काकभुशुण्डि का वर्णन वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास के रामचरितमानस में आता है। सबसे पहला वर्णन इनका तब आता है जब देवी पार्वती ने महादेव से श्रीराम की कथा सुनाने का अनुरोध किया था। माता के अनुरोध पर भगवान शिव उन्हें एकांत में ले गए और रामकथा विस्तार से सुनाने लगे। दैववश देवताओं के लिए भी दुर्लभ उस कथा को वहाँ बैठे एक कौवे ने सुन लिया। भगवान शिव द्वारा कथा सुनाये जाने पर उसे श्रीराम के सभी रहस्यों सहित पूर्ण कथा का ज्ञान हो गया। वही कौवा आगे चल कर काकभुशुण्डि के रूप में जन्मा।
काकभुशुण्डि राम भक्त थे और श्रीराम की भक्ति के अतिरिक्त उनका कोई अन्य कार्य ना था। वे नित्य वृक्ष के नीचे रामकथा का वाचन करते थे जिसे सुनने के लिए ऋषि-मुनि दूर-दूर से आते थे। उनकी कथा में वो आकर्षण था कि एक बार स्वयं महादेव काकभुशुण्डि के मुख से रामकथा सुनने के लिए हंस के रूप में उस वृक्ष के निकट रुक गए।
श्री काकभुशुण्डि के मुख से राम कथा सुनकर महादेव अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया ताकि वे युगों-युगों तक उसी प्रकार रामकथा का वाचन करते रहें। कुछ दिनों तक उनसे वो रामकथा जो उन्होंने स्वयं देवी पार्वती को सुनाया था, सुनकर वे तृप्त मन से वापस कैलाश को लौट गए। जो महान कथा स्वयं महादेव के मुख से निकली हो, उसे स्वयं महादेव को सुनाने का सौभाग्य केवल काकभुशुण्डि को प्राप्त है।
इनके जन्म के विषय में एक कथा है कि श्रीराम के जन्म से एक कल्प पहले इनका जन्म अयोध्या में ही एक शूद्र जाति में हुआ। ये महादेव के अनन्य भक्त थे और उसी भक्ति के अभिमान में वे अन्य देवताओं की निंदा करते थे। एक बार ये उज्जैन गए और एक ब्राह्मण की सेवा कर अपना जीवन बिताने लगे। वो ब्राह्मण भी महादेव के अनन्य भक्त थे किन्तु भूलकर भी वे नारायण की निंदा नहीं करते थे।
उन्ही के समक्ष एक बार काकभुशुण्डि ने भगवान शिव की तुलना नारायण से करते हुए भगवान विष्णु की निंदा की। श्रीहरि की निंदा सुनकर महारुद्र अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने आकाशवाणी द्वारा काकभुशुण्डि को धिक्कारते हुए कहा - "रे अधम! तू स्वयं को मेरा भक्त कहता है पर तुझे ये भी ज्ञात नहीं कि हरि और हर में कोई भेद नहीं। तूने नारायण की निंदा कर मेरी भक्ति को कलंकित किया है इसीलिए जा तू १००० अधम योनिओं में जन्म लेकर भटकता रह।"
महादेव का रौद्र रूप देख कर काकभुशुण्डि कांपते हुए उनसे दया की याचना करने लगे। तब ब्राह्मण ने भी द्रवित होकर महादेव से उसे क्षमा करने की प्रार्थना की। इसपर महादेव ने कहा कि "मेरा श्राप तो निष्फल नहीं हो सकता। इस निश्चय ही १००० लेने पड़ेंगे लेकिन मैं इसे आशीर्वाद देता हूँ कि मृत्यु का जो कष्ट होता है वह इसे नहीं होगा। साथ ही इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण रहेगा और इसका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होगा। अपने अंतिम जन्म में इसे श्रीराम की अनन्य भक्ति प्राप्त होगी।"
महादेव के वचन अनुसार काकभुशुण्डि का सबसे पहला जन्म सर्पयोनि में हुआ। उसके बाद वे जिस भी योनि में जन्मते उन्हें बिना कष्ट मुक्ति मिल जाती थी। साथ ही महादेव के आशीर्वाद के कारण उन्हें अपने पिछले सभी जन्मों का पूरा स्मरण रहता था। इसी प्रकार वो एक के बाद एक जन्म लेते रहे और १००० वें जन्म में एक ब्राह्मण के रूप में जन्मे।
उस जन्म में वो आत्मज्ञान लेने महर्षि लोमश के पास पहुंचे। जब लोमश ऋषि उन्हें ज्ञान की बात बताने लगे तो वे बात-बात पर उन्हें टोकने लगे। इससे रुष्ट होकर लोमश ऋषि ने कहा - "रे मुर्ख! तू क्या कौवे की भांति बात-बात पर काँव-काँव करता है? तू तो मनुष्य होने के योग्य ही नहीं है इसीलिए जा तू कौवे का ही जीवन व्यतीत कर।"
उनके इस श्राप से काकभुशुण्डि तत्काल कौआ बन गए। ऐसा देख कर अपने क्रोध पर पश्चाताप करते हुए लोमश ऋषि अत्यंत दुखी हो गए। तब काग रूपी काकभुशुण्डि ने कहा - "हे मुनिवर! आप कृपया दुखी ना हों। आप जैसे महात्मा का श्राप भी मेरे लिए वरदान है। मुझे विश्वास है कि इस कागरूप में भी मेरा भला ही होगा।" ये कहकर काकभुशुण्डि ने लोमश ऋषि को रामकथा सुनाई।
उनका ये संयम देख और श्रेठ रामकथा सुनकर लोमश ऋषि बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया और साथ ही उन्हें राममंत्र भी दिया। राममंत्र मिलने से उन्हें अपने कागरूप से प्रेम हो गया और वो उसी रूप में नित्य रामकथा का वाचन करने लगे। उनके द्वारा कहे रामायण को "काकभुशुण्डि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है। काकभुशुण्डि की आयु के विषय में लिखा गया है कि ये पिछले कल्प के कलियुग में पैदा हुए थे। काकभुशुण्डि ने ११ बार रामायण को और १६ बार महाभारत को होता हुआ देखा, जिसमें घटनाएं और परिणाम अलग-अलग थे।
रामायण में एक प्रसंग ऐसा आता है जब नारायण के वाहन गरुड़ को श्रीराम के विष्णु अवतार होने पर संदेह हो गया था। ये वर्णन तब आता है जब श्रीराम की सेना ने लंका पर आक्रमण किया और श्रीराम के नेतृत्व में वानरों और ऋक्षों की सेना ने रावण के कई महारथियों का वध कर दिया। यहाँ तक कि कुम्भकर्ण भी श्रीराम के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। तब रावण ने स्वयं युद्ध में जाने की ठानी पर उसके पुत्र मेघनाद ने अपने पिता को रोकते हुए कहा कि जब तक वो है तब तक उन्हें राजा होते हुए युद्ध में नहीं जाना चाहिए।
मेघनाद महान वीर था और उसकी गिनती एकमात्र अतिमहारथी में की जाती है। संसार में ऐसा कोई भी अस्त्र नहीं था जिसका उसे ज्ञान नहीं था और उसके भी ऊपर वो तीनों महास्त्रों - ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र का ज्ञाता था। अपनी पिता की आज्ञा लेकर वो युद्ध को गया और माययुद्ध कर उसने राम-लक्ष्मण को नागपाश में बाँध दिया। नागपाश के प्रभाव से दोनों भाई अचेत हो गए और समस्त सेना चिंतित हो गयी। तब जांबवंत ने बताया कि इस संसार में कोई और इस पाश से इनकी रक्षा नहीं कर सकता। अगर कोई इन्हे बचा सकता है तो वो केवल भगवान श्रीहरि के वाहन गरुड़ है। ये सुनकर महाबली हनुमान पवन वेग से उड़कर पक्षीराज गरुड़ के पास पहुँचे और उन्हें स्थिति से अवगत करते हुए उनसे सहायता की प्रार्थना की।
जब गरुड़ ने ये सुना कि श्रीराम और लक्ष्मण अचेत हैं तो वे तुरंत हनुमान के साथ चल दिए। गरुड़ ने अब तक श्रीराम के बारे में सिर्फ सुना ही था और उनके आराध्य भगवान विष्णु ने उन्हें ये बताया था कि श्रीराम उन्ही के अंश हैं। तब से ही गरुड़ के मन में श्रीराम के दर्शनों की इच्छा थी। जब वे रणभूमि में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को एक साधारण मानव की तरह नागपाश में बँधा देखा। वे बड़े आश्चर्यचकित हुए कि जिन्हे भगवान विष्णु का अवतार कहा जाता है वो कैसे एक साधारण नागपाश में बँधे पड़े हैं? उन्होंने तत्काल नागपाश को काट कर दोनों भाइयों की प्राणरक्षा की।
जब दोनों सचेत हुए तब श्रीराम ने गरुड़ का आभार प्रकट करते हुए कहा - "हे महाबली पक्षीराज! आपने हम दोनों भाइयों के प्राणों की रक्षा की है इस कारण मैं आपको सादर नमन करता हूँ। मुझे अपने प्राणों का मोह नहीं किन्तु अपने मेरे अनुज के प्राण बचा कर मुझपर बड़ी कृपा की है।" विष्णु अवतार श्रीराम को इस प्रकार बोलता देख गरुड़ को पुनः आश्चर्य हुआ। वो अपनी शंका का समाधान श्रीराम से ही करना चाहता था किन्तु उन्होंने संकोच के मारे कुछ कहा नहीं और उन्हें प्रणाम कर वापस लौट गए। पर उनके मन में ये शंका उत्पन्न हो गयी कि क्या सचमुच श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं अथवा ये सब केवल एक किवदंती है।
वे अपनी शंका लेकर सबसे पहले देवर्षि नारद के पास पहुँचे किन्तु उन्होंने गरुड़ को परमपिता ब्रह्मा के पास जाने की सलाह दी। जब वे ब्रह्मदेव के पास अपनी शंका लेकर पहुँचे तो उन्होंने हँसकर उन्हें महादेव के पास भेज दिया। अब वे महादेव के पास पहुँचे और भगवान शिव ने उनसे उनकी शंका पूछी। तब उन्होंने कहा - "हे महादेव! आज जो मैंने देखा है उससे मेरे मन में शंका उत्पन्न हो गयी है कि श्रीराम क्या वास्तव में मेरे प्रभु नारायण के अवतार हैं?"
महादेव ने मुस्कराते हुए पूछा - "ऐसा क्या देख लिया तुमने?" तब गरुड़ ने कहा - "प्रभु! मैंने देखा कि श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण सहित एक साधारण से नागपाश में बंधे पड़े हैं। हे महादेव! लक्ष्मण तो स्वयं शेषनाग का अवतार कहे जाते हैं तो फिर वे किस प्रकार एक तुच्छ नागपाश में बंध सकते हैं? और तो और उनके स्वामी भगवान विष्णु के अवतार कहे जाने वाले श्रीराम भी उस नागपाश में बंध कर अचेत पड़े हुए थे। जिनके केवल संकल्प मात्र से इस सृष्टि का आरम्भ और अंत हो सकता है, उस भगवान विष्णु के अवतार कहे जाने वाले श्रीराम को मुझ जैसे तुच्छ प्राणी की सहायता की आवश्यकता क्यों पड़ गयी? इस कारण मैं संदेह में पड़ गया हूँ अतः कृपा कर मेरे संदेह को दूर करें।"
तब महादेव ने पूछा - "ब्रह्मदेव ने इस विषय में क्या कहा?" तब गरुड़ ने कहा - "प्रभु! परमपिता ने कुछ कहा नहीं अपितु हँसकर मुझे आपके पास भेज दिया।" तब महादेव ने कहा - "वत्स! उन्होंने कोई उत्तर इसलिए नहीं दिया क्यूँकि ये उत्तर देने योग्य प्रश्न ही नहीं है। राम पर संदेह करना स्वयं नारायण पर संदेह करना है। अतः तुम पृथ्वी पर जाकर मेरे भक्त काकभुशुण्डि से मिलो। वो निश्चय ही तुम्हारे संदेह का निवारण करेगा।" ये सुनकर गरुड़ पुनः पृथ्वी पर काकभुशुण्डि के समक्ष पहुँचे जो एक वृक्ष के नीचे रामकथा कह रहे थे। दूर-दूर से आये विद्वान और महर्षि तल्लीन होकर उनकी कथा सुन रहे थे। गरुड़ भी वही प्रतीक्षा करने लगे।
जब कथा समाप्त हुई तो काकभुशुण्डि ने गरुड़ को देखा और उनका स्वागत करते हुए कहा - "अहा! कितने सौभाग्य की बात है कि मेरे प्रभु नारायण के सेवक महाबली गरुड़ मेरी कुटिया में आये हैं। कहिये मैं किस प्रकार आपकी सहायता कर सकता हूँ।" तब गरुड़ ने उन्हें अपना संदेह बताया जिसे सुनकर काकभुशुण्डि ने कहा - "पक्षीराज! सावधान होकर सुनिए। मैं आपको श्रीराम का वो रहस्य बताता हूँ जिसे स्वयं महादेव ने देवी पार्वती को बताया था और मैंने उस ज्ञान को सुना था।
श्रीराम निःसंदेह श्रीहरि के ही अंशरूप हैं। लंकापति रावण, जिसके अत्याचारों के भार से पृथ्वी त्रस्त थी, उसी के वध के लिए नारायण ने भगवान विष्णु के सातवें अवतार के रूप में जन्म लिया। वास्तव ने रावण की मृत्यु नारायण के अवतार के द्वारा ही सम्भव थी इसी कारण श्रीराम का आगमन हुआ। ये सत्य है कि श्रीराम भी भगवान विष्णु की भांति केवल संकल्प मात्र से रावण का विनाश कर सकते हैं किन्तु वे मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जन्मे हैं। अतः स्वयं अपनी लीला के अनुसार वे पृथ्वी पर हर उस गुणों और दोषों से युक्त हैं जिससे एक आम मानव रहता है। यही कारण है कि श्रीराम भगवान विष्णु के अन्य अवतारों से अलग मनुष्यों के सर्वाधिक निकट हैं और उनके लिए एक आदर्श हैं।
अतः हे गरुड़! जो आपने उन्हें युद्ध में अचेत पड़ा हुआ देखा उसे उन्ही की लीला मानिये क्यूंकि बिना उनकी इच्छा के उन्हें त्रिलोक में कोई भी मूर्छित नहीं कर सकता। और जहाँ तक लक्ष्मण की बात है तो वो भी निश्चय ही नागराज शेष के अवतार है किन्तु वे भगवान विष्णु के भक्त है और मानव रूप में भी वे अपने प्रभु श्रीराम का ही अनुसरण कर रहे हैं।" इस प्रकार श्रीराम का रहस्य जानकर और काकभुशुण्डि द्वारा नाना प्रकार से समझाए जाने पर गरुड़ का भ्रम दूर हुआ। उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया और उन्होंने मन ही मन श्रीराम से क्षमा मांगी।
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