"उठिए प्राणनाथ इतनी गहरी निद्रा में सोना सृष्टि के पालनकर्ता के लिए उचित नहीं है। देखिए कितने भक्त आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" शेष शैया पर सोते भगवान विष्णु को चिन्तित लक्ष्मी जी बार-बार जगाने का प्रयत्न कर ही रही थी कि "बहन लक्ष्मी... नारायण... कहाँ है आप लोग?" - ये कहते हुए देवी पार्वती वहाँ उपस्थित हुई।
"अरे! बहन पार्वती! आप यहाँ? विष्णुलोक में आपका स्वागत है।" देवी लक्ष्मी ने उनका अभिवादन करते हुए कहा। उनके चेहरे की गंभीरता को देखते हुए देवी लक्ष्मी ने कहा - क्या बात है, आप बड़ी चिंतित दिखाई दे रही हैं।"
"हाँ देवी..." पार्वती जी ने चिंतित स्वर में कहा "...मैं यहाँ नारायण से सहायता मांगने आई हूँ।
"सहायता?" देवी लक्ष्मी ने आश्चर्य से पूछा। "जगत माता को कैसी समस्या?"
"समस्या तो बहुत बड़ी है..." देवी पार्वती ने उदास स्वर में कहा - "...जब स्वामी ही ना सुनें तो कोई क्या कर सकता है? महादेव की अवस्था चिन्तनीय है। वे भक्तों की पुकार का कोई उत्तर नहीं दे रहे। पता नहीं क्या समस्या है। इसीलिए सोचा नारायण से इसके बारे में कुछ सलाह लूँ, कदाचित वे कोई उपाय बता सकें।"
"महादेव भी..." देवी लक्ष्मी ने चिंतित स्वर में कहा। "...विचित्र बात है। देवी, यहाँ स्वामी को देखिये, कितनी गहन निद्रा में सोए हैं। इनके भक्तों की पुकार मुझतक पहुँच रही है किन्तु ना जाने क्यों ये अनजान बने बैठे हैं।"
"अरे हाँ। नारायण की भी वही दशा है जैसी स्वामी की है। फिर अब हम क्या करें? जब पालनहार और महारुद्र स्वयं विमुख हुए बैठे हैं तो अन्य कौन सहायता करेगा?"
"अब तो केवल ब्रह्मदेव ही हमारी सहायता कर सकते हैं।" लक्ष्मीजी ने आतुरता से कहा - "शीघ्रातिशीघ्र हमें उनसे मिलकर अपनी समस्या बतानी चाहिए। अब वही हैं जो हमारी सहायता कर सकते हैं।" देवी पार्वती की सहमति के पश्चात दोनों अविलम्ब ब्रह्मलोक की ओर चल पड़ीं।
ब्रह्मलोक के द्वार तक वे पहुँची ही थी कि सामने से देवी सरस्वती आती दिखीं। दोनों को देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्वागत किया और कहा - "अच्छा हुआ आप दोनों यहाँ आ गयीं। मैं स्वयं आपसे मिलने आने वाली थी।" दोनों ने आश्चर्य से देवी सरस्वती की ओर देखा। "पता नहीं क्या हुआ किन्तु स्वामी की स्थिति ठीक नहीं है। ध्यान में ऐसे खोए हैं कि अपनी ही बनाई सृष्टि की सुध नहीं है। कदाचित उनकी त्रिलोक को देखने की दिव्यदृष्टि क्षीण हो रही है।"
दोनों अब कहें तो क्या कहें? उन्होंने अपनी-अपनी समस्या देवी सरस्वती को बताई। अब तीनों देवियों की चिंता का कारण एक ही था। त्रिदेव जो समस्त ब्रह्माण्ड का आधार हैं अचेत से पड़े हैं। अब वे किसके पास जाएँ? जब त्रिदेव ही संकट में हो तो कौन सहायता करेगा?
तभी "नारायण... नारायण..." की ध्वनि के साथ देवर्षि नारद वहाँ उपस्थित हुए। अपने चिर-परिचित हास्य और विनोद के साथ उन्होंने कहा - "प्रणाम माताओं। धन्यभाग मेरे कि आप तीनों के दर्शन एक साथ हुए। किन्तु आप तीनो के ही मुख पर विषाद के भाव हैं। आखिर कारण क्या है कि स्वयं जगत्माताएँ चिंतित हैं?" तीनों ने अपनी समस्या कह सुनाई जिसे सुनकर देवर्षि भी चिंतित हो गए। "ये तो विकट समस्या है। जो संकट दूर करे अगर उनपर ही संकट आये तब तो घोर विपत्ति की आशंका है। मेरी बुद्धि भी काम नहीं कर रही। चलिए देवगुरु बृहस्पति के पास चलते हैं। कदाचित वे हमारी कोई सहायता कर सकें।"
देवगुरु ने जब ये समाचार सुना तो अपनी दिव्यदृष्टि का प्रयोग कर कहा - "माता, त्रिदेवों पर ये जो संकट आया है वो कलियुग के ताप का असर है। कलियुग का प्रभाव चरम पर है और उसी के प्रभाव के कारण त्रिदेव इतने दुर्बल और शक्तिहीन हो रहे हैं। उसी कारण स्वर्ग में सभी देवता पहले ही कर्तव्यच्युत एवं कांतिहीन हो चुके हैं और अब त्रिदेव भी।"
"किन्तु कलियुग का प्रभाव त्रिदेवों पर कैसे हो सकता है?" देवी लक्ष्मी ने आश्चर्य से पूछा।
"देवी! समस्त देवताओं को पृथ्वी पर मानव द्वारा किये गए सत्कर्म एवं भक्ति से ही शक्ति मिलती है किन्तु कलियुग ने मानवों की मति भ्रष्ट कर रखी है। उनके अंदर लोभ, ईष्या एवं अहंकार की गहन भावना भर दी है जिस कारण प्रेम, मानवता, दया, सहिष्णुता आदि भाव सब निस्तेज पडें हुए हैं। जब पुण्य का स्रोत ही बंद हो तो त्रिदेव सचेत कैसे हो सकते हैं?"
"देवगुरु! समस्या तो आपने बता दी किन्तु उसका समाधान क्या है?" देवर्षि नारद ने तत्परता से पूछा।
"हे देवर्षि! इसका समाधान हमारे नहीं बल्कि मानवों के हाथ में है। उनमे जब सद्गुण लौटेंगे तो त्रिदेव भी लौट आएंगे। मेरा सुझाव है कि प्रतीक्षा करने की बजाय आप लोग गुप्तरूप से पृथ्वी पर जाएँ और देखें कि क्या कोई है जिसके पुण्य के कारण कलियुग में भी आशा की कोई किरण बची है। कदाचित त्रिदेव भी हमारी परीक्षा लेने के लिए ये लीला कर रहे हों।
देवगुरु के सुझाव अनुसार तीनों देवियाँ पृथ्वी के एक देवालय में अदृश्य रूप से पहुँच कर सच्चे भक्त की प्रतीक्षा करने लगीं। सबसे पहले वहाँ एक बहुत बड़े संत अपने सैकड़ों शिष्यों के साथ पूजा करने पधारे किन्तु उस छद्म संत के पर-नारी के लिए वासना,धन की लालसा, प्रसिद्धि की आकांक्षा आदि विचारों को देखकर तीनों घृणा से भर उठी। उसके बाद एक धनी व्यक्ति अपने सेवकों सहित, प्रसाद, मिष्टान्न, फल आदि लेकर मंदिर में प्रविष्ट हुआ जिसे देखकर सब में उम्मीद जागी किन्तु उसके मन में भरी प्रसिद्धि की लालसा और अधिक धनवान होने की आकांक्षा को देखकर सभी निराश हो गयीं। ऐसे ही कई छद्म सज्जन वहाँ आये किन्तु उनमे से कोई भी ऐसा नहीं था जिसकी भावना निःस्वार्थ हो। सभी किसी ना किसी स्वार्थ से ग्रस्त थे। उन्हें लगा जैसे कलियुग उनके सामने ही खड़ा अट्टहास कर रहा है और वे सभी विवश हैं।
तभी एक नवविवाहिता अपनी सास के साथ मंदिर आयी और मंदिर के बाहर भूखे से रोते बच्चों को देख प्रसाद के लड्डू निकाल कर उन्हें खाने को देने लगी। ये देख कर उसकी सास ने कहा - "अरे बहू! ये क्या करती हो? अभी तक भगवान को भोग लगा नहीं और तुमने जूठा कर दिया। खिलाना ही था तो पूजा के बाद खिला देती। अगर प्रभु रुष्ट हो गए तो पुण्य कहाँ से होगा?"
उस स्त्री ने मृदु स्वर में कहा - "माँ, प्रभु तो केवल हमारी श्रद्धा का भूखे हैं। अन्यथा जो पूरे विश्व की क्षुधा शांत करते हों उन्हें कौन संतुष्ट कर सकता है? मंदिर के अंदर बैठी पाषाण प्रतिमा तो केवल ईश्वर की प्रतीक मात्र हैं जबकि ईश्वर तो प्रत्येक कण में व्याप्त है। उन्हें छप्पन भोग लगाने वाले तो मंदिरों के सामने कतारों में खड़े हैं पर इन भूखे बालकों को देखिये जिनमे सचमुच ईश्वर का वास है। इनका पेट भरने का अर्थ है साक्षात् ईश्वर को भोग लगाना। अगर हम प्राणिमात्र के काम ना आ सके तो ईश्वर हमसे कैसे प्रसन्न हो सकते हैं?" ये कहते हुए उसने पूरा प्रसाद वहाँ बैठे भूखे बच्चों एवं भिक्षुकों में बाँट दिया।
तीनों देवियाँ भाव-विभोर से ये दृश्य देखती रहीं और देखते ही देखते उनके सम्मुख त्रिदेव वहाँ प्रकट हुए जिन्हे देख कर उनकी प्रसन्नता का पार ना लगा। उन्हें ये पूछने की आवश्यकता नहीं थी कि तीनों अपनी निद्रा से कैसे जागे क्यूंकि उसका कारण उनके सामने था। किन्तु आज उन्हें पुण्य का वास्तविक अर्थ ज्ञात हुआ। वो परमार्थ ही तो है जो एक नहीं सैकड़ों कलियुगों के गहन अंधकार को चीर कर सामने प्रकट होता है। वही सत्य है और वही मोक्ष है। तीनों देवियों के मुख से अकस्मात् निकला - "कलियुग के इस घोर काल में स्वर्ग का मार्ग अगर कोई प्रशस्त करता है तो वो परमार्थ ही है।"
ये लेख धर्मसंसार द्वारा आयोजित धार्मिक कहानी प्रतियोगिता की विजेता के रूप में चुनी गयी है। इसकी लेखिका श्रीमति अर्चना राय भेड़ाघाट जबलपुर (मध्यप्रदेश) की निवासी हैं और इन्होंने जीवविज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है। इनके पति श्री दिलीप राय अपने क्षेत्र के पंचायत अध्यक्ष रह चुके हैं। ये लेखन में अत्यंत सक्रिय हैं एवं कई पत्रिकाओं एवं अखबारों में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्हें साहित्य संगम संस्थान से वीणापाणि एवं दैनिक श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान तथा नारी मंच द्वारा संगम सुवास सम्मान प्राप्त हो चुका है। हमारी प्रतियोगिता की पहली विजेता बनने पर उन्हें हार्दिक बधाई।
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