। इसका एक कारण ये भी है कि इस बार महाशिवरात्रि के मुहुर्त १३ तारीख की मध्यरात्रि में पड़ने का अनुमान है। जहाँ बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और उत्तर भारत में इस पर्व को १४ फरवरी को मनाया जा रहा है वहीं दक्षिण भारत जैसे कर्नाटक, आंध्रा एवं तमिलनाडु में इस बार महाशिवरात्रि १३ फ़रवरी को मना ली गयी।
वैसे तो महाशिवरात्रि पूरे देश में धूम-धाम से मनाई जाती है किन्तु कश्मीरी ब्राम्हणों के लिए ये विशेषरूप से महत्वपूर्ण है और अनंतनाग में विशेषकर इसी बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। यही नहीं, नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर और बांग्लादेश में भी इसे पुरे हर्षोउल्लास से मनाया जाता है। अविवाहित कन्या इसे अपने पसंद के वर को प्राप्त करने हेतु तो विवाहित स्त्रियाँ अपने पति की लम्बी आयु हेतु मानती हैं। तो आइये इसके बारे में कुछ रोचक जानकारियाँ प्राप्त करें।
- सबसे पहली बात तो ये कि "शिवरात्रि" और "महाशिवरात्रि" एक नहीं हैं। प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को अमावस्या के एक दिन पहले की रात्रि शिवरात्रि कहलाती है। इसका अर्थ ये है कि साल में १२ शिवरात्रि होती है किन्तु इन १२ शिवरात्रियों में फाल्गुन (फरवरी-मार्च) महीने की शिवरात्रि का विशेष महत्त्व है इसी कारण इसे महाशिवरात्रि कहा जाता है।
- इस वर्ष मासिक शिवरात्रि १५ जनवरी, १४ फरवरी, १५ मार्च, १४ अप्रैल, १३ मई, १२ जून, ११ जुलाई, ९ अगस्त, ८ सितम्बर, ७ अक्टूबर, ५ नवम्बर एवं ५ दिसंबर को आएगी। इनमे से आज का दिन अर्थात १४ फरवरी इन सब में श्रेष्ट महाशिवरात्रि है।
- ठीक उसी प्रकार "शिव" और "शंकर" अथवा "महेश्वर" में भी भेद है। शिव या सदाशिव भगवान का निराकार रूप है जबकि शंकर अथवा महेश्वर उनका साकार रूप।
- वेदों के अनुसार शिव स्वयंभू हैं। शिव से शक्ति या आदिशक्ति का प्रादुर्भाव हुआ और शिव-शक्ति के मिलन से ब्रह्मा तथा विष्णु की उत्पत्ति हुई। इन दोनों के साथ अपने कर्तव्य (संहार) का निर्वहन करने के लिए सदाशिव का एक अंश महाशिवरात्रि के दिन ही शंकर अथवा महेश्वर के सशरीर रूप में प्रकट हुआ। तो जो त्रिमूर्ति में ब्रह्मा एवं विष्णु के साथ "महेश" का वर्णन है वो शिव का साकार रूप है, स्वयं शिव नहीं। हालाँकि शंकर की उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि उनका ये रूप भी शिव के ही समकक्ष है इसी कारण आम भाषा में शिव शब्द, सदाशिव परब्रह्म के सभी प्रतीकों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
- एक अन्य कथा के अनुसार जब भगवान ब्रह्मा एवं विष्णु की उत्पत्ति सदाशिव से हुई तो अपने को विश्व में अकेला पाकर दोनों में अपनी श्रेष्ठता को लेकर विवाद हो गया जो कई वर्षों तक चलता रहा और अंततः वे दोनों युद्ध को उद्धत हो गए। उसी समय महाशिवरात्रि के दिन ही उनके मध्य अग्नि का एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ। भगवान शिव ने कहा कि आपमें से जो भी मेरे छोर को ढूंढ कर आएगा वो ही श्रेष्ठ माना जाएगा। इसपर ब्रह्मा हंस के रूप में ऊपर और विष्णु वराह के रूप में नीचे चल पड़े किन्तु १००० वर्षों तक भी दोनों को उस लिंग का छोर नहीं दिखा। हार कर दोनों वापस आ गए और ब्रह्मा ने झूठ कह दिया कि वे इस लिंग का ऊपरी छोर छू कर आ रहे हैं। वहाँ उपस्थित केतकी के पुष्प ने भी ब्रम्हा का ही समर्थन किया। इसपर भगवान विष्णु ने उन्हें श्रेष्ठ मान कर उनकी पूजा करना आरम्भ कर दिया। तब भगवान शिव ने ब्रह्मा के झूठ के लिए उनकी भर्त्स्यना की और विष्णु को दोनों में श्रेष्ठ बताया। उन्होंने केतकी को भी श्राप दिया कि उनकी पूजा में ये पुष्प निषिद्ध रहेगा (इसके विषय में विस्तार में यहाँ पढ़ें)।
- इसके पश्चात परमपिता ब्रह्मा एवं भगवान् नारायण ने उस ज्योतिर्लिंग से उनके साकार रूप के दर्शन की प्रार्थना की और सदाशिव की आज्ञा अनुसार अनंत काल तक दोनों उनके दर्शनों के लिए तपस्या करते रहे और तब उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सदाशिव ने महाशिवरात्रि के दिन ही शंकर के साकार रूप में आकर उन्हें दर्शन दिए।
- ब्रह्मपुराण के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन ही परमपिता ब्रह्म से भगवान शिव रूद्र के रूप में उत्पन्न हुए थे। बालक रूपी शंकर सृष्टि में आते ही रोने लगे और इसी कारण उनका नाम रूद्र पड़ा। उन्हें चुप कराने के लिए ब्रह्मदेव ने उन्हें एक के बाद एक १००८ नाम दिए जो रूद्र सहस्त्रनाम कहलाते हैं।
- समुद्र मंथन के समय निकलने वाले हलाहल को महाशिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया था।
- पुराणों के अनुसार, चन्द्र की २७ पत्नियाँ थी किन्तु उनका रोहिणी पर अधिक अनुराग था। इससे रुष्ट होकर उनकी बाँकी पत्नियों ने अपने पिता प्रजापति दक्ष से चन्द्र की शिकायत कर दी और क्रोध में दक्ष ने चन्द्र को क्षय हो जाने का श्राप दे दिया। परमपिता ब्रह्मा ने चन्द्र को भगवान् शिव की तपस्या करने को कहा। चन्द्र की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान् शिव ने चन्द्र को वरदान दिया कि उसकी कान्ति सदा के लिए समाप्त नहीं होगी और वह धीरे-धीरे बढ़कर अपनी पूर्ण कान्ति को प्राप्त करेगा। चन्द्र को भगवान् शिव के दर्शन और ये वरदान महाशिवरात्रि के दिन ही मिला था।
- जब अमावस्या के दिन चन्द्र की पूर्ण रूप से अपनी कान्ति खो देता है, उससे एक दिन पहले शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है ताकि भगवान शिव पूर्ण अंधकार में अपनी उपस्थिति एवं ज्ञान से समस्त विश्व को प्रकाशित करते रहें।
- वेदों के अनुसार परमपिता ब्रह्मा द्वारा सृष्टि के सृजन और भगवान नारायण के द्वारा पालन होने के पश्चात महाशिवरात्रि के दिन ही प्रलयकाल के समय भगवान रूद्र अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से इस सृष्टि का संहार कर देते हैं। इसे प्रदोष काल, कालरात्रि या जलरात्रि भी कहते हैं।
- इसी दिन भगवान् शिव का विवाह देवी पार्वती से हुआ था। इसी कारण इसे इस दिन भगवान् शिव के विवाह का उत्सव भी मनाया जाता है और रात्रि को उनकी बारात निकालने का भी चलन है। रात्रि में पूजा का संकल्प कर फलाहार किया जाता है और अगले दिन प्रातः हवन कर व्रत समाप्त किया जाता है।
- शास्त्रों के अनुसार देवी सती एवं देवी पार्वती की तपस्या भी महाशिवरात्रि के दिन ही पूर्ण हुई और आज के दिन ही महादेव ने उन्हें दर्शन देकर स्वयं को पति के रूप में पाने का वरदान दिया।
- इसके अतिरिक्त प्रमुख देवियों जैसे सरस्वती, लक्ष्मी, इन्द्राणी, गायत्री, सावित्री रति, तारा, दक्ष-पुत्रियों, दस महाविद्या एवं अन्य अप्सराओं ने भी शिवरात्रि की पूजा कर महादेव से इच्छित वर प्राप्त किया।
- पुराणों, रामायण और महाभारत में भगवान विष्णु के अवतार परशुराम, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण द्वारा भी महाशिवरात्रि का व्रत करने का उल्लेख है।
- विष्णु पुराण के अनुसार भगवान् नारायण १००० वर्षों तक भगवान शिव की तपस्या करते हैं और अंत में वे महादेव को १००० कमल के पुष्प चढाने और महाशिवरात्रि के व्रत का संकल्प लेते हैं। उनकी परीक्षा लेने के लिए भगवान् शिव एक कमल के पुष्प को छुपा देते हैं। उसे ढूंढने में असमर्थ भगवान् विष्णु अपने कमल के सामान नेत्रों को ही महादेव को अर्पित करने को उद्धत होते हैं। ऐसे अद्वितीय रूप से भगवान विष्णु को महाशिवरात्रि व्रत पूरा करते देख महादेव उन्हें दर्शन देते हैं और अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उत्पन्न सुदर्शन चक्र भी उन्हें भेंट करते हैं।
- गांधारी ने महादेव से शिवरात्रि व्रत के फलस्वरूप ही सौ पुत्रों और द्रौपदी ने इस व्रत से पाँच पतियों का वरदान पाया था। ऐसी भी मान्यता है कि श्रीकृष्ण ने देवी रुक्मिणी का हरण भी महाशिवरात्रि के दिन ही किया था जब वो भगवान की पूजा कर बाहर आ रही थी।
- रामायण में देवी सीता का भी श्रीराम को पति के रूप में पाने के लिए महाशिवरात्रि के व्रत करने का उल्लेख मिलता है।
- महाशिवरात्रि से सम्बंधित अनेक कथाओं में चित्रभानु नामक एक शिकारी का उल्लेख मिलता है। उसे महाशिवरात्रि के व्रत का कोई ज्ञान नहीं होता तथा वह जंगल के जानवरों को मारकर अपना जीवन यापन करता था। एक बार महाशिवरात्रि के दिन अनजाने में उसे शिवकथा सुनने मिली। शिवकथा सुनने के बाद वह शिकार की खोज में जंगल गया और वहाँ शिकार का इंतज़ार करते-करते वह अनजाने में बेल के पत्ते तोड़कर घास के ढेर के नीचे ढँके हुए शिवलिंग पर फेकने लगा जिससे अनजाने में ही उसके शिवरात्रि का व्रत पूर्ण हो जाता है। उसके इस कर्म से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसका ह्रदय निर्मल बना देते हैं और उसके मन से हिंसा के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह जंगल शिकार करने गया था किंतु एक के बाद एक ४ हिरणों को जीवनदान देता है और उस दिन के बाद से चित्रभानु शिकारी का जीवन छोड़ देता है।
महाशिवरात्रि वास्तव में मनुष्य को अज्ञान रुपी अमावस्या से ज्ञान रुपी पूर्णिमा ने ले जाने का प्रतीक है। तो आइये इस पावन अवसर पर हम भी अपनी अज्ञानता को दूर करने का प्रयास करें। ।।ॐ नमः शिवाय।।
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