सबसे पहले आप सभी को हनुमान जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ। ११वें रुद्रावतार हनुमान के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा गया है किन्तु उनके पंचमुखी रूप के बारे में लोगों को उतनी जानकारी नहीं है। आप सबने हनुमान के पंचमुखी रूप के कई जगह दर्शन किये होंगे किन्तु क्या आप जानते हैं कि आखिर क्या कारण था कि उन्हें ये रूप धरना पड़ा? अगर नहीं, तो आइये जानते हैं।
किन्तु इससे पहले की हम कथा आरम्भ करें, ये जानना आवश्यक है कि इस कथा का वर्णन मूल वाल्मीकि रामायण में नहीं दिया गया है। ये कथा वास्तव में कृतिवास रामायण में वर्णित है जिसे पंद्रहवी शताब्दी में बांग्ला के महान कवि श्री कृतिवास ओझा ने लिखा था।
श्रीराम और रावण का भयानक युद्ध चल रहा था। रावण की राक्षस सेना के महाभयंकर वीर मारे जा चुके थे और अब रावण को भी लगने लगा था कि श्रीराम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं और उसकी पराजय हो सकती है। इस समस्या से बचने के लिए रावण ने अपने भाई अहिरावण को याद किया जो उसका सौतेला भाई था। वो अत्यंत मायावी और शक्तिशाली था और पूरे विश्व में मायायुद्ध में उसके समान कोई और नहीं था। रावण के ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद ने भी मायावी विद्या का ज्ञान अहिरावण से ही लिया था। इसके साथ ही अहिरावण माता भवानी का परम भक्त था।
जब वो रावण से मिलने आया तो रावण ने उसे लंका पर आई आपदा से अवगत कराया। उसने कहा कि अब वही लंका को बचा सकता है और इस युद्ध में उसे उसकी सहायता की आवश्यकता है। अपने भाई को इस प्रकार व्यथित देख कर अहिरावण ने उसे सहायता का वचन दिया। उस दिन युद्ध विराम के पश्चात जब रात्रि में सभी गहरी निद्रा में सो रहे थे, तब अहिरावण रणभूमि में आया। तंत्र-मन्त्र का ज्ञाता तो वो था ही। उसने अपनी माया से समस्त सेना को गहरी निद्रा में सुला दिया।
उसकी माया का प्रभाव इतना शक्तिशाली था कि स्वयं विभीषण राक्षस होते हुए भी खुद को अचेत होने से रोक ना सके। जब सब उसकी माया से अचेत हो गए तो उसने श्रीराम और लक्ष्मण को पाश में बाँधा और उन्हें अपहृत कर अपने राज्य पाताल लोक ले गया। जब रावण को इसकी सूचना मिली थो वो अत्यंत प्रसन्न हो गया कि स्वामी के बिना सेना क्या युद्ध करेगी? इसीलिए अपनी विजय को निश्चित मान कर वो विश्राम करने चला गया।
उधर जब माया का असर थोड़ा कम हुआ तो सबसे पहले विभीषण जागे। जब उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को शिविर में ना देखा तो बड़े घबराये। उन्होंने तुरंत ही सबको सचेत किया और सुग्रीव और जामवंत को इसकी सूचना दी। इस समाचार को सुन कर सभी लोग आशंकित हो उठे। तब जामवंत ने कहा - "हे लंकेश! जो माया स्वयं आपको भी भ्रमित कर दे, ऐसी माया कौन रच सकता है?"
इस पर विभीषण ने कहा - "जामवंत जी! पूरे संसार में इस प्रकार की माया केवल रावण का भाई अहिरावण ही रच सकता है। निश्चय ही वही श्रीराम और लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें अपने लोक ले गया है। ये तो अनर्थ हो गया। कुछ समय बाद सुबह हो जाएगी और जब सेना को पता चलेगा कि उनके सेनापति का ही कोई अपहरण कर ले गया है तो उनका उत्साह टूट जाएगा। हमें किसी भी प्रकार उन दोनों की रक्षा करनी होगी। किन्तु अहिरावण की नगरी में प्रवेश करना ही अति दुष्कर कार्य है। अब उन्हें मुक्त करने कौन जाएगा?"
सभी को इस प्रकार दुखी देख पवनपुत्र हनुमान ने कहा - "विभीषण जी! आप केवल मुझे अहिरावण की नगरी का मार्ग बता दीजिये। अपने स्वामी को तो मैं स्वयं यमराज की नगरी से भी वापस ला सकता हूँ फिर अहिरावण की नगरी में प्रवेश करना कौन सा कठिन कार्य है।" इसपर विभीषण ने प्रसन्नता से कहा - "हे महावीर! आप धन्य हैं। वास्तव में आप अहिरावण की नगरी में प्रवेश करने में समर्थ हैं।
तो सुनिए - अहिरावण पाताललोक का स्वामी है जहाँ प्रवेश करना बड़ा कठिन है। अगर आप नगर में प्रवेश कर भी जाएँ तो भी अहिरावण के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा होगा। समस्या उसके भवन में प्रवेश करने की नहीं है बल्कि उसके वध की है। वो माता भवानी का परम भक्त है और उसे माता का वरदान प्राप्त है कि उसके प्राण कोई तब तक नहीं ले सकता जबतक माता के मंदिर में जलते हुए पाँच अखंड दीपक को एक साथ ना बुझा दिया जाये।"
इसपर हनुमान ने कहा "प्रभु की रक्षा के लिए तो मैं स्वयं ज्वालामुखी को भी फूंक मार कर शांत कर सकता हूँ, फिर पाँच दीपक क्या हैं। आपलोग चिंतित ना हों। मैं अभी प्रभु और भ्राता लक्ष्मण को लेकर आता हूँ।" इसपर विभीषण ने कहा - "हे पवनपुत्र! हमें आपकी शक्ति पर कोई संदेह नहीं है किन्तु ध्यान रहे कि अहिरावण की मृत्यु के लिए पाँचों दीपक एक साथ बुझने चाहिए।"
इस प्रकार सबसे विदा लेकर हनुमान तीव्र गति से उड़ते हुए पाताललोक पहुंचे। वहां बड़ी तेज ऊष्मा थी और राक्षसों का बड़ा पहरा था। हनुमान का वहाँ उपस्थित सैनिकों से घोर युद्ध हुआ और उन्होंने जल्द ही सभी के प्राणों का अंत कर दिया। उनका वध करने के पश्चात जब हनुमान अहिरावण के भवन पहुँचे तो वहाँ उन्होंने एक बड़े विकट वानर को द्वार की रक्षा करते हुए देखा। देखने से वो वानर उनका ही प्रतिबिम्ब लग रहा था।
जैसे ही वो द्वार के समीप पहुँचे कि उस वानर ने उन्हें रोकते हुए कहा - "वहीं रुक जाओ। तुम अवश्य ही बड़े वीर हो कि इतने सारे सैनिकों का वध कर यहाँ तक पहुँच गए हो किन्तु इससे आगे जाने के लिए तुम्हे मेरा वध करना होगा।" इसपर हनुमान ने पूछा - "हे वानरवीर! तुम कौन हो जिसे देख कर मेरे मन में स्नेह का संचार हो रहा है?" तब उसने कहा - "हे वानर! मैं वानरों में श्रेष्ठ महाबली हनुमान का पुत्र मकरध्वज हूँ।"
तब बड़े आश्चर्य से हनुमान ने कहा - "हे बालक! तुम्हे इस प्रकार असत्य नहीं कहना चाहिए। हनुमान तो बाल ब्रम्हचारी हैं। जब उन्होंने विवाह ही नहीं किया तो उनका पुत्र कैसे हो सकता है?" तब मकरध्वज ने कहा - "हे वानर! तुम सत्य कह रहे हो किन्तु जब हनुमान लंका दहन के पश्चात अपने शरीर का ताप कम करने के लिए समुद्र में उतरे तो उनका स्वेद एक मकर ने निगल लिया जिससे वो गर्भवती हो गयी। उस मकर को महाराज अहिरावण पकड़ कर ले आये और जब उसे चीरा गया तो मेरा जन्म हुआ। अब अहिरावण ही मेरे स्वामी हैं।"
इस पर हनुमान ने प्रसन्नता से उसे गले लगा लिया और बोले "पुत्र! मैं ही हनुमान हूँ। अहिरावण मेरे स्वामी श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण को यहाँ ले आया है और मैं उन्हें लेने आया हूँ।" मकरध्वज ने बड़ी श्रद्धा से हनुमान के पैर छुए और कहा "पिताश्री! मैं आपके दर्शन पाकर धन्य हो गया किन्तु मैं अहिरावण का सेवक हूँ और आपको भीतर जाने नहीं दे सकता। इसके लिए आपको मुझसे युद्ध करना होगा।" इसपर पिता और पुत्र में भयानक युद्ध हुआ और अंततः हनुमान ने मकरध्वज को उसी के पूँछ से बांध कर वही छोड़ दिया और भवन के भीतर प्रवेश किया।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि श्रीराम और लक्ष्मण अचेत बंधे पड़े हैं और अहिरावण देवी की पूजा करने में व्यस्त है। वह उन दोनों की बलि देना चाहता था। हनुमान के पास समय बहुत कम था। उन्होंने देखा कि उस भवन के चारो कोनों में चार दीप जल और एक दीप भवन की छत पर लटक रहा था। अब हनुमान असमंजस में पड़ गए कि उन पाँचों दीपों को एक साथ कैसे बुझाया जाये?
इसी कारण महाबली हनुमान ने अतितेजस्वी पञ्चमुख रूप धरा। इस रूप में उन्होंने उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नृसिंह मुख, पश्चिम दिशा में गरुड़ मुख, पूर्व दिशा में हनुमान मुख और आकाश की तरफ हयग्रीव मुख द्वारा एक साथ उन पाँचो दीयों को बुझा दिया। जब अहिरावण ने ऐसा देखा तो वो क्रोध से भर कर पूजा बीच में छोड़ हनुमान से युद्ध करने पहुँचा किन्तु उसकी कोई भी माया ना चली। महाबली हनुमान ने उसके दोनों भुजाओं को उखाड़ दिया और अंततः उसका वध कर दिया।
अहिरावण का वध होते ही श्रीराम और लक्ष्मण सचेत हो गए और हनुमान के साथ भवन के बाहर निकले। वहाँ उन्हें मकरध्वज दिखा जो बंधन से छूटने का प्रयास कर रहा था। श्रीराम के पूछने पर हनुमान ने उन्हें बताया कि ये उनका पुत्र है। इसपर श्रीराम ने उसे मुक्त करने को कहा और उसका राज्याभिषेक कर उसे पाताललोक का राजा बना दिया। इसके बाद हनुमान दोनों को अपने कन्धों पर बिठा कर वापस लंका ले आये और सारा शिविर श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान की जयजयकार की ध्वनि से गूँज उठा।
हनुमान का ये पञ्चमुखी रूप पंचतत्वों का भी प्रतिनिधित्व करता है। इन तत्वों में से एक तत्व पवन के वे पुत्र थे, दूसरे तत्व जल मार्ग से समुद्र को पार कर उन्होंने लंका में प्रवेश किया था, तीसरे तत्व पृथ्वी की पुत्री सीता से उन्होंने आशीर्वाद लिया, चौथे तत्व अग्नि से उन्होंने लंका दहन किया और पाँचवे तत्व आकाश मार्ग से वे वापस आये।
वे स्वयं भी भगवान रूद्र के अंश हैं और इसी कारण उनका पञ्चमुखी रूप भगवान रूद्र के पञ्चमुखी रूप के सामान ही फलदायी माना जाता है। उनके पंचमुखी रूप के दर्शन से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। उनका पूर्व दिशा का हनुमान मुख व्यक्ति की सभी इच्छाओं को पूर्ण करता है, दक्षिण दिशा का नृसिंह मनुष्य के भय का नाश करता है, पश्चिम दिशा का गरुड़ मुख मनुष्य के भाग्य को जगाता है, उत्तरी दिशा का वाराह मुख मनुष्य को धन-धान्य से परिपूर्ण करता है और आकाश की दिशा में हयग्रीव मुख पूरे संसार के कल्याण का आशीर्वाद देता है।
उनके इस रूप की विशेष बात ये भी है कि उनके अपने मुख को छोड़ कर शेष ४ मुख भगवान विष्णु से सम्बंधित हैं। इस प्रकार उनका ये रूप हरि और हर की एकात्मकता एवं संबंधों को प्रतिपादित करता है। जय पंचमुखी हनुमान।
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