आप सभी को गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ। कल से गणेश पूजा आरम्भ हो गयी है जिसे अगले १० दिनों तक पूरे देश में धूम-धाम से मनाया जायेगा। वैसे तो गणेश चतुर्थी पूरे देश में मनाई जाती है किन्तु महाराष्ट्र में ये सबसे बड़ा पर्व माना जाता है और वहाँ इसकी छटा देखते ही बनती है।
बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि विनायक चतुर्थी एवं गणेश चतुर्थी में वही अंतर है जो शिवरात्रि एवं महाशिवरात्रि में है। इसके बारे में आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं। शिवरात्रि की भांति ही गणेश जी की पूजा का योग हर महीने आता है जिसे हम विनायक चतुर्थी या संकष्टी चतुर्थी के नाम से मानते हैं किन्तु महाशिवरात्रि की तरह वर्ष में एक बार भाद्र महीने (सितम्बर) के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को हम गणेश चतुर्थी के रूप में मानते हैं।
इस पर्व का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। छत्रपति शिवाजी ने महाराष्ट्र में सार्वजानिक रूप से गणेश चतुर्थी मनाने की शुरुआत की। सन १८५७ की क्रांति के असफल होने के बाद श्री लोकमान्य गंगाधर तिलक ने १० दिनों तक गणेश चतुर्थी का पर्व मनाने का सुभारम्भ किया जिससे अंग्रेजी शासन की जड़ें कमजोर हुई।
सन १८९२ तक गणेश चतुर्थी का आयोजन इतने वृहद् रूप में नहीं होता था। लोग अपने घरों में ही श्रीगणेश का पूजन किया करते थे। किन्तु फिर अंग्रेज सरकार का अत्याचार देख कर श्री बाल गंगाधर तिलक ने गणेश चतुर्थी को अंग्रेजी सरकार के विरोध में वृहद् और सार्वजानिक रूप मानाने का निश्चय किया। इस प्रकार १८९२ में प्रथम बार बॉम्बे (आज का मुंबई) में प्रथम बार इतने वृहद् स्तर पर गणेश चतुर्थी का आयोजन किया गया जो आज तक बिना रुके चल रहा है।
भारत के अतिरिक्त गणेश चतुर्थी नेपाल, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, फिजी, अमेरिका और यूरोप के कई देशों में भी मनाया जाता है। इसी दिन श्रीगणेश का जन्म हुआ था, इसी दिन दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु हुई और इसी दिन उन्हें पुनर्जीवन मिला था। श्रीगणेश के विषय में कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं।
भारत के अतिरिक्त गणेश चतुर्थी नेपाल, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, फिजी, अमेरिका और यूरोप के कई देशों में भी मनाया जाता है। इसी दिन श्रीगणेश का जन्म हुआ था, इसी दिन दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु हुई और इसी दिन उन्हें पुनर्जीवन मिला था। श्रीगणेश के विषय में कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं।
सबस पहली कथा उनके जन्म की है। एक बार देवी पार्वती स्नान कर रही थी और उन्होंने नंदी को द्वार की रक्षा के लिए खड़ा किया। उसी समय भगवान शिव वहाँ आये और अंदर चले गए। उनके क्रोध के भय से नंदी को उन्हें रोकने का साहस ना हुआ। जब देवी पार्वती ने उन्हें वहाँ देखा तो कुछ कहा तो नहीं किन्तु मन ही मन में उन्हें नंदी पर बड़ा क्रोध आया।
इसके बाद उन्होंने अपने शरीर के मैल से एक बालक की स्थापना की और उसमे प्राण डाले। उन्होंने उस बालक को एक दिव्य मुग्दर दिया और द्वार की रक्षा करने का आदेश दिया। वो बालक अपनी माता के अतिरिक्त और सभी चीज से अनजाना था इसी कारण जब महादेव द्वार पर आये तो उसने उन्हें रोक दिया। महादेव उस बालक को देख कर अति प्रसन्न हुए और उसका खेल समझ कर वापस लौट गए। उन्होंने नंदी को उस बालक को द्वार से हटाने का आदेश दिया किन्तु उसने बात ही बात में नंदी, भृंगी समेत समस्त शिवगणों को परास्त कर दिया।
अनिष्ट की आशंका जानकार इन्द्रादि देवता एवं स्वयं ब्रह्मा एवं विष्णु वहाँ पधारे। इंद्र ने उस बालक को समझाने का प्रयास किया किन्तु उसने इंद्र पर ही आक्रमण कर दिया। कोलाहल सुनकर महादेव वहाँ पहुँचे और अपने गणों और इंद्र की दशा देख कर बड़े क्रोधित हुए। उनका क्रोध शांत करते हुए नारायण स्वयं उस बालक को समझाने गए किन्तु अज्ञानता में उस बालक ने श्रीहरि पर ही प्रहार कर दिया। उनका ऐसा अपमान भगवान शिव से सहन नहीं हुआ और क्रोध में उन्होंने उस बालक का सर काट दिया।
जब माता पार्वती स्नान के बाद बाहर आयी तो अपने बालक का कटा सर देख कर विलाप करने लगी। उन्होंने महादेव से उसे पुनः जीवित करने की प्रार्थना की किन्तु भगवान शिव ने कहा कि वे सृष्टि के नियम के विरुद्ध जाकर उस बालक को प्राणदान नहीं दे सकते। तब देवी पार्वती ने महाकाली का रूप धरा और कहा कि जिस सृष्टि के नियम की वे बात कर रहे हैं, वे उस सृष्टि को ही नष्ट कर देंगी।
तब ब्रह्मदेव के अनुरोध पर भगवान शिव उस बालक को जीवनदान देने को तत्पर हुए किन्तु उनके प्रहार से उस बालक का सर भस्म हो चुका था। तब भगवान विष्णु ने शिवगणों को आज्ञा दी कि वे उत्तर दिशा की ओर जाएँ और वहाँ जो भी पहला प्राणी उन्हें दिखे उसका सर काट कर ले आयें।
जब शिवगण उत्तर दिशा की ओर बढ़े तो वहाँ उन्हें एक हाथी दिखा जो वास्तव में श्रापग्रस्त था और मुक्ति की प्रतीक्षा ही कर रहा था। शिवगण उसी हाथी का शीश काट कर ले आये और तब महादेव ने उस हाथी का सर उस बालक के धड़ पर जोड़ कर उसे पुनर्जीवित किया। तब से वे गजानन कहलाये। सभी देवों ने गजानन को विभिन्न वरदान दिए और भगवान विष्णु ने उन्हें अंकुश प्रदान किया जिससे वे दुष्टों पर अंकुश रख सकें। भगवान शिव ने उन्हें अपने समस्त गणों का अधिपति बनाया और उन्हें "गणेश" नाम दिया।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार बालक गणेश के जन्म का समाचार सुनकर सभी देवता उनसे मिलने को आये। वहाँ शनिदेव भी उपस्थित थे किन्तु वे गणेश की ओर देख नहीं रहे थे। तब माता पार्वती ने उनसे पूछा कि आप मेरे पुत्र की ओर देख क्यों नहीं रहे हैं? इस पर शनिदेव ने बताया कि उन्हें वक्रदृष्टि का श्राप है और इससे गणेश का कोई अहित ना हो इसी कारण वे गणेश की ओर देख नहीं रहे हैं। तब देवी ने कहा कि आप गणेश की ओर देखिये, मैं भी आपकी वक्र दृष्टि का परिणाम देखना चाहती हूँ। तब शनिदेव ने उनकी ओर देखा जिससे तत्काल गणेशजी का सर उनके धड़ से अलग हो गया। तब शिवजी ने गज का सर जोड़ कर गणेश को जीवित कर दिया
किन्तु देवी पार्वती ने पूछा कि "गणेश हम दोनों का पुत्र है तो उसपर एक ग्रह की दृष्टि का ऐसा प्रभाव कैसे पड़ गया?" तब नारायण ने देवी पार्वती को बताया कि कई वर्ष पहले माली और सुमाली नामक दैत्य पर प्रहार करने के कारण भोलेनाथ ने सूर्यनारायण पर त्रिशूल से प्रहार किया जिससे सूर्य की चेतना जाती रही और वे मृत्यु के कगार पर पहुँच गए। अपने पुत्र की ये दशा देख कर ब्रह्माजी के पौत्र महातपस्वी कश्यप ऋषि ने क्रोध में आकर महादेव को श्राप दे दिया कि "जिस प्रकार मेरा पुत्र आपके प्रहार से मृत्यु को प्राप्त हो रहा है उसी प्रकार आपका पुत्र भी मृत्यु को प्राप्त होगा और उसका मस्तक कट जाएगा।"
भगवान शिव पर भला किसी श्राप का क्या प्रभाव होगा किन्तु फिर भी उन्होंने इस श्राप को स्वीकार कर सूर्यदेव को जीवनदान दिया। तब कश्यप ऋषि को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने भगवान शिव से क्षमा माँगते हुए कहा कि "हे प्रभु! जिस प्रकार आपने मेरे पुत्र को जीवनदान दिया है उसी प्रकार आपके द्वारा आपके पुत्र को जीवनदान प्राप्त होगा।"
एक और कथा के अनुसार जब शिवगण मस्तक ढूँढने को निकले तो ब्रह्मदेव ने उन्हें निर्देश दिया कि किसी ऐसी माता का ही मस्तक काटना जो अपने पुत्र से विमुख हो उसकी और पीठ करके सोई हो। शिवगण ने हर जगह ढूँढा किन्तु उन्हें ऐसी को माता ना मिली जो अपने पुत्र की ओर पीठ कर के सोई हो। तभी उन्हें एक हथिनी दिखी जो अपनी सूड़ के कारण अपने शिशु की ओर पीठ कर के सोई थी और इसी कारण उन्होंने उस गजा का मस्तक काट लिया। श्रीगणेश के मस्तक के रूप में स्थापित होने के कारण हाथी को हिन्दू धर्म के चार सबसे पवित्र जीवों में माना जाता है। अन्य तीन हैं गाय, नाग एवं मयूर।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव और देवी पार्वती नर्मदा नदी के तट पर चौपड़ खेल रहे थे। किन्तु हार जीत का निर्णय कौन करे? तब भगवान शिव ने एक बालक की स्थापना की और उससे निर्णय करने को कहा। उस खेल में तीन बार देवी पार्वती जीत गयीं किन्तु जब उन्होंने उस बालक से पूछा तो उसने भगवान शिव को विजेता घोषित किया।
तब देवी पार्वती ने क्रोधित हो उसे एक पाँव से लंगड़ा और वही कीचड में दुख भोगने का श्राप दिया। तब उस बालक ने क्रंदन करते हुए कहा कि उसने जान बूझ कर ऐसा नहीं किया बल्कि महादेव द्वारा सृजन किये जाने के कारण उसकी आस्था उनमे अधिक है इसी कारण उसने उन्हें विजेता घोषित किया। उसे इस प्रकार क्रंदन करता देख माता पार्वती को दया आई और उन्होंने उसे २१ दिनों तक गणेश की पूजा करने की आज्ञा दी जिससे उस बालक को उस श्राप से मुक्ति मिली और फिर वो कैलाश जाकर अपने माता-पिता के दर्शन कर सका।
यहाँ तक कि स्वयं भगवान शिव और माता पार्वती द्वारा भी श्रीगणेश के पूजन करने का विवरण पुराणों में मिलता है। एक बार माता पार्वती भगवान शिव से रुष्ट हो कैलाश से चली गयी। तब महादेव ने १२ दिनों तक गणेश का ध्यान किया जिससे माता पार्वती स्वयं उनसे मिलने आई। वहाँ आकर उन्होंने पूछा कि अचानक मेरे मन में आपसे मिलने की इच्छा किस प्रकार जागी? तब भगवान शिव ने उन्हें गणेश पूजन का महत्त्व बताया। तब माता पार्वती ने भी अपने बड़े पुत्र कार्तिकेय से मिलने के लिए गणेश का ध्यान किया जिसके प्रभाव से कार्तिकेय स्वयं अपने माता-पिता से मिलने कैलाश पर आये। उसी समय कार्तिकेय और गणेश के बीच श्रेष्ठता की परीक्षा हुई जिसमे श्रीगणेश अपनी बुद्धि से विजयी घोषित हुए और भगवान शिव ने उन्हें प्रथम पूज्य घोषित किया।
जब कार्तिकेय वापस आये और उन्हें इस बात का पता चला तो वे सदा के लिए कैलाश त्याग कर श्रीशैलम पर्वत पर चले गए। श्रीगणेश को विघ्नहर्ता कहा जाता है और जो कोई भी उनकी मन से पूजा करता है उनके सभी दुःख निश्चय ही दूर हो जाते हैं।
गणेश चतुर्थी को १० तक मानाने और उसके बाद श्रीगणेश का विसर्जन करने के पीछे भी एक कथा है। साथ ही साथ श्रीकृष्ण के द्वारा भी गणेश चतुर्थी के व्रत करने का वर्णन आता है। इसके अतिरिक्त श्रीगणेश के जन्म की अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं जो गणेश चतुर्थी से जुडी हैं। ये तो सभी जानते हैं कि गणेश चतुर्थी का त्यौहार १० दिनों तक रहता है और उसके बाद उनकी प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है। इस परंपरा के पीछे भी एक कथा है।
बात तब की है जब ब्रह्मदेव की प्रेरणा से महर्षि व्यास ने महाभारत की कथा को लिखने का निर्णय लिया। उन्होंने ये निश्चय किया कि वे केवल श्लोकों की रचना करेंगे। किन्तु फिर उस महान कथा को लिपिबद्ध कौन करे? तब उन्होंने श्रीगणेश से प्रार्थना की कि वे उस कथा को लिखने की कृपा करें। उनका अनुरोध सुनकर श्रीगणेश उस कथा को लिखने के लिए तैयार तो हो गए पर उन्होंने एक शर्त रख दी कि एक बार लिखना शुरू होने के बाद उनकी लेखनी कभी रुकनी नहीं चाहिए। अगर व्यास ने कथा सुनाना बंद किया और उनकी लेखनी रुकी तो वे आगे उस कथा को नहीं लिखेंगे।
ऐसी विचित्र शर्त सुन कर महर्षि व्यास ने भी एक शर्त रख दी कि जब तक वे उनके द्वारा बोले श्लोकों को ठीक-ठीक समझ ना लें तब तक वे उसे ना लिखें। श्रीगणेश ने उनकी शर्त मान ली। कथा आरम्भ हुई। श्रीगणेश का लेखन अत्यंत त्वरित था। ये देख कर व्यास मुनि बीच-बीच में अपने श्लोकों को कठिन बना देते थे जिसको पूर्ण रूप से समझने के लिए श्रीगणेश को थोड़ा समय लग जाता था। उसी बीच व्यास अन्य श्लोकों की रचना कर लेते थे। इस प्रकार महाभारत की कथा समाप्त हुई।
किन्तु जब श्रीगणेश ने कथा लिखनी आरम्भ की तो उस समय वे ना भोजन कर सकते थे और ना ही जल पी सकते थे। इस कारण उनका तापमान बहुत बढ़ गया। उस ताप को महसूस कर महर्षि व्यास ने उन्हें मिट्टी से पूरी तरह ढक दिया ताकि उनके शरीर का ताप थोड़ा कम हो जाये। किन्तु जब १० दिन के बाद कथा समाप्त हुई तो उस मिट्टी से ढंके होने के बाद भी श्रीगणेश का तापमान बहुत बढ़ गया। तब व्यास मुनि ने उन्हें पास के सरोवर में डुबकी लगाने का सुझाव दिया। जल में प्रवेश करने के बाद ही श्रीगणेश का तापमान पुनः सामान्य हो पाया। तभी से गणेश चतुर्थी के उपलक्ष्य पर श्रीगणेश की मिट्टी की प्रतिमा बनाने और उसके १० दिन के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन उसके विसर्जन की परंपरा आरम्भ हुई।
श्रीगणेश से जुडी एक कथा श्रीकृष्ण की भी है। जब सत्राजित ने समयान्तक मणि की चोरी का आरोप श्रीकृष्ण पर लगाया तब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि आपने अशुभ मुहूर्त में चंद्रदेव के दर्शन किये थे जिस कारण आप पर चोरी का आरोप लगा है। तब श्रीकृष्ण ने इसका रहस्य जानना चाहा। तब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि श्रीगणेश ने चंद्रदेव की धृष्टता के कारण उन्हें क्षय होने का श्राप दिया था और ये भी कहा था कि उस समय जो भी मनुष्य चंद्र के दर्शन करेगा, उसका भी अनिष्ट होगा। तब श्रीकृष्ण ने विधिवत रूप से गणेश चतुर्थी के दिन श्रीगणेश की पूजा की और उनकी कृपा से अंततः वे समयान्तक मणि को वापस पाने में सफल रहे।
श्रीगणेश को समर्पित ये १० दिन हमारे पापों का नाश करती है और आपसी सद्भाव को बढाती है। हमारे देश में आपसी सद्भाव का ऐसा अद्भुत संगम विरले ही देखने को मिलता है। आइये इस गणेश चतुर्थी को हम अपनी आंतरिक शुद्धि का संकल्प लें और आपसी सद्भावना को बढ़ाएं। गणपति बप्पा मोरया।
Bahut sundar
जवाब देंहटाएंबहुत आभार
हटाएंअत्यंत महत्वपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई