जब कंस ने ये सुना कि उसकी बहन देवकी की आठवीं संतान ही उसका वध करेगी तब उसने उसे मारने का निश्चय किया। बाद में इस शर्त पर कि देवकी और वसुदेव अपनी सभी संतानों को जन्म लेते ही उसके हवाले कर देगी, उसने दोनों के प्राण नहीं लिए किन्तु दोनों को कारागार में डाल दिया। एक-एक कर कंस ने दोनों के सात संतानों का वध कर दिया।
अब आठवीं संतान के रूप में श्रीहरि विष्णु देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाले थे। अपने अन्य पुत्रों के वध से दुखी देवकी और वसुदेव अत्यंत दीन अवस्था में भगवान विष्णु के तप में बैठे। उनके मन में केवल यही प्रश्न था कि आखिर किस पाप का दण्ड उन्हें मिल रहा है? साथ ही ये भी कि क्या उनका आठवाँ पुत्र भी उस दुष्ट कंस के हाथों मारा जाएगा?
इस प्रकार भगवान विष्णु के तप में बैठे-बैठे उन्हें कई मास बीत गए और देवकी के प्रसव का समय आ गया। जिस रात परमावतार श्रीकृष्ण का जन्म होने वाला था, उनकी पीड़ा और तप देख कर स्वयं भगवान नारायण उनके समक्ष प्रकट हुए। त्रिलोकीनाथ को अपने समक्ष देख दोनों उनके चरणों में गिर पड़े। दोनों के अश्रुओं से भगवान के चरण भींगने लगे। देवकी ने उनके चरणों पर सर रखते हुए कहा - "हे नाथ! आप तो सर्वज्ञ हैं। इस कंस के अत्याचार से संसार को मुक्त क्यों नहीं करवाते? उस पापी को मारने के लिए तो आपकी इच्छा मात्र ही पर्याप्त है। फिर किस कारण आप अपने भक्तों की इतनी कठिन परीक्षा ले रहे हैं? ऐसा कौन सा अपराध हमसे हुआ है जिस कारण हमें आप इतना कठिन दण्ड दे रहे हैं?"
भगवान ने मुस्कुराते हुए दोनों को उठाया और कहा - "वत्स! इतने ज्ञानी होते हुए भी तुम अज्ञानियों की तरह क्यों बात कर रहे हो? क्या तुम्हे नहीं पता कि भगवान ब्रह्मा के विधान के अनुसार ही सभी प्राणी अपने जीवन में सुख अथवा दुःख भोगते हैं। हाँ ये सत्य है कि हमारे केवल संकल्प मात्र से इस पृथ्वी से पापिओं का नाश हो सकता है किन्तु अगर त्रिदेव स्वयं अपने ही बनाये विधान का उलंघन करेंगे तो मनुष्य किसका अनुगमन करेगा? अपने अन्य पुत्रों की मृत्यु का संताप ना करो। वे तो जन्म लेते ही इस जन्म और मरण के चक्र से छूट कर मेरे पास पहुँच चुके हैं। और फिर दुःख किस बात का जब मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म ले रहा हूँ।"
ये सुनते ही दोनों की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। उन्हें इस बात का विश्वास नहीं हुआ कि उन्हें भगवान विष्णु के माता पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। उन्होंने अवरुद्ध कंठ से पूछ - "क्या ये सत्य है प्रभु?"
तब भगवान ने कहा - "मेरा वचन कभी असत्य नहीं होता। अगर तुम्हारी जानने की इच्छा हो तो सुनो, आज मैं तीसरी बार तुम्हारे गर्भ से जन्म लूँगा।
- स्वयंभू मन्वन्तर में तुम्हारा नाम "पृश्नि" था और वसुदेव "सुतपा" नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों ने १२००० वर्षों तक कठिन तप करके मुझे प्रसन्न किया। जब मैंने तुमसे वर माँगने को कहा तो तुमने मेरे समान पुत्र की कामना की। उस समय मैं "पृश्निगर्भ" के नाम से तुम दोनों का पुत्र हुआ।
- दूसरे जन्म में तुम "अदिति" और वसुदेव "कश्यप" हुए। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ और मेरा नाम था "उपेन्द्र"। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे "वामन" भी कहते थे।
- तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप में "कृष्ण" के नाम से पुनः तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा। मेरा ये रूप पिछले सभी रूपों से श्रेष्ठ होगा और केवल तुम्हारा ही नहीं अपितु संसार के सभी मनुष्यों के कष्ट को करने वाला होगा।" ये कहकर भगवान नारायण दोनों को आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो गए।
इस प्रकार श्रीहरि के समझने पर देवकी और वासुदेव का दुःख समाप्त हो गए और उन्हें विश्वास हुआ कि कंस का अत्याचार अब केवल कुछ समय के लिए ही बचा है। उसी रात नारायण के कथन अनुसार देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। जय श्रीकृष्ण।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।