आप सभी को अनंत चतुर्दशी की हार्दिक शुभकामनाएँ। ये हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है जो गणेश चतुर्दशी के दसवें दिन मनाया जाता है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त जैन धर्म में भी इसका विशेष महत्त्व है। प्रतिवर्ष भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के अनंत रूप की पूजा की जाती है। उनके इस रूप में उनके उस अनंत स्वरुप का वर्णन है जिसे उन्होंने अर्जुन को अपने विराट स्वरुप के रूप में दिखाया था।
१४ भुवनों तक फैले उनके इस स्वरुप का ना कोई अदि है और ना ही अंत। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करके रेशम से बनें अनन्तसूत्र को कलाई पर बाँधा जाता है। इस पूजा को करने से दरिद्रता समाप्त हो जाती है और अनन्तसूत्र एक रक्षाकवच की तरह काम करता है। जैन धर्म में भी इसे अनंत चतुर्दशी या अनंत चौदस के रूप में मनाया जाता है। ये उनका सबसे पवित्र दिन माना जाता है जिस दिन उनके पर्युषण पर्व की समाप्ति होती है। इसी दिन उनके १२वें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य जी ने निर्वाण लिया था।
हिन्दू धर्म के एक मान्यता के अनुसार अनंत पूजा के दिन भगवान विष्णु के साथ शेषनाग की पूजा भी की जाती है। शेषनाग सर्वव्यापी हैं जिनके फण पर पृथ्वी का टिका होना माना जाता है। इसी कारण उनका एक नाम अनंत भी है। इसके विषय में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं।
एक कथा के अनुसार जब श्रीराम के पूर्वज राजा हरिश्चंद्र को दरिद्रता ने चारों ओर से घेरा और उन्हें अत्यंत कष्ट उठाने पड़े तब उन्होंने भी अनंत चतुर्दशी का व्रत किया जिससे उन्हें उनका राज-पाठ वापस मिल गया। महाभारत में इसका वर्णन है कि जब पांडवों को छल से जुए में हराया गया तब पांडव द्रौपदी के साथ वन चले गए। वहाँ उनसे मिलने श्रीकृष्ण आये तब द्रौपदी ने उनसे पूछा कि इतने धर्मात्मा होने के बाद भी पाण्डवों को इस प्रकार दुःख क्यों भोगना पड़ रहा है?
तब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी एवं पांडवों को अनंत चतुर्दशी की कथा सुनाई और उन्हें इस व्रत को करने का निर्देश दिया। पाँडवों ने १२ वर्ष के वनवास एवं १ वर्ष के अज्ञातवास में प्रत्येक वर्ष इस व्रत को नियमपूर्वक किया जिसके प्रताप से १३वें वर्ष दुर्योधन अपने समस्त प्रयासों के बाद भी पांडवों का अज्ञातवास भंग करने में सफल नहीं हो पाया। इसी व्रत के प्रभाव से पांडवों को महाभारत के युद्ध में सफलता मिली और अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त हुआ।
अनंत चतुर्दशी की मुख्य कथा कौणिडन्य ऋषि एवं उनकी पत्नी सुशीला से सम्बंधित है। प्राचीन काल में सुमंत नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी दीक्षा एवं पुत्री सुशीला के साथ सुख पूर्वक रहता था। जब सुशीला विवाहयोग्य हुई उसी समय दीक्षा की मृत्यु हो गयी। गृहस्थी सँभालने के लिए सुमंत ने कर्कशा नामक एक स्त्री से विवाह कर लिया जिसका स्वाभाव उसके नाम के समान ही था। कुछ समय के बाद सुमंत ने अपनी पुत्री सुशीला का विवाह कौणिडन्य नामक तपस्वी ऋषि से करवा दिया और उन्हें अपने ही आश्रम में अपने साथ रख लिया किन्तु कुछ समय बाद ही कर्कशा के व्यहवार के कारण दोनों को आश्रम छोड़ कर जाना पड़ा।
सुमंत की छत्रछाया समाप्त होने के बाद कौणिडन्य को समझ में नहीं आया कि अब जीवन यापन कैसे किया जाये और शीघ्र ही दरिद्रता ने उन्हें और सुशीला को घेर लिया। एक बार दोनों भटकते हुए एक नदी तट पर पहुँचे जहाँ पर कौणिडन्य को निद्रा आ गयी। उस समय सुशीला ने देखा कि कुछ महिलाएं नदी के तट पर पूजा कर रही हैं। सुशीला ने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि वे अनंत चतुर्दशी का व्रत कर रही हैं। उनसे प्रभावित होकर सुशीला ने भी वो व्रत किया और श्रद्धा से अनन्तसूत्र बाँधा और नारायण से अपनी दरिद्रता समाप्त करने की प्रार्थना की।
उस व्रत के प्रभाव से जल्द ही उनकी दरिद्रता जाती रही और उन्हें काफी धन एवं ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। अगले वर्ष पुनः अनंत चतुर्दशी के दिन सुशीला ने उस व्रत को किया और अनंतसूत्र बाँधा। जब कौणिडन्य ने उस अनन्तसूत्र को सुशीला की कलाई पर देखा तो उन्होंने पूछा कि ये क्या है? तब सुशीला ने उन्हें अनंत चतुर्दशी की महिमा बताई और कहा कि उनके बुरे दिन इसी व्रत के कारण समाप्त हुए हैं।
ये सुनकर कौणिडन्य को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने कहा - "रे मुर्ख स्त्री! मेरे परिश्रम द्वारा प्राप्त किये गए इस ऐश्वर्य को तू भगवान विष्णु की कृपा बता रही है? अवश्य ही ये धागा तूने मुझपर जादू-टोना करने के लिए बाँधा है।" ये कहकर उन्होंने उस अनन्तसूत्र को तोड़ दिया। इससे नारायण उनसे रुष्ट हो गए और तत्काल ही उन्होंने अपना समस्त धन और ऐश्वर्य गवाँ दिया।
वापस दरिद्र होकर कौणिडन्य को अपनी भूल का अहसास हुआ और फिर उन्होंने सुशीला के साथ १४ वर्षों तक अनंत चतुर्दशी का व्रत किया जिससे प्रसन्न होकर भगवान श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें दरिद्रता से मुक्त किया। उन्होंने ये वरदान भी दिया कि जो भी इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करेगा उसके जीवन में कभी दरिद्रता प्रवेश नहीं कर पायेगी। जय अनंत भगवान।
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