प्राचीन काल में एक बड़े सदाचारी राजा थे जीमकेतु। उनके राज्य में सभी बिना किसी चिंता के निवास करते थे तथा पूरी प्रजा सुखी एवं समपन्न थी। जीमकेतु ने अपने सामर्थ्य से अतुल धन संचित किया और उनकी वीरता के कारण आस-पास के राज्य में उसका कोई शत्रु ना रहा। समस्त जगत में उसकी प्रशंसा होने लगी। इतना प्रचुर धन और सम्मान देखकर दुर्भाग्यवश उसके मन में अपनी अथाह संपत्ति का अहंकार पैदा हो गया। राज-काज तो वो पहले जैसा करते थे किन्तु धन के अहंकार के कारण उसके स्वाभाव में परिवर्तन आ गया।
जिस राजसभा में कभी योग्य व्यक्ति हुआ करते थे वो अब चाटुकारों से भर गयी। जीमकेतु महर्षि दत्तात्रेय के महान भक्त थे और वर्षों से उनके दर्शनों के लिए नित्य सुबह उनकी पूजा और ध्यान किया करते थे। इतने बड़े भक्त होने के बाद भी दत्तात्रेय ने कभी उन्हें अपने दर्शन नहीं दिए थे किन्तु जब उन्होंने देखा कि उनका ये भक्त अहंकार के वश में आ गया है तो उन्हें जीमकेतु पर दया आयी और उन्होंने उसे सत्य का मार्ग दिखने का निर्णय किया।
एक दिन महर्षि दत्तात्रेय एक विक्षिप्त व्यक्ति के रूप में जीमकेतु के राजदरबार पहुँचे। उस समय राजा सभा में उपस्थित नहीं थे तब महर्षि दत्तात्रेय जाकर उसके राजसिंहासन पर बैठ गए। ये देख कर सभी दरबारी क्रोधित हो उसे उस सिंहासन से उठाने का प्रयत्न करने लगे पर कोई उन्हें हिला भी ना पाया।
उसी बीच राजा सभा में पहुँचे और एक विक्षिप्त को अपने सिंहासन पर बैठा देख कर क्रोधित हो बोले - "रे मूर्ख! तेरा ये साहस कि तू मेरे ही सामने मेरे राजसिंहासन पर बैठे। जी तो चाहता है कि अभी इसी क्षण तुझे मृत्युदण्ड दे दूँ किन्तु तू तो पागल प्रतीत होता है इसीलिए तेरे प्राण नहीं लेता। किन्तु अब अगर तू तक्षण वहाँ से ना उठा तो तेरे जीवन का अंत हो जाएगा।"
इसपर दत्तात्रेय ने कहा - "हे राजन! आप क्रोधित क्यों होते हैं? यह तो धर्मशाला है। इसमें आप भी ठहरिये और मैं भी ठहरता हूँ।" ऐसा सुनकर राजा ने हँसकर कहा - "प्रतीत होता है कि तू विक्षिप्त के साथ नेत्रहीन भी है। क्या तुझे ये दिखाई नहीं देता कि ये धर्मशाला नहीं, राजभवन है?"
तब महर्षि बोले - "राजभवन? ऐसा प्रतीत तो नहीं होता। क्या आप यहाँ चिरकाल से रहते आ रहे हैं?" तब राजा ने कहा - "नहीं, मैं यहाँ पिछले तीस वर्षों से रहता आ रहा हूँ।" तब महर्षि ने कहा - "उससे पहले यहाँ का राजा कौन था?" इसपर राजा ने कहा - "उससे पहले मेरे पिता यहाँ के राजा थे।" महर्षि ने फिर पुछा - "तो वो क्या चिरकाल से यहाँ रहते आ रहे थे?" राजा का क्रोध धीरे-धीरे शांत होता गया और उसने कहा - "नहीं उससे पहले मेरे पितामह यहाँ के सम्राट थे और उनसे पहले उनके पूर्वज।"
महर्षि ने फिर पूछा - "तो क्या अब आपका यहाँ चिरकाल तक राज्य करने का संकल्प है?" तब राजा ने कहा - "नहीं। ये तो संभव ही नहीं। मेरी मृत्यु के बाद तो ये सिंहासन मेरे पुत्र को प्राप्त होगा।" अब महर्षि ने मुस्कुराते हुए कहा - "फिर आप इसे राजसिंहासन क्यों कहते हैं? जहाँ कोई कुछ समय ठहरकर चला जाता है वो तो धर्मशाला ही कहलाती है। उसे सदा के लिए अपनी संपत्ति समझ लेना तो मूर्खता है। सुना है आप दत्त-भक्त हैं। उनके भक्त तो शालीन होते हैं फिर किस प्रकार आपको ये अहंकार हो गया?"
ऐसा सुनते ही राजा का अहंकार समाप्त हो गया और वो विलाप करते हुए बोले - "आप सत्य कहते हैं, ये धर्मशाला ही तो है। मैं ही मूर्ख था कि सत्ता और धन के अहंकार में अँधा हो गया। आज मुझे ज्ञात हुआ कि आज तक मुझे अपने आराध्य के दर्शन क्यों प्राप्त नहीं हुए। मेरे आराध्य महर्षि दत्तात्रेय कभी भी किसी अहंकारी को दर्शन नहीं देते। अब लगता है कि इस जीवन में मुझे उनके दर्शन नहीं हो सकेंगे।" अपने भक्त को इस प्रकार विलाप करते देख कर महर्षि दत्तात्रेय अपने असली स्वरुप में आ गए। अपने आराध्य के दर्शन पाकर राजा जीमकेतु कृत्य-कृत्य हो गए और उनके आशीर्वाद और सलाह के बाद अपना राज-पाठ अपने पुत्र को प्रदान कर उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया।
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