लखीसराय बिहार का एक महत्वपूर्ण जिला है। इसी जिले में मनकठा रेलवे स्टेशन के पास एक छोटा सा गाँव है चौकी। इसी गाँव में श्वेत पाषाणों से बना एक अत्यंत मनोहारी मंदिर है जिसका नाम अशोक धाम मंदिर है। यहाँ पर भगवान महादेव का एक विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे इंद्रदमनेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
वैसे तो वर्तमान में चौकी गाँव की इस मंदिर के अतिरिक्त कोई खास महत्ता नहीं है लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि किसी ज़माने में ये छोटा सा गाँव पाल वंश के अंतिम राजा इन्द्रदमन की राजधानी हुआ करती थी जिन्होंने सबसे पहले यहाँ मंदिर की स्थापना करवाई और उन्ही के नाम पर इस शिवलिंग का नाम पड़ा।
ये शिवलिंग कितना पुराना है इसका कोई सटीक वर्णन नहीं मिलता लेकिन बहुत पुराना है ये पक्का है। स्वयं श्रीराम और उनकी माता कौशल्या द्वारा इस शिवलिंग की पूजा किये जाने का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि हरिद्रनदी, जिसे आज हरहर नदी कहा जाता है, के तट पर श्रीराम अपनी माता कौशल्या के साथ अपनी बड़ी बहन शांता से मिलने आये थे। उसी समय उन्होंने देवी कौशल्या और शांता के साथ इस शिवलिंग की पूजा की थी। रामायण काल में ही ऋषि ऋष्यश्रृंग द्वारा भी जनकपुरी जाते समय इस शिवलिंग की पूजा करने का वर्णन मिलता है।
कालांतर में जगतगुरु आदि शंकराचार्य द्वारा इस शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा की गयी और इसके बाद पालवंशी राजा इन्द्रदमन ने सन ११९२ ईस्वी में इस शिवलिंग के चारो और एक भव्य मंदिर की स्थापना की। महादेव के आदेश से इंद्रदमन को देवराज इंद्र की कृपा से अनावृष्टि से मुक्ति मिली और उन्ही के नाम पर ये शिवलिंग इंद्रदमनेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुआ। कहा जाता है कि जब मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने ११९७ को इन्द्रदमन पर आक्रमण किया और विशेष रूप से हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को खंडित करना प्रारम्भ किया तब ये शिवलिंग आश्चर्यजनक रूप से भूमिगत हो गया।
लखीसराय के पास आज जो बख्तियारपुर नामक जगह है वो शायद बख्तियार खिलजी के नाम पर ही रखा गया होगा। खिलजी ने धोखे से इन्द्रदमन को हराकर उसकी सत्ता को हथिया लिया। उसके बाद वो इस मंदिर को ध्वस्त करने के लिए सेना सहित आया किन्तु तब तक शिवलिंग अंतर्ध्यान हो चुका था। उसने मंदिर तो ध्वस्त कर दिया किन्तु उसे शिवलिंग की कोई खोज-खबर ना मिल सकी। उसके बाद करीब ८०० वर्षों तक ये शिवलिंग भूमिगत ही रहा और यहाँ के निवासी भी शायद भूल गए कि ऐसा कोई मंदिर यहाँ कभी था।
७ अप्रैल १९७७ को अशोक नाम का एक बालक भगवान शंकर की प्रेरणा से गिल्ली-डंडा खेलता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा। वहाँ उसने एक कृष्ण रंग के विशालकाय शिवलिंग का ऊपरी हिस्सा भूमि से बाहर आता हुआ देखा। कहा जाता है कि इस शिवलिंग के पुनः प्रादुर्भाव के बाद अशोक ही वो पहला बालक था जिसने इस शिवलिंग की पूजा की। उसके बाद वो गाँव वापस आया और सभी को उस शिवलिंग के बारे में बताया।
अगले दिन तक वो शिवलिंग पूरी तरह भूमि से बाहर आ गया और लोग इसे ज्योतिर्लिंग मान कर पूजने लगे। उसी बालक अशोक द्वारा खोजे जाने और पहली बार पूजा करने पर इस जगह का नाम "अशोक धाम" पड़ा। इस मंदिर की चर्चा जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य तक भी पहुँची और उन्होंने इस शिवलिंग के लिए पहले की भांति एक मंदिर बनाने की घोषणा की।
आज वर्तमान में जो यहाँ दर्शनीय मंदिर है वो ११ फरवरी १९९३ को बनकर तैयार हुआ और शंकराचार्य जी द्वारा उसका उद्घाटन किया गया। हर दिन सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु इस शिवलिंग के दर्शन को आते हैं। इस प्राचीन कृष्णवर्ण के शिवलिंग की ऊचाई लगभग साढ़े सात फ़ीट और इसका व्यास करीब दो फ़ीट है। इतना विशाल स्वयंभू शिवलिंग विश्व में बहुत ही कम है। आश्चर्य की बात ये है कि बौद्धकालीन जितनी भी मूर्तिया या उसके अवशेष मिले हैं उसमे से एक भी ऐसा नहीं है जो पूर्ण या अखंडित हो किन्तु इतने वर्षों तक भूमिगत रहने के बाद भी इस प्राचीन शिवलिंग पर एक खरोच भी नहीं आयी है। अब आप इसे चमत्कार नहीं तो और क्या कहेंगे। हर हर महादेव।
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