शुक्राचार्य महर्षि भृगु के पुत्र थे तथा बृहस्पति महर्षि अंगिरस के। जब दोनों युवा हुए तो साथ ही सहपाठी के रूप में बृहस्पति के पिता महर्षि अंगिरस के पास शिक्षा प्राप्त करने लगे। थोड़ा समय बीतने पर शुक्राचार्य को लगा कि महर्षि अंगिरस अपने पुत्र बृहस्पति पर अधिक कृपालु हैं। इसी कारण उन्होंने महर्षि अंगिरस का आश्रम छोड़ दिया और महर्षि गौतम को अपना नया गुरु बनाया। गौतम ऋषि ने शुक्राचार्य को बताया कि इस संसार की समस्त विद्या और उससे भी श्रेष्ठ मृतसंजीवनी का ज्ञान तुम्हे केवल महादेव से प्राप्त हो सकता है।
अपने गुरु से ये उपदेश पाने के बाद उनकी आज्ञा से शुक्राचार्य गौतमी नदी के निकट महादेव की तपस्या करने लगे। उनकी कठिन तपस्या से प्रसन्न हो महादेव ने उन्हें मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान दिया और साथ ही ये भी चेतावनी दी कि वे इस विद्या का दुरुपयोग ना करें। उधर महर्षि अंगिरस के आश्रम में अपनी शिक्षा पूरी के बाद महर्षि बृहस्पति को इंद्र ने देवताओं के गुरु के पद पर नियुक्त किया। देवों और दानवों में प्रतिद्वंदिता तो चिर काल से ही थी। इसी कारण दैत्यों के राजा बलि ने शुक्राचार्य से दैत्यों और दानवों के गुरुपद का भार सँभालने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
देवों और दैत्यों के युद्ध में देवता हमेशा अपनी बुद्धि, बल और छल के कारण युद्ध जीत जाते थे। उसके अतिरिक्त उनपर भगवान विष्णु की विशेष कृपा थी। शुक्राचार्य को गुरु के रूप में पाकर दैत्यों में नए उत्साह का संचार हुआ। शुक्राचार्य अपनी मृतसंजीवनी विद्या से सारे मरे हुए दैत्यों को जीवित कर देते थे। इस कारण दैत्य अब देवताओं पर भारी पड़ने लगे। इसके अतिरिक्त शुक्राचार्य ने अपने ज्ञान और छल से धन के देवता कुबेर की पूरी संपत्ति भी अपने अधिकार में ले ली।
देवताओं ने जब इस बात की शिकायत भगवान विष्णु से की तो उन्होंने कहा कि शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान स्वयं महादेव ने दिया है अतः उनसे ही प्रार्थना करें। देवराज इंद्र के नेतृत्व में सभी देवता महादेव के पास पहुँचे और अपनी व्यथा कही। शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या का ऐसा दुरुपयोग करते देख कर महादेव बड़े क्रोधित हुए।
जब शुक्राचार्य को इस बात का पता चला तो वे भयभीत हो घनी झाड़ियों में छुप गए पर महादेव से भला क्या छिप सकता था। उन्होंने क्रोध में शुक्राचार्य को पकड़ कर जीवित ही निगल लिया। शुक्राचार्य बड़ा घबराये और बारम्बार महादेव से उन्हें क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे किन्तु महादेव का क्रोध शांत ना हुआ। उसके उलट भगवान शिव ने अपने शरीर के सभी छिद्रों को बंद कर लिया ताकि शुक्राचार्य बाहर न आ सकें। शुक्राचार्य उसी प्रकार १०० वर्षों तक भगवान शिव के उदार में छटपटाते रहे।
एक दिन शुक्राचार्य मौका देखकर महादेव के लिंग मार्ग से बाहर आ गए। इसी कारण उनका "शुक्राचार्य" नाम पूरे विश्व में विख्यात हुआ। महादेव ने जैसे शुक्राचार्य को अपने सामने देखा, उनका क्रोध फिर भड़क उठा और वे उन्हें मरने दौड़े। शुक्राचार्य महादेव के क्रोध से बच कर कहाँ जाते? उन्होंने देवी पार्वती के चरण पकडे और अपने प्राणों की रक्षा करने की प्रार्थना की।
देवी पार्वती ने महादेव से प्रार्थना की कि चूँकि शुक्राचार्य उनके ही शरीर से पुनः प्रकट हुए हैं इसी कारण वे उनके पुत्र के सामान हैं अतः उन्हें क्षमा कर दिया जाये। देवी पार्वती के इस प्रकार अनुरोध करने पर महादेव ने शुक्राचार्य को क्षमा कर दिया। इसके पश्चात शुक्राचार्य ने मनुपुत्र प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह किया जिनसे उनके चार पुत्र हुए - चंड, अमर्क, त्वाष्ट्र और धरात्र जिन्होंने शुक्राचार्य के नेतृत्व में दैत्यों के उप-गुरु का पद संभाला। शुक्राचार्य ने दैत्यों को धर्म सम्मत राज्य करने की शिक्षा दी जो बाद में शुक्र नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई।
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