कृष्ण और कर्ण का संवाद

ये कथा तब की है जब कृष्ण शांतिदूत बन कर हस्तिनापुर गए थे। जब उनका प्रयास असफल हो गया तो युद्ध भी अवश्यम्भावी हो गया। उस स्थिति में ये आवश्यक था कि वे पाण्डवों की शक्ति जितनी बढ़ा सकते थे उतनी बढ़ाएं। इसी कारण उन्होंने वापस लौटते समय कर्ण से मिलने का निश्चय किया। जब कर्ण ने देखा कि श्रीकृष्ण स्वयं उनके घर आये हैं तो उन्होंने उनका स्वागत सत्कार किया। फिर कृष्ण ने कर्ण को अपने रथ पर बिठाया और उन्हें गंगा तट पर ले गए। सात्यिकी को रथ पर ही छोड़ दोनों एकांत में वार्तालाप हेतु चले गए।

कर्ण अनिश्चित था कि कृष्ण उससे क्या बात करना चाहते हैं। कुछ औपचारिक बातों के बाद कृष्ण ने कर्ण से कहा कि "हे राधेय! आज इस युद्ध को रोकने का मेरा अंतिम प्रयास भी असफल हो गया। अब तो युद्ध निश्चित है। किन्तु ये तो तुम भी जानते हो कि धर्म पाण्डवों के पक्ष में है अतः तुम जैसे महावीर के लिए यही उचित है कि तुम कौरवों का पक्ष छोड़ कर पांडवों के पक्ष से युद्ध करो। हे कर्ण! वास्तव में तुम भी पाण्डव ही हो क्यूंकि तुम्हारी वास्तविक माता कुंती हैंअतः ये तुम्हारा धर्म है कि तुम अपने पुत्र धर्म का पालन करो।" कृष्ण के ऐसा कहने पर उनके बीच एक अत्यंत सुन्दर संवाद हुआ।

कर्ण ने दुःख और क्षोभ से कहा:
  • हे माधव! आप किस पुत्र धर्म की बात कर रहे हैं? क्या देवी कुंती ने कभी मातृ धर्म का पालन किया?
  • मेरी माता ने खेल-खेल में मुझे सूर्यदेव से माँग लिया क्या ये मेरा अपराध था?
  • उनके उस खेल का परिणाम ये हुए कि मुझे जन्म लेते ही त्याग दिया गया क्यूंकि उनकी दृष्टि में मैं अवैध था। इसमें क्या मेरा दोष था?
  • मैं एक क्षत्रिय था किन्तु सूतपुत्र का तमगा मेरे साथ जोड़ दिया गया इसमें मेरा क्या दोष था?
  • मैं एक राजकुमार था किन्तु पूरा जीवन मैंने आवश्यक वस्तुओं के आभाव में एक दरिद्र के भांति बिताया किन्तु कभी इसका पश्चाताप नहीं किया। 
  • मुझे किसी बड़े गुरु से शिक्षा नहीं मिली, यहाँ तक कि द्रोणाचार्य ने मुझे सूत होने के कारण अपने आश्रम में स्थान नहीं दिया उसमे मेरा का दोष था?
  • अपने आप को सिद्ध करने के लिए मुझे गुरु परशुराम से शिक्षा प्राप्त हुई। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं क्षत्रिय हूँ और मैंने सत्य कहा कि मैं क्षत्रिय नहीं हूँ क्यूंकि उस समय तक मुझे अपने जन्म का ज्ञान नहीं था किन्तु फिर भी अकारण मुझे उनके श्राप का भाजन बनना पड़ा। इसमें मेरा अपराध कहाँ था?
  • रंगभूमि में मुझे केवल मेरी जाति के कारण अर्जुन से युद्ध करने  रोक दिया गया और पूरे हस्तिनापुर के समक्ष मुझे लज्जित किया गया। किस कारण?
  • द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे पूरे समाज के सामने सूतपुत्र कहकर लज्जित किया गया। क्या इस कुल में जन्म लेना या ना लेना मेरे वश में था?
  • पाण्डवों ने हर समय, हर स्थान में, बात-बात पर मेरे जन्म और जाति का मजाक उड़ाया और मैं कुछ ना कह सका। 
  • और आज देख लो, मेरी माता द्वारा की गयी भूल का ये परिणाम है कि मैं स्वयं अपने भाई के वध करने को प्रतिबद्ध हूँ। अब इन सबके के अतिरिक्त मैं आपको अपने क्षोभ का और क्या कारण बताऊँ। 
कर्ण की बातें सुन कर कृष्ण मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले:
  • कर्ण, तुम सूतपुत्र कहलाये तो मैं भी यादव कुल में जन्मा।  
  • मेरे माता पिता को बिना कारण कारावास में डाल दिया था जहाँ उन्होंने २१ वर्षों तक कष्ट भोगा। 
  • मेरे जन्म से पहले ही मेरे सात भाइयों की हत्या कर दी गयी। 
  • मेरा जन्म ही कारागार में हुआ। 
  • मेरे जन्म से पहले ही मेरी मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। 
  • जिस दिन मेरा जन्म हुआ मेरे माता पिता को अलग होना पड़ा। 
  • जन्म लेते ही मुझे किसी अन्य व्यक्ति को सौंप दिया गया। 
  • जब मैं चल भी नहीं पता था तब मेरे ऊपर अनेक प्राण घातक हमले हुए। 
  • राजकुमार तो मैं भी था किन्तु मैंने अपना पूरा बचपन गौओं को चराया, उनका गोबर उठाया और कठिन परिश्रम किया। 
  • जिस आयु में बच्चे गुरुकुल जाते हैं उस आयु में मुझे कठिन परिश्रम करना पड़ा। ना कोई शिक्षा, ना कोई गुरु, ना गुरुकुल। 
  • मेरा शत्रु कोई और नहीं मेरे अपने ही मामा थे। 
  • मैंने जिस स्त्री से प्रेम किया अपने कर्तव्य का वहन करने के लिए मुझे उसे भी त्यागना पड़ा। 
  • यही नहीं मुझे मेरे पालक माता-पिता को भी छोड़ कर जाना पड़ा। 
  • १२ वर्ष की आयु में जब बालक अपने मां-बाप के गोद में खेलते थे, मुझे स्वयं अपने हाँथों अपने मामा का वध करना पड़ा। 
  • युवा होने के बाद प्रथम बार मुझे गुरु का सानिध्य मिला। ये अलग बात है कि मैंने अपनी शिक्षा केवल ६४ दिनों में पूर्ण कर ली। 
  • जरासंध के प्रकोप से अपनी प्रजा को बचाने के लिए मुझे अपनी मातृभूमि का त्याग करना पड़ा और द्वारिका नगरी में शरण लेनी पड़ी। 
  • मुझे विवाह करने के लिए कन्या-हरण और युद्ध करना पड़ा। 
  • मुझे ना चाहते हुए भी सैकड़ों विवाह या तो राजनितिक कारणों से करने पड़े या उनसे जिन्हे मैंने नरकासुर से छुड़ाया था।
  • अकारण ही मुझपर छली एवं चोर होने का लांक्षण लगाया गया। 
  • और आज ही देख लो, मेरे पास सब कुछ होते हुए भी मुझे एक महाभयंकर युद्ध लड़ना पड़ेगा और यही नहीं इतिहास मुझे ही उसका दोषी समझेगा। 
चुनौतियाँ हर किसी के जीवन में होती हैं लेकिन वो उसे किस प्रकार लेकर आगे बढ़ता है वही उसकी नियति तय करता है। हालाँकि कृष्ण के इतना समझने पर भी कर्ण किसी भी मूल्य पर दुर्योधन को छोड़ने को तैयार ना हुआ और फिर आगे का इतिहास सबको पता है। 

1 टिप्पणी:

  1. yeh sab bhogne ka bhi to kuchh na kuchh karan to hota hoga

    hame apne her karam ka bhog to kisi na kisi janam bharna hi hota hai
    jai shri krishan

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