आज नवरात्रि का पर्व समाप्त हो रहा है। आज विजयादशमी के दिन ही देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। आज के दिन ही श्रीराम ने भी रावण का वध किया था। वैसे तो देवी दुर्गा को आदिशक्ति माँ पार्वती का ही एक रूप माना जाता है किन्तु उनका ये रूप इसीलिए विशेष है क्यूँकि देवी दुर्गा की उत्पत्ति मूलतः त्रिदेवों से हुई। इन्हे विजय की देवी माना जाता है जिनकी कृपा से देवताओं ने अत्याचारी असुर से मुक्ति पायी और अपना राज्य पुनः प्राप्त किया।
शाक्त संप्रदाय में देवी दुर्गा को सर्वशक्तिशाली परमेश्वरी का स्थान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त वैष्णव एवं शैव संप्रदाय में भी इनका बड़ा प्रभाव है। नवरात्रि में विशेषकर देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त देवी के कई अन्य रूपों को भी इनसे जोड़ कर देखा जाता है। आदिशक्ति देवी के कई रूप है किन्तु आज हम यहाँ केवल देवी दुर्गा की उत्पत्ति के बारे में बात करेंगे जिनकी उत्पत्ति का मूल उद्येश दैत्य महिषासुर का संहार था जिसके बाद वे "महिषासुरमर्दिनी" कहलायी और आज भी दुर्गा पूजा में हम उनके इसी स्वरुप की पूजा करते हैं।
बहुत काल पहले रम्भासुर नामक एक दैत्य था जिसने वन में विचरण करते हुए एक भैंसे (महिष) से समागम कर लिया जिससे एक महापराक्रमी दैत्य की उत्पत्ति हुई जिसका नाम "महिषासुर" पड़ा। यही रम्भासुर अगले जन्म में रक्तबीज के रूप में जन्मा। महिषासुर परमपिता ब्रह्मा का अनन्य भक्त था। उसने दीर्घ काल तक निराहार रह कर ब्रम्हदेव की तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने उसे दर्शन दिए। महिषासुर ये जनता था कि ब्रम्हदेव उसे अमरत्व का वरदान नहीं देंगे इसी कारण उसने उनसे अतुलनीय बल के साथ ये वरदान माँगा कि उसकी मृत्य किसी स्त्री के हाथों ही हो और इसके अतिरिक्त और कोई उसे पराजित ना कर सके।
वरदान पाने के बाद वो निरंकुश हो गया और सीधे स्वर्ग पर आक्रमण किया। उस समय तक सारे दैत्य-दानव देवों के डर से पाताल में छिपे थे। महिषासुर ने अपनी शक्ति से पाताललोक का मुख स्वर्ग के द्धार पर खोल दिया जिससे सभी दैत्यों ने महिषासुर के नेतृत्व में स्वर्ग पर आक्रमण किया और देवों को वहाँ से भागना पड़ा। कुछ काल के बाद देवों ने पुनः संगठित होकर महिषासुर पर आक्रमण किया किन्तु उसे प्राप्त वरदान के कारण उसे पराजित ना कर पाए।
अंत में सभी देवता त्रिदेवों के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना की। तब उनकी प्रार्थना सुकर महादेव बड़े क्रोधित हुए और स्वयं महिषासुर के वध को उद्धत हुए। तब भगवान विष्णु ने उनसे कहा कि अगर वे महिषासुर का वध कर देंगे तो ब्रम्हदेव का वरदान निष्फल हो जाएगा क्यूंकि उस वरदान के अनुसार महिषासुर का वध केवल एक स्त्री के हाथों ही हो सकता है। तब ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के सम्मलित तेज से एक देवी का जन्म हुआ जिसे ब्रह्मदेव ने दुर्गा का नाम दिया। उनके अतिरिक्त अन्य देवताओं के तेज से उनके समस्त अंगों का निर्माण हुआ। शिव के तेज से मुख, विष्णु से भुजाएं, ब्रह्मा से चरण, यमराज से केश, चन्द्रमा से स्तन, पृथ्वी देवी से नितम्ब, इंद्र से उदर, वायु से कर्ण, संध्या से भांव, कुबेर से नासिका, अग्नि से त्रिनेत्र एवं अन्य देवताओं के तेज से उनके पूरे शरीर का निर्माण हुआ।
इसके पश्चात सभी देवताओं ने अपने-अपने आयुध उन्हें प्रदान किये। महादेव ने त्रिशूल, नारायण ने चक्र, ब्रह्मा ने कमंडल, वरुण ने शंख, वायु ने धनुष-बाण, अग्नि ने शक्ति, इंद्र ने वज्र, कुबेर ने मधु, विश्वकर्मा ने परशु, चंद्र ने कमल और अन्य देवताओं ने भी अपने शस्त्र देवी को प्रदान किये। हिमालय ने देवी के वाहन के रूप में सिंह उन्हें प्रदान किया। तब सभी देवताओं के तेज से निर्मित एवं उनकी शक्ति से संपन्न देवी ने त्रिदेवों से उनकी उत्पत्ति का कारण पूछा। तब महादेव ने उन्हें महिषासुर के अत्याचार से देवताओं को मुक्त करवाने का आदेश दिया।
तब देवी ने एक भयानक सिंहनाद किया और महिषासुर को स्वर्ग में जाकर ललकारा। महिषासुर के सेना उन्हें मारने पहुँची तो देवी ने अपनी एक ही हुंकार से उन सबका अंत कर दिया। फिर महिषासुर उनसे युद्ध करने आया और उन दोनों में नौ दिनों तक घोर युद्ध हुआ। महिषासुर ने अपने समस्त अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग देवी पर किया किन्तु भगवती ने सभी देवताओं से प्राप्त दिव्यास्त्रों से उन सभी को नष्ट कर दिया। तब महिषासुर ने एक विशाल भैंसे का रूप लेकर देवी पर आक्रमण किया किन्तु माता के सिंह ने उस महिष रुपी दैत्य को अपने नाखूनों से विदीर्ण कर दिया।
महिषासुर बुरी तरह घायल हुआ और आश्चर्यचकित भी कि उसके जिन दिव्यास्त्रों को देवता भी ना काट सके उसे एक स्त्री ने काट दिया। तब उसे परमपिता ब्रम्हा का वरदान याद आया जिसमे उसकी मृत्यु एक स्त्री के हाथों ही लिखी थी। वो समझ गया कि उसका अंत निकट है और अंततः विजयादशमी के दिन माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध कर समस्त देवों का कल्याण किया।
महिषासुर की मृत्यु के पश्चात दो महापराक्रमी दैत्यों शुम्भ-निशुंभ, जो महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री दनु के पुत्र और नमुचि दानव के भाई थे, उन्होंने देवों पर अत्याचार आरम्भ कर दिया। इंद्र ने उनके भाई नमुचि का वध कर दिया जिसके बाद उन्होंने इंद्र को सिंहासनच्युत कर स्वर्ग पर अधिकार जमा लिया। इससे त्रस्त होकर सभी देवता माँ दुर्गा के पास सहायता के लिए पहुँचे। तब उनपर हुए अत्याचार को देख कर देवी उन दोनों के वध को उद्धत हुई। उन्होंने शुम्भ-निशुंभ को युद्ध के लिए ललकारा।
जब दोनों भाइयों ने एक स्त्री की ललकार सुनी तो उसका परिहास करते हुए उन्होंने अपने १०००० योद्धाओं को उन्हें बंदी बना कर लाने के लिए भेजा। जब वे सभी देवी के पास पहुँचे तो उनके वाहन सिंह ने अपने तेज दांत और नाखूनों से पूरी सेना का संहार कर दिया। जब शुम्भ-निशुंभ ने ये समाचार सुना तो बड़ा हैरान हुआ। उसने अपने सेनापतिओं चण्ड-मुण्ड को देवी दुर्गा के वध की आज्ञा दे कर भेजा।
जब दोनों भाई देवी के पास पहुँचे तो वे उनका अप्रतिम सौंदर्य देख कर अपना सुध-बुध खो बैठे। उन्होंने देवी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। तब देवी ने हँसते हुए कहा - "मूर्खों! तुम लोग युद्ध की जगह प्रेम की भाषा कैसे बोलने लगे? लगता है तुम्हे अपने प्राणों से प्रेम नहीं है। यदि ऐसा नहीं है तो मुझसे युद्ध करो।"
तब दोनों ने देवी का रौद्र रूप देख कर उनपर आक्रमण नहीं किया और वापस लौटकर शुम्भ-निशुंभ के पास आये और देवी के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहा - "हे महाराज! वो देवी है अथवा अप्सरा। उसका सौंदर्य ऐसा है कि उसके मुख पर दृष्टि ही नहीं टिकती। हमने ये सोच कर कि ऐसी अद्भुत स्त्री तो केवल आपकी भार्या बनने के योग्य है, उसे आप दोनों से विवाह का प्रस्ताव दिया किन्तु उन्होंने हमारे प्रस्ताव की अवहेलना की और आपसे विवाह करने से मना कर दिया।" चण्ड-मुण्ड से देवी का ऐसा सौंदर्य वर्णन सुनकर शुम्भ-निशुंभ उनसे विवाह करने को लालायित हो उठे। उसने अपने एक दूत धूम्रलोचन को आज्ञा दी कि उस देवी को उनके सामने सम्मुख करे। यदि देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व कोई भी उन्हें रोके तो उन्हें मृत्युदंड दे।
इस प्रकार धूम्रलोचन ६०००० महाशक्तिशाली योद्धाओं की सेना लेकर देवी के पास पहुँचा और उससे कहा - "सुंदरी! तुम्हारा सौंदर्य वास्तव में अद्वितीय है। तुम तो वास्तव में मेरे स्वामी शुम्भ एवं निशुंभ की महारानी बनने योग्य हो। अतः क्यों युद्ध करके अपने प्राणों को संकट में डालती हो? मेरी बात मान लो और मेरे स्वामी को अपना पति स्वीकार कर लो अन्यथा मुझे तुम्हे बलात अपने साथ ले जाना होगा।" धूम्रलोचन को उस प्रकार अनर्गल प्रलाप करते देख देवी ने उसे युद्ध के लिए ललकारा और बात ही बात में उसका और उसके ६०००० योद्धाओं का नाश कर दिया।
जब शुम्भ-निशुंभ ने धूम्रलोचन के वध का समाचार सुना तो उसने अपने सेनापति चण्ड-मुण्ड को देवी को पकड़ कर लाने को कहा। दोनों भाई विशाल सेना लेकर देवी से युद्ध करने पहुँचे किन्तु माँ दुर्गा ने बात ही बात में दोनों का सेना सहित नाश कर दिया। दोनों से युद्ध करते समय मारे क्रोध के देवी का शरीर काला पड़ गया और वो पूर्णतः रक्त से नहा गयी। इसी कारण वे "रक्तकाली" कहलायी। दोनों के वध के पश्चात उन्हें "चामुण्डा" के नाम से जाना गया।
इसके पश्चात शुम्भ-निशुंभ ने अपने सहयोगी रक्तबीज को भेजा जो पूर्वजन्म में रक्तबीज महिषासुर का पिता रम्भासुर था। उसे ये वरदान प्राप्त था कि जहाँ भी उसके रक्त की बूँदें गिरती थी वहाँ एक नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाता था। रक्तबीज माँ काली के हाथों मारा गया। (इसके बारे में एक विस्तृत लेख अलग से प्रकाशित होगा)। अब कोई और चारा ना देख कर शुम्भ-निशुंभ स्वयं युद्ध के लिए आये। शुम्भ ने अपने छोटे भाई निशुंभ को देवी से लड़ने भेजा। निशुंभ एक बड़ी सेना लेकर युद्ध के लिए गया और वहाँ पुनः उनसे विवाह का अनुरोध किया किन्तु देवी ने क्रोध में उसे युद्ध के लिए ललकारा।
निशुंभ ने देवी पर अपने सारे अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया किन्तु देवी के सामने वे तुच्छ साबित हुए। तब देवी के शक्ति प्रहार से निशुंभ मृत्यु को प्राप्त हुआ। अपने छोटे भाई की मृत्यु का समाचार मिलने पर शुम्भ क्रोध में तिलमाता हुआ माँ दुर्गा से युद्ध करने को आया किन्तु उनकी शक्ति के आगे शुम्भ की शक्ति नगण्य साबित हुई। तब देवी ने अपने त्रिशूल से शुम्भ का ह्रदय विदीर्ण कर दिया। इस प्रकार समस्त दानवों का नाश हुआ और देव निष्कंटक हुए। पुनः स्वर्ग को प्राप्त कर देवों ने माँ दुर्गा की जय-जयकार की।
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