सर्वप्रथम आप सभी को ओणम की हार्दिक शुभकामनाएँ। ओणम दक्षिण भारत, विशेषकर केरल का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है जो दशहरे की तरह १० दिनों तक मनाया जाता है। ये त्यौहार सम्राट महाबली के स्वागत के लिए मनाया जाता है। इस पर्व का सम्बन्ध भगवान विष्णु के पाँचवे अवतार श्री वामन एवं प्रह्लाद के पौत्र दैत्यराज बलि से है।
दैत्यराज बलि भगवान विष्णु के अनन्य भक्त प्रह्लाद के पौत्र एवं विरोचन के पुत्र थे। स्वाभाव में वे अपने दादा प्रह्लाद की ही भांति धर्मात्मा एवं प्रजावत्सल थे। इसी कारण दैत्य होने पर भी देव और मानव भी उनका सम्मान करते थे। इन गुणों के कारण उनका प्रभाव इतना बढ़ा कि देवताओं को स्वर्ग छोड़ कर जाना पड़ा। उसके बाद बलि ने समस्त लोकों पर अधिकार के लिए एक यज्ञ करना आरम्भ किया।
जब देवताओं ने ये देखा तो वे नारायण के पास गए और अपना उद्धार करने की प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने देवमाता अदिति के गर्भ से वामन रूप में अवतार लिया और राजा बलि की यञशाला में पहुँचे। जब दैत्यराज बलि अंतिम आहुति डालने वाले थे कि द्वारपाल ने उन्हें सूचना दी कि एक ब्राह्मण द्वार पर भिक्षा के लिए खड़ा है।
उनके गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें कहा कि यज्ञ बस समाप्त ही होने वाला है इसीलिए इसे संपन्न कर ही वे कही जाएँ किन्तु बलि को ब्राह्मण को प्रतीक्षा करवाना उचित ना लगा इसी कारण वे तुरंत द्वार पर पहुँचे और वामन रुपी भगवान विष्णु का अभिवादन किया। जब उन्होंने उनसे भिक्षा माँगने को कहा तो वामन देव ने कहा - "हे सम्राट! मुझे अधिक की लालसा नहीं है इसी लिए आप मुझे तीन पग भूमि का दान कीजिये।"
उनके गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें कहा कि यज्ञ बस समाप्त ही होने वाला है इसीलिए इसे संपन्न कर ही वे कही जाएँ किन्तु बलि को ब्राह्मण को प्रतीक्षा करवाना उचित ना लगा इसी कारण वे तुरंत द्वार पर पहुँचे और वामन रुपी भगवान विष्णु का अभिवादन किया। जब उन्होंने उनसे भिक्षा माँगने को कहा तो वामन देव ने कहा - "हे सम्राट! मुझे अधिक की लालसा नहीं है इसी लिए आप मुझे तीन पग भूमि का दान कीजिये।"
ऐसा सुन कर बलि हँस पड़े और कहा - "हे ब्राह्मणदेव! आपका स्वरुप इतना छोटा है कि आप तीन पग में कितनी भूमि नाप पाएंगे? इसीलिए आप मुझसे कुछ और माँग लीजिये। अगर आप चाहें तो जहाँ तक आपकी दृष्टि जाती है मैं वो सारी भूमि अभी आपको दान कर देता हूँ।" इसपर भी वामनदेव तीन पग भूमि की माँग पर अड़े रहे। तब सम्राट बलि ने हँसते हुए उनकी बात स्वीकार कर ली।
किन्तु दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने वामनरुपी विष्णु को पहचान लिया और बलि को सावधान करते हुए कहा कि वे उन्हें तीन पग भूमि का दान ना दें। किन्तु बलि तो वचनबद्ध हो चुके थे इसीलिए उन्होंने वामनदेव की माँगी हुई भिक्षा देने का निर्णय किया। उन्होंने दान का संकल्प करने के लिए कमंडल उठाया किन्तु शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप धर कर कमंडल के मुख पर जा बैठे जिससे जल का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
ये देख कर दैत्यराज बलि ने वही पड़ी एक कुश से कमंडल के मुख को साफ करने लगे जिससे कुश शुक्राचार्य की आँख में जा लगा और उनकी एक आँख फूट गयी। क्रोधित होते हुए शुक्राचार्य ने बलि को श्राप दिया - "हे दैत्यराज! तुमने अपने गुरु की आज्ञा ना मान कर उनका अपमान किया है इसीलिए तू अपने सभी संपत्ति से हाथ धो बैठेगा। जिसे तू एक तुच्छ वामन समझ रहा है वो स्वयं नारायण हैं जो तेरा सब कुछ छीनने आये हैं।" इसपर भी बलि अपने वचन से नहीं डिगे और जल लेकर अपने दान का संकल्प लिया और वचन अनुसार वामनदेव को तीन पग भूमि नापने को कहा।
ये सुनकर वामन जी ने अपना विराट स्वरुप धरा और एक पग से पृथ्वी और एक पग से स्वर्ग को नापते हुए कहा - "लो दैत्यराज! तुम्हारे अधिकार वाली पृथ्वी और स्वर्ग को तो मैंने नाप लिया। अब ये बताओ कि मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूं?" इस पर बलि ने विनम्रता से कहा - "हे नारायण के अवतार! मेरे अधिकार में तो पृथ्वी और स्वर्ग यही दो संपत्ति थी। इसके अतिरिक्त मेरे पास केवल मेरा शरीर है। इसीलिए हे देव आप अपना तीसरा पग मेरे शीश पर रखें।"
ये सुनकर वामन जी ने अपना विराट स्वरुप धरा और एक पग से पृथ्वी और एक पग से स्वर्ग को नापते हुए कहा - "लो दैत्यराज! तुम्हारे अधिकार वाली पृथ्वी और स्वर्ग को तो मैंने नाप लिया। अब ये बताओ कि मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूं?" इस पर बलि ने विनम्रता से कहा - "हे नारायण के अवतार! मेरे अधिकार में तो पृथ्वी और स्वर्ग यही दो संपत्ति थी। इसके अतिरिक्त मेरे पास केवल मेरा शरीर है। इसीलिए हे देव आप अपना तीसरा पग मेरे शीश पर रखें।"
इस प्रकार के दान को पाकर वामनदेव प्रसन्न हो गए और अपना तीसरा पग दैत्यराज बलि के शीश पर रखते हुए उन्हें पाताल का राज्य प्रदान किया। बलि ने पाताल का राज्य सहर्ष स्वीकार किया और सभी दैत्यों के साथ पाताल लोक जाने के लिए तैयार हुए। जाने से पहले वामनदेव ने उनकी दानवीरता से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान माँगने को कहा। तब बलि ने कहा - "हे देव! दैत्यों की भांति ही पृथ्वी पर समस्त मनुष्य मुझे अत्यंत प्रिय हैं अतः मुझे ये वरदान दीजिये कि मैं उनसे भी मिल सकूँ।" तब वामनदेव ने बलि को ये वरदान दिया कि वर्ष में एक दिन वे अपनी प्रजा से मिलने पृथ्वी पर आ सकते हैं।
केरल की जनश्रुतियों के अनुसार बलि, जिन्हे वहाँ महाबली भी कहा जाता है, इसी एक दिन अपनी प्रजा से मिलने पृथ्वी पर आते हैं और उन्ही के स्वागत के लिए ओणम का पवित्र पर्व १० दिनों तक मनाया जाता है। ये उत्सव केरल के कोच्चि जिले के त्रिक्काकरा में स्थित विश्व के एकमात्र वामन मंदिर से आरम्भ होता है।
इस पर्व में स्त्रियां सुन्दर रंगोली बना कर "थिरुवाथिरा कलि" नृत्य करती हैं। इस रंगोली जिसे वहाँ पूकलम कहते हैं, का आकर पहले दिन जिसे अथम कहते हैं, छोटा होता है। फिर प्रत्येक दिन उस रंगोली में एक घेरा बढ़ा दिया जाता है जिससे दसवें दिन जिसे तिरुवोणम कहते हैं, उस पूकलम का आकर बहुत वृहद हो जाता है। इसी पूकलम में फिर त्रिक्काकाराप्पन (भगवान वामन) एवं महाबली की प्रतिमा मिट्टी से बनायीं जाती है।
इसी दिन केरल की प्रसिद्ध नौका दौड़ भी होती है और इसी दिन केरल का प्रसिद्ध महाबली नृत्य भी होता है। ओणम के समय तक खेतों में फसल पक कर तैयार हो जाती है और इससे उल्लास का वातावरण होता है। बढ़िया व्यंजन और संस्कृति का ये अनोखा मेल केरल को एक विशेष रंग में रंग देता है। दुखद है कि केरल इस समय बाढ़ की त्रासदी से त्रस्त है। आशा है कि ओणम उनके जीवन में एक नयी ख़ुशी लेकर आये।
इसी दिन केरल की प्रसिद्ध नौका दौड़ भी होती है और इसी दिन केरल का प्रसिद्ध महाबली नृत्य भी होता है। ओणम के समय तक खेतों में फसल पक कर तैयार हो जाती है और इससे उल्लास का वातावरण होता है। बढ़िया व्यंजन और संस्कृति का ये अनोखा मेल केरल को एक विशेष रंग में रंग देता है। दुखद है कि केरल इस समय बाढ़ की त्रासदी से त्रस्त है। आशा है कि ओणम उनके जीवन में एक नयी ख़ुशी लेकर आये।
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