तुलसी की हिन्दू धर्म में कितनी महत्ता है इसके बारे में बताने की आवश्यकता नहीं है। पीपल, बेलपत्र और तुलसी को हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र माना जाता है। प्रत्येक देवता की पूजा में तुलसी को समर्पित करने की प्रथा है विशेषकर भगवान विष्णु को तुलसी समर्पित करने का विशेष पुण्य मिलता है। किन्तु श्री गणेश को तुलसी नहीं चढ़ाई जाती। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है।
एक बार तुलसी पति प्राप्ति की कामना हेतु भ्रमण कर रही थी। भ्रमण करते-करते वो गंगा नदी के तट पर पहुँची जहाँ श्री गणेश समाधि में बैठे थे। उनका तेज सूर्य के सामान था और उन्होंने पीताम्बर वस्त्र धारण किये हुए थे। उनका इतना मनोहर रूप देख कर तुलसी उनपर आसक्त हो गयी। उन्होंने धैर्य पूर्वक श्री गणेश की साधना समाप्त करने की प्रतीक्षा की और जब वे चेतन हुए तो तुलसी ने उनसे विनय पूर्वक कहा - "हे देव! मैं उचित वर प्राप्ति की कामना लेकर बहुत काल से भटक रही हूँ। आज आपके दर्शन होने पर लगा कि मेरी तपस्या पूर्ण हुई। आपका ये तेजस्वी रूप देख कर मैंने मन ही मन आपको अपना पति मान लिया है इसीलिए कृपा कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें।"
तुलसी को इस प्रकार कहते देख श्री गणेश को समझ में नहीं आया कि वो क्या कहें। वे विवाह नहीं करना चाहते थे इसी कारण उन्होंने मृदु स्वर में कहा - "हे देवी! आपका अद्वितीय सौंदर्य देखकर मैं भी अभिभूत हूँ। विश्व में कदाचित ही कोई ऐसा होगा जो आपके अपनी भार्या के रूप में पाकर आनंद का अनुभव ना करे। किन्तु आप कृपया मुझे क्षमा करें क्यूँकि मैं अभी विवाह नहीं कर सकता।"
तुलसी को इस प्रकार कहते देख श्री गणेश को समझ में नहीं आया कि वो क्या कहें। वे विवाह नहीं करना चाहते थे इसी कारण उन्होंने मृदु स्वर में कहा - "हे देवी! आपका अद्वितीय सौंदर्य देखकर मैं भी अभिभूत हूँ। विश्व में कदाचित ही कोई ऐसा होगा जो आपके अपनी भार्या के रूप में पाकर आनंद का अनुभव ना करे। किन्तु आप कृपया मुझे क्षमा करें क्यूँकि मैं अभी विवाह नहीं कर सकता।"
इसपर तुलसी ने कहा "हे देव! अगर आप अभी विवाह नहीं करना चाहते तो कोई बात नहीं। आपको अपने पति के रूप में पाने के लिए मैं अनंत काल तक प्रतीक्षा कर सकती हूँ।" तब श्री गणेश ने किसी तरह तुलसी से पीछा छुड़ाने के लिए कहा - "हे देवी! आप कदाचित मेरी बात समझी नहीं। मैं कभी विवाह कर ही नहीं सकता क्यूँकि मैं ब्रह्मचारी हूँ। अतः आप मुझे क्षमा करें और अपने योग्य कोई और वर ढूँढ लें।" ऐसा कहकर वे पुनः समाधि में लीन हो गए।
तुलसी को अथाह दुःख हुआ किन्तु वे कर भी क्या सकती थी। बड़ी देर तक वो उसी प्रकर संतप्त रही और फिर वापस लौट गयी। वो थोड़ी दूर ही पहुँची थी कि उन्हें देवर्षि नारद दिखे। तुलसी ने उन्हें प्रणाम किया। देवर्षि नारद ने कहा - "हे देवी! आपके मुख-मंडल पर इतना विषाद क्यों हैं?" इसपर तुलसी ने उन्हें सारी बात बताई तब देवर्षि ने हँसते हुए कहा - "हे देवी! आप भी किनकी बात में आ गई? उनकी लीला तो वही जानते हैं। पता नहीं किस कारण से उन्होंने आपसे असत्य कहा किन्तु सत्य तो ये है कि वे ब्रह्मचारी नहीं हैं। लगता है उन्होंने आपसे ठिठोली की है।"
देवर्षि नारद की बात सुनकर तुलसी को बड़ा क्रोध आया। वे वापस लौटी और गणपति से कहा "हे देव! मैं आपसे सच्चे ह्रदय से विवाह करना चाहती थी किन्तु आपने मुझे असत्य कहकर मेरा परिहास किया। आपने मेरी निष्ठां का अपमान किया है इसी कारण मैं आपको श्राप देती हूँ कि आप जिस एक विवाह से बचना चाहते थे, अब आपकी इच्छा के विरुद्ध आपका दो विवाह होगा।"
देवर्षि नारद की बात सुनकर तुलसी को बड़ा क्रोध आया। वे वापस लौटी और गणपति से कहा "हे देव! मैं आपसे सच्चे ह्रदय से विवाह करना चाहती थी किन्तु आपने मुझे असत्य कहकर मेरा परिहास किया। आपने मेरी निष्ठां का अपमान किया है इसी कारण मैं आपको श्राप देती हूँ कि आप जिस एक विवाह से बचना चाहते थे, अब आपकी इच्छा के विरुद्ध आपका दो विवाह होगा।"
इस प्रकार का श्राप पाकर श्री गणेश भी बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने भी तुलसी को श्राप दे दिया कि उसका विवाह एक राक्षस के साथ होगा और उसका वध भी अल्प-काल में स्वयं महादेव के हाथों हो जाएगा। अब तुलसी को बड़ा पश्चाताप हुआ और उन्होंने श्री गणेश से क्षमा याचना की। तब उन्होंने कहा "मेरा श्राप तो विफल नहीं हो सकता किन्तु मैं आपको वरदान देता हूँ कि अगले जन्म में आपको अप्रत्यक्ष रूप से नारायण की पत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
उन दोनों को अपना-अपना श्राप भोगना पड़ा। श्री गणेश का रिद्धि और सिद्धि नामक दो स्त्रियों से विवाह हुआ। तुलसी का विवाह शंखचूड़ (जालंधर) नामक एक राक्षस से हुआ जिसका वध महादेव ने किया। अगले जन्म में तुलसी स्वयं अपनी राख से एक पौधे के रूप में हुई और उनका विवाह भगवान विष्णु के साथ हुआ। तभी से तुलसी का अर्पण श्री गणेश के लिए वर्जित माना जाता है।
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