'मनुस्मृति नामक धर्मशास्त्र और संविधान के प्रणेता राजर्षि मनु 'स्वायम्भुव' न केवल भारत की, अपितु सम्पूर्ण मानवता की धरोहर हैं। आदिकालीन समाज में मानवता की स्थापना, संस्कृति-सभ्यता का निर्माण और इनके विकास में राजर्षि मनु का उल्लेखनीय योगदान रहा है। यही कारण है कि भारत के विशाल वाङ्मय के साथ-साथ विश्व के अनेक देशों के साहित्य में मनु और मनुवंश का कृतज्ञतापूर्ण स्मरण तथा उनसे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। यह उल्लेख इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि प्राचीन समाज में मनु और मनुवंश का स्थान महत्वपूर्ण और आदरणीय था।
जिस प्रकार विभिन्न कालखण्डों में उत्पन्न विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने तथा उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये उनका नाम स्थानों, नगरों आदि के साथ जोड़ दिया जाता है उसी प्रकार प्राचीन समाज ने मनु और मनुवंश का नाम सृष्टि के कालखण्डों के साथ जोड़कर चौदह मन्वन्तरों का नाम चौदह मनुओं के नाम पर रखा जिनमें प्रथम मन्वन्तर का नाम 'स्वायम्भुव मन्वन्तर' है। आदि मानव-समाज के मूल रूप से जुड़ाव का जैसा अनोखा उदाहरण मनु स्वायम्भुव का मिलता है वैसा उदाहरण समाज में विरल ही मिलता है।
जैसे वणिक् वर्ग के सभी व्यक्ति महाराजा अग्रसेन के वंशज, अनुयायी अथवा प्रजाजन होने के कारण 'अग्रवाल' कहते और लिखते हैं, ठीक उसी प्रकार आदि मनु स्वायम्भुव के वंशज, अनुयायी अथवा प्रजाजन होने के कारण संस्कृत में पाए जाने वाले 'आदमी' के वाचक प्रायः सभी शब्द मनु से व्युत्पन्न हैं, जैसे - मानव, मनुष्य, मनुज, मानुष आदि।
यही नहीं समस्त यूरोपीय भाषाओं में भी इस प्रकार के शब्द मनुमूलक शब्दों के ही अपभ्रंश हैं, जैसे- अंग्रेजी में Man (मैन), जर्मनी में Mann (मन्न), Manesh (मनेश), लैटिन व ग्रीक में Mynos (मायनोस), स्पेनिश में Manna (मन्ना), आदि। यह सम्बन्ध यह सिद्ध करता है कि मनु मानव समाज के आदि पुरुषों में से हैं और उनका समाज में अति महत्वपूर्ण योगदान और स्थान रहा है।
दुख का विषय यह है कि मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और मानवीय मूल्यों के आदि संस्थापक, आदि राजा और आदि संविधानप्रदाता राजर्षि एवं महर्षि मनु का क्रमबद्ध पर्याप्त इतिहास हमें उपलब्ध नहीं है, वह फुटकर रूप में उपलब्ध है। अत्यन्त प्राचीनता के कारण उनका इतिहास विस्मृति के अन्धकार में विलुप्त हो गया है। अब हमें उनके फुटकर ऐतिहासिक सन्दर्भों से इतिहास का अन्वेषण करना पड़ रहा है। जब तक हम उनका कालनिर्णय नहीं कर लेंगे तब तक मानव समाज और मानवता के लिये उनकी देन का सही सही मूल्यांकन नहीं कर पाएंगे। अतः पहले उनके कालनिर्णय पर अत्यन्त संक्षेप से विचार किया जाता है।
आज हमें यह भ्रान्तिपूर्ण निष्कर्ष पढ़ा-पढ़ा कर रटा दिया गया है कि मनुस्मृति और उसके रचयिता मनु ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग के समकालीन थे और उसका रचना काल १८५ ईस्वी पूर्व का है। इससे भी महाभ्रान्त निष्कर्ष यह दिया गया है कि मनुस्मृति जन्मना जातिवादी शास्त्र है और स्त्रियों तथा शूद्रों का विरोधी है। इन निष्कर्षों के निर्णय, प्रचार और प्रसार में कुछ उन पाश्चात्य लेखकों का षड्यन्त्र है जो 'फूट डालो और राज करो' के लक्ष्य के प्रति समर्पित थे।
उन्होंने इस प्रकार के विचार दिए तो थे शैक्षिक कूटनीति के अन्तर्गत किन्तु हम लोगों ने उनको "ब्रह्मावाक्यं प्रमाणम्" के समान सम्मान्य करके गद्गद होकर स्वीकार कर लिया। ये विचार सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय, इतिहास, परम्परा और उनकी मूलभावना के विरुद्ध हैं, अतः सर्वथा अस्वीकार्य ही नहीं अपितु निन्दनीय भी हैं। किसी भी देश या समाज के समृद्ध साहित्य, संस्कृति-सभ्यता के इतिहास में वर्णित तर्कसंगत तथ्यों को तोड़ मरोड़कर, विकृत करके, निहित स्वार्थ के कारण, गलत रूप में प्रस्तुत करने का षड्यन्त्र करना एक साहित्यिक अपराध है और अपराध कभी प्रशंसनीय तथा स्वीकार्य नहीं होता।
आइए, इस निष्कर्ष का सप्रमाण विवेचन करें कि मनुस्मृति मूलतः पुष्यमित्र (१८५ ई० पूर्व०) के समकालीन ग्रन्थ है या नहीं? पाश्चात्य लेखकों के मतानुसार भी यदि इस बात की परीक्षा करें तो ३००-४०० ईस्वी पूर्व के कवि भास रचित 'प्रतिमा नाटक' में मनुस्मृति का उल्लेख एक प्रसिद्ध पठनीय धर्मशास्त्र के रूप में आता है। रावण के मुख से उच्चरित वचन है -
'काश्यप गोत्रोऽस्मि सांगोपांग वेदमधीये मानवीयं धर्मशास्त्रम्,
माहेश्वरं योगशास्त्रम् --- च ।' (पृ० ७६)
५०० ई० पूर्व महात्मा बुद्ध के उपदेशों में जो कि 'धम्मपद' के नाम से संकलित हैं मनुस्मृति २.१२१ और २.१५६ दो श्लोक पालि भाषा में यथावत् रूपान्तरित हैं। वंशावली के अनुसार, गौतम बुद्ध स्वायम्भुव मनु के वंश में उत्पन्न सातवें मनु श्रद्धादेव वैवस्वत के उपरान्त १४६ प्रमुख और प्रसिद्ध राजाओं के पश्चात् हुए। उससे पूर्व 'महाभारत' में दर्जनों स्थानों पर स्वायम्भुव मनु तथा उनसे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख है और मनुस्मृति के दो सौ से अधिक श्लोक यत्र तत्र उध्दृत मिलते हैं। उससे पूर्व के ग्रन्थ यास्क रचित 'निरुक्त' नामक ग्रन्थ में मनु स्वायम्भव का 'पुत्र पुत्री समानता' का मत उध्दृत किया हुआ है जो मनु० के ९,१३०,१९२ श्लोकों में उपलब्ध है।
इसका रचना काल ८०० से ५०० ई० पू० माना जाता है। इस श्लोक की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें मनु का काल 'विसर्गादौ' अर्थात् 'सृष्टि के आदि में' वर्णित किया है। बाल्मीकीय रामायण में राम बाली के संवाद में मनु के नाम से उध्दृत दो श्लोक और 'पुत्र की निरुक्ति-वर्णक' श्लोक वर्तमान मनुस्मृति के हैं। उससे भी प्राचीन ग्रन्थ शतपथ और ऐतरेय ब्राह्मण में राजा शर्यात मानव का वर्णन है जो सातवें मनु वैवस्वत के पुत्र ईश्वाकु का वंशज है। स्वायम्भुव मनु इससे सात मनु पूर्व के हैं। इन ग्रन्थों का न्यूनतम रचनाकाल ३००० ई० पूर्व माना गया है। इनसे भी पूर्व के संहिता ग्रन्थों में मनु के विधानों की, उपदेशों की प्रशंसा मिलती है। तैत्तिरीय संहिता में कहा है -
'मनुर्वै यत्किन्चावदत् तद् भेषजं भेषजतायै।' (तै० सं० २.२.१०.२; ३.१.९.४)
अर्थात्: 'मनु ने जो कुछ विधान किया है या उपदेश दिया है, वह औषध के समान कल्याणकारी है।'
मनुस्मृति की वर्णनशैली से हमें जानकारी मिलती है कि मनु अपने विधानों और आदेशों-निर्देशों का ग्रहण सीधे वेदों से करते हैं और वेद को ही परम प्रमाण मानते हैं। वेदों के अतिरिक्त मनुस्मृति में किसी मान्य शास्त्र या ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता। इसका अभिप्राय यह है कि मनुस्मृति के रचनाकाल तक उपर्युक्त साहित्य का निर्माण नहीं हुआ था। उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि मनुस्मृति समस्त प्राचीन वाङ्मय से भी प्राचीनतर है। आंकड़ों के अनुसार वह समय क्या हो यह एक पृथक् प्रश्न है।
कुछ लोग मनुस्मृति की भाषा के आधार पर यह तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि इसकी भाषा प्राचीनतर नहीं है। उनके यह जानकारी देना चाहता हूं कि मनुस्मृति की भाषा में वैदिक प्रयोग और पूर्व पाणिनीय प्रयोग आज भी मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लोकसामान्य से सम्बद्ध इस शास्त्र की वैदिक भाषा में समयानुसार परिवर्तन करके उसे लौकिक भाषा-प्रधान बना दिया है, जैसे बाल्मीकीय रामायण को बनाया गया है। मनुस्मृति में शेष कुछ वैदिक प्रयोग द्रष्टव्य हैं -
क० 'आ हैव स नरवाग्रेभ्य:' (२.१६७)
ख० 'पुत्रका इति होवाच' (२.१५१)
ग० 'पितृणामात्मनश्च ह' (९.२८)
वंशावली की दृष्टि से देखें तो मनु स्वायम्भुव स्वयम्भू अर्थात् ब्रह्मा के पुत्र (कहीं-कहीं पौत्र) हैं। ब्रह्मा भारतीय-भारोपीय समाज का अदितम पुरुष हैं। उनसे पूर्व का न कोई इतिहास मिलत है, न वंशावली। इस आधार पर भी मनु आदिकालीन समाज के व्यक्ति सिद्ध होते हैं। यदि चीनी भाषा के साहित्य में प्राप्त उल्लेखों को प्रमाण मानें तो उसमें मनुस्मृति का रचनाकाल दस बारह हजार वर्ष पूर्व का घोषित किया गया है। यह भी वर्णित है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृत में रचित शास्त्र है और उसमें ६८० श्लोक हैं। इन सभी प्रमाणों से मनुस्मृति की प्राचीनता की पुष्टि होती है और यह स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी पूर्वी १८५ वर्ष के रचनाकाल की मान्यता निराधार, मिथ्या एवं कपोलकल्पित है।
मनु और मनुस्मृति का काल आदि समाज कालीन सिद्ध होने से उनके कार्यों का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। राजर्षि मनु द्वारा आदि कालीन समाज को व्यवस्थित करना, मानवीय मूल्यों की स्थापना करना, राज्यविहीन राष्ट्र में राजकता का निर्माण करना, मर्यादाओं का निर्धारण कर समाज में सुख-शान्ति का वातावरण बनाना, ये कार्य किसी आविष्कार से कम नहीं हैं। उनके ये कार्य मानवता की संस्थापना की दृष्टि से महान् कार्य हैं। वह मनु जिसने पहले पहल इन कार्यों को किया, वह मानवता के लिए सर्वोपरि महत्वपूर्ण हैं और वह शास्त्र जिसके माध्यम से यह महान् कार्य सम्पन्न हुआ है वह मानवता की अनुपम धरोहर है।
ज्ञात भारतीय इतिहास के, राजर्षि मनु आदितम राजा हैं और उनके द्वारा रचित मनुस्मृति नामक शास्त्र आदितम संविधान है जिसके अनुसार उन्होंने अपने शासन में मानव समाज को व्यवस्थित किया। बाल्मीकीय रामायण और पुराणों में मनु को आदिराजा कहा है और महाभारत के शान्ति पर्व में आदिराजा बनने की घटना का विवरण दिया गया है। वह इस प्रकार है- अराजकता से पीड़ित प्रजाएं पितामह ब्रह्मा के पास गईं और बोली- पितामह! किसी उपयुक्त व्यक्ति को राजा नियुक्त कीजिये, नहीं तो प्रजाएं नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगी। ब्रह्मा ने अपने पुत्र मनु को राजा बनने का आदेश दिया किन्तु मनु ने अनिच्छा प्रकट की। ब्रह्मा ने पुन: आदेश दिया तो मनु को स्वीकार करना पड़ा।
ब्राह्मण वंशीय मनु वर्ण परिवर्तन करके राजा बने और प्रजा का पुत्र के समान पालन करने लगे। विष्णुपुराण में भी इस घटना का संक्षिप्त उल्लेख है। राजर्षि मनु ने मनुस्मृति के अनुसार अपने शासन में व्यवस्थाओं और मर्यादाओं का निर्धारण किया। निरुक्तकार अाचार्य यास्क आदि ने मनुस्मृति को आदि संविधान कहा है। मनु के काल की भ्रान्ति होते हुए भी जो लेखक इस मत में एकमत हैं कि मनु आदि संविधान प्रणेता हैं, वे हैं - सर्वश्री पं० जवाहरलाल नेहरू, टी० देसाई, एन० आर० राघवचारी, अरविंद घोष, डॉ० राधाकृष्णन, डॉ० अम्बेडकर, ए० ए० मैक्डानल, पी० थामस, ए० बी० कीथ आदि।
अब हम यह कहते हैं कि मनु ने समाज को संविधान के द्वारा व्यवस्थित किया तो उसका अभिप्राय यह है कि उन्होंने व्यक्ति को सामाजिक बनाया, उसे समाज में रहना सिखाया, साथ मिलकर रहना और उन्नति करना सिखाया। मनु का संविधान विश्व के देशों को इतना प्रभावोत्पादक लगा कि मनु और संविधान पर्याय बन गए। अनेक देशों में वहां के संविधान निर्माता को मनु की उपाधि से गौरवान्वित किया गया और मनुस्मृति के अनुकरण पर संविधान के निर्माण में गौरव अनुभव करते रहे। श्री पी० वी० काणे के अनुसार दक्षिणी वियतनाम में खुदाई में प्राप्त अभिलेखों में मनु के श्लोक उध्दृत मिलते हैं। इन्द्रवर्मा प्रथम (1799 ई०) के अभिलेख में राजधानी का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहां निरुपद्रव वर्णाश्रम व्यवस्थिति थी। वर्मा का संविधान मनु पर आधारित था जिसका नाम 'धम्मथट्' अथवा 'मनुसार' था। बुद्धघोष ने सोलहवीं शाताब्दी में उसका पाली अनुवाद 'मनुसार' के नाम से किया था।
कम्बोडिया के लोग स्वयं को मनुवंशी मानते रहे हैं। राजा उदयवीर वर्मा के अभिलेख में वहां के संविधान का नाम 'मानव नीतिसार' दिया है। जय वर्मा प्रथम के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वहां 'मनुसंहिता' को आदर से पढ़ा जाता था। जय वर्मा पंचम (668 ईस्वी) के एक अभिलेख में घोषणा की है कि उसने वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना दृढ़ता से की। यशोवर्मा के "प्रसम कोमनप" नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख में मनुस्मृति का २.१३६ श्लोक उध्दृत है जिसमें सम्मान व्यवस्था के मानदण्ड वर्णित हैं।
फिलीपीन के निवासी यह मानते रहे हैं कि उनकी आचार संहिता मनु और लाओत्से की स्मृतियों पर आधारित है। इसी कारण वहां की प्राचीन विधानसभा के द्वार पर इन दोनों की मूर्तियां स्थापित की गई थीं।
इंडोनेशिया के बालिद्वीप में आज भी वर्णव्यवस्था का व्यवहार है। वहां उच्च जातियों को 'द्विज' और शूद्रों को 'एकजाति' कहा जाता है। यही मनुस्मृति के १०.४ श्लोक में वर्णित है। वहां अब तक शूद्रों के साथ छुआछूत का भाव नहीं है, जो मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्था में था।
ब्रिटेन और अमेरिका से प्रकाशित 'इन्साइक्लोपीडिया' 'द कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया', श्री केवल मोटवानी द्वारा लिखित 'मनु धर्मशास्त्र: ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी', डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार द्वारा रचित 'दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति' नामक पुस्तकों में मनुस्मृति के विश्वव्यापी प्रभाव का वर्णन है। उनके अनुसार एशिया, यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया द्वीपों के अधिकांश देशों में मनु के नाम और प्रभाव के प्रमाण मिलते हैं।
मनु वैवस्वत के समय घटी जलप्रलय की घटना का उल्लेख प्रायः सभी प्राचीन देशों के साहित्य में मिलता है। बाइबल और कुरान में मनु का नाम विकृत होकर 'नूह' हो गया है जबकि आदिम अर्थात् 'ब्रह्मा' आदम हो गया है। यह विश्वव्यापी उल्लेख विश्व के मानव समाज को किसी न किसी प्रकार मनु के स्मरण, उनकी संस्कृति और उनके योगदान से जोड़ता है। यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मनु के इस विश्वव्यापी स्मरण का आखिर कारण क्या है? उत्तर स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज के लिए मनु का योगदान अप्रतिम था। वह कृतज्ञता ही विश्व के लोगों के मस्तिष्क पर अभिलेख बनकर अंकित हो गई है।
विश्व मे मानवता की प्रतिष्ठापना और व्यक्ति को उससे संस्कारित करने के लिए जो विचार मनु के मन में प्रादुर्भूत हुआ, निश्चय ही वह अद्भुत था। बिना शिक्षा के आदमी 'मानव' नहीं बन सकता और मानव बने बिना मानवता की स्थापना नहीं हो सकती। इसलिए मनु ने 'सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा' का सिद्धान्त सर्वप्रथम प्रस्तुत किया। मनु शिक्षा को कितना महत्व देते थे इसका अनुमान हम उनके विधानों से लगा सकते हैं।
उन्होंने शिक्षाप्राप्ति के लिये गुरुकुल-प्रवेश के तीन तीन विकल्प दिए हैं। ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक के लिए ५,७ और १६; क्षत्रिय बनने के इच्छुक के लिए ६,१० और २२; वैश्य बनने के इच्छुक के लिए ८,११ और २४ वर्ष। अन्तिम विकल्प आयु में भी जो प्रवेश नहीं लेता वह 'व्रात्य' अर्थात् व्रत से पतित हो जाता है, जो निन्दनीय और बहिष्कार्य हो जाता है। यह कठोर विधान शिक्षा प्राप्ति की महत्ता और अनिवार्यता के लिए है। उनकी इस धारण की पुष्टि उन वचनों से भी होती है जहां मनु शारीरिक जन्म को गौण मानकर 'ब्रह्मजन्म' अर्थात् 'विद्याजन्म' को इस जन्म और परजन्म का कल्याण करने वाला घोषित करते हैं -
'ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्।' (२.१५६)
राजर्षि मनु सर्वजन शिक्षा प्राप्ति के कितने उदार पक्षधर थे, उसका एक अद्वितीय प्रमाण देखिए। स्वशासित ब्रह्मावर्त प्रदेश में, पृथ्वी के सभी मानवों को शिक्षाप्राप्ति के लिए आमन्त्रित करते हुए वे कहते हैं -
एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।। (२.२०)
अर्थात- पृथिवी पर बसने वाले समस्तजनों! मेरे इस देश में उत्पन्न विद्वान धार्मिक ब्राह्मणों के पास आओ और अपने कर्तव्य तथा आचरण की शिक्षा प्राप्त करो।'
कितना सहदयता पूर्ण महान् आह्वान है। न ब्राह्मण- शूद्र का भेदभाव है, न स्त्री पुरुष का भेदभाव है, न आर्य-अनार्य का भेदभाव है, न असुर-राक्षस का भेदभाव है, न स्वदेशी-विदेशी का भेदभाव है। सबके लिए शिक्षा के द्वार खुले हैं, सबके लिए खुला आमन्त्रण है! क्यों? क्योंकि सबको श्रेष्ठ मानव बनाना है, सबको कुशल नागरिक बनाना है, सबको सभ्य और सुसंस्कृत बनाना है, और यह कार्य केवल शिक्षा से ही हो सकता है। 'सर्वजन शिक्षा और अनिवार्य शिक्षा' के सिद्धान्त की देन मानवता के लिए बहुत बड़ी देन है।
मनुष्य शिक्षा प्राप्त करके साक्षर होकर मनुष्य भी बन सकता है और राक्षस भी। सभी जन मनुष्य ही बनें इस भावना को दृष्टि में रखकर महर्षि मनु ने धर्म की अवधारणा प्रस्तुत की।धर्म वह तत्व है जो आत्मा को नियन्त्रित करता है, आत्मा को उन्नत करता है। मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म कर्मकाण्ड, पूजा पाठ अथवा सम्प्रदाय नहीं है, वह संयत, शान्त, सुखी जीवन जीने की एक पद्धति है। उसका स्वरूप शाश्वतिक और सार्वकालिक है। अपने मूल अर्थ में वह धारण करने योग्य आचरण है। ऐसा धर्म ही मानवता का उन्नायक और रक्षक हो सकता है। मनु ने उस धर्म को दस लक्षणों में समाहित कर प्रस्तुत किया है -
धृति: क्षमा दमो ऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।। (६.९२)
अर्थात् 'विपत्ति में धैर्य रखना, सहनशक्ति होना, मन पर नियन्त्रण, किसी के पदार्थ, धन आदि को अन्याय से न लेना, शरीर और अन्तःकरण की पवित्रता, इन्द्रियों को वश में रखना, बौद्धिक उन्नति करना, विभिन्न विद्याओं की प्राप्ति करना, सत्याचरण, क्रोधरहित अर्थात् शान्तभाव से व्यवहार करना' ये धार्मिकता के लक्षण हैं।
मनु का यह धर्म मनुष्य की भावनाओं का उन्नयन कर उसे ऐसा जीवन जीना सिखाता है जिससे वह निजी स्तर पर, परिवार और समाज में शान्त-सुखी रहकर उन्नति प्रगति कर सकता है। इसी को मानवीय धर्म का नाम दिया जा सकता है जो वस्तुतः मानवता का रक्षक हो सकता है। विश्व में जिन्हें आज तक धर्म कहा गया है, उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जिसे मनु-प्रतिपादित धर्म के समकक्ष रखा जा सके। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की परिकल्पना को केवल मनु का धर्म ही साकार कर सकता है।
आदिकालीन समाज को व्यवस्थित और मर्यादित करने के लिए मनु ने जो पहली व्यवस्था इस विश्व को प्रदान की वह है- 'वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था'। वेदों से भाव ग्रहण कर मनु ने उसका स्वरूप निर्धारित किया और फिर उसे अपने शासन में क्रियान्वित किया। इस व्यवस्था में सबको रुचि अनुसार शिक्षा प्राप्त करने और यथेष्ट वर्ण को धारण कर इच्छित व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता प्रदान की है। यह स्वतन्त्रता जीवन पर्यन्त रहती है। इसके द्वारा राष्ट्र को व्यवसाय-कुशल नागरिक प्राप्त होते हैं जो राष्ट्र की उन्नति, प्रगति, सुरक्षा के आधार बनते हैं।
वर्णव्यस्था जहां समाज और राष्ट्र की उन्नति का माध्यम है वहां आश्रम व्यवस्था व्यक्ति की शारीरिक आत्मिक बौद्धिक उन्नति का माध्यम है। इस प्रकार यह एक सांगोपांग अथवा परिपूर्ण समाज व्यवस्था है। इसी के अन्तर्गत इस देश में बड़े बड़े ऋषि महर्षि, दार्शनिक, वैयाकरण, आयुर्वेदज्ञ, धनुर्धर, राजनीतिज्ञ, मर्यादा पुरुषोत्तम और भूगोलविद् आदि प्रसिद्ध हुए हैं। पौराणिक वर्णनों के अनुसार आदि काल में पृथ्वी के सात द्वीपों में यही समाज व्यवस्था प्रचलित थी। वे सात द्वीप थे- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर।
भारतीय इतिहास की इस महिमा से चुंधियाकर पाश्चात्य लेखकों ने इस सबको काल्पनिक कह डाला था, किन्तु आज इतिहासज्ञों ने जम्बू, शाक और कुश इन तीन द्वीपों की और संस्कृत से वहां की भाषा समानता की प्रमाणिक खोज कर ली है। शेष खोज भी भविष्य में होने की आशा है। आदिकाल में इन सब द्वीपों में मनु स्वायम्भुव के दीर्घा पुत्र प्रियव्रत के सात पुत्रों का शासन था। इस इतिहास के ज्ञान के साथ सम्पूर्ण विश्व में मनु का नाम पाए जाने का कारण समझ में आ जाता है। क्योंकि उनका जो योगदान और सम्बन्ध था वह वैश्विक स्तर पर था।
महर्षि मनु ने इस समाज व्यवस्था में उदारता और दयालुता का ऐसा प्रतिमान स्थापित करने का प्रयास किया है जो विश्व की किसी सभ्यता में 'न भूतो न भविष्यति' न हुआ है और न होगा। मनु ने गृहस्थ दम्पति को आदेश दिया है कि वे पहले अपने सेवक वर्ग को अर्थात् सेवादार शूद्र वर्ग को भोजन कराके फिर भोजन किया करें-
भुक्तवत्सु अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।
भुन्जीयातां तत: पश्चात् अवशिष्ट तु दम्पति।। (३.११६)
अर्थात 'पहले विद्वान् अतिथियों और अपने भृत्यों, जो शूद्र होते थे, उनको खिलाकर तत्पश्चात् शेष भोजन को स्वयं किया करें।' देखिए, शूद्रवर्ग के प्रति कितनी मानवीय भावना थी मनु की।
स्त्रियों के प्रति मनु का दृष्टिकोण क्या था? इसकी चर्चा किए बिना यह आलेख अर्धांग ही रहेगा। यह अतिश्योक्ति नहीं किन्तु यथार्थ है कि आज तक विश्व में महर्षि मनु जैसा नारी हितैषी उनको सम्मान प्रदाता और यथायोग्य प्रशंसक कोई समाज व्यवस्थापक नहीं हुआ है। वे स्त्रियों के सम्मान और समानता के समर्थक थे। उनका एक प्रसिद्ध श्लोक है -
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।। (३.५६)
कभी कभी एक ही शब्द का गलत अर्थ किसी सुन्दर विचार को महत्वहीन कर देता है, यह श्लोक उसका प्रमाण है। इसके 'देवता:' पद में अर्थ की महानता है, सही अर्थ से महान् अर्थ प्रकट होता है (जैसे, आज भी व्यवहार में महान् और श्रेष्ठ व्यक्ति को देवता कहा करते हैं)। इसके विपरीत अनर्थ से कल्पित अर्थ ज्ञात होता है।
महर्षि दयानन्द ने सही अर्थ की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कर बताया है कि यह वैदिक भाषा का शब्द है और इसका सही अर्थ है- 'दिव्य गुण कर्म स्वभाव युक्त सन्तान'। इस श्लोक का अर्थ होगा- 'जिस परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है वहां दिव्य गुण कर्म स्वभाव युक्त सन्तानें होती हैं और जहां अनादर अर्थात् अपमान और कलह होता है उनका गृहस्थ असफल होता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सम्मानपूर्ण वातावरण में श्रेष्ठ और सफल सन्तानें होती हैं और कलहपूर्ण वातावरण में बिगड़ जाती हैं।
यहां मनु ने स्त्रियों के सम्मान को गृहस्थ की सफलता का आधार माना है। अन्यत्र घोषित किया है कि 'स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषो ऽस्ति कश्चन' (९.२६) अर्थात स्त्रिजन में और लक्ष्मी में कोई भेद नहीं है। आज भी प्रचलित यह महान् उक्ति कि 'स्त्रियां लक्ष्मी होती हैं' मूलतः मनु की वैचारिक देन है। मनु ही वह सर्वप्रथम संविधान दाता थे जिन्होंने पुत्री और पुत्र को समान स्तर प्रदान किया तथा सम्पति में भी समान अधिकार की घोषणा की थी। मनु कहते हैं -
'यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।' (९.१३०)
अर्थात्: 'जैसा आत्मा रूप पुत्र होता है वैसी ही पुत्री होती है।' उनका सम्पति में समान अधिकार है-
अविशेषेण पुत्रांण दायो भवति धर्मत:।
मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवो ऽब्रवीत्।। (निरुक्त ३.४)
उद्धरण: ध्यान देने का तथ्य यह है कि संस्कृत में पदरचना नियमबद्ध रूप से होती है। उसमें प्रत्ययों का भी अर्थ निर्धारित है। जो लोग यह कहते हैं कि मनुमूलक शब्दों की संरचना 'मनु' चिन्तनार्थ पद से हुई है, वे सर्वथा गलत हैं। इन शब्दों में जो प्रत्यय हुए हैं वे व्यक्तिवाचक शब्द से 'अपत्य' अर्थ में हुए हैं। 'मनु' व्यक्तिवाचक से 'अण्' प्रत्यय होकर 'मानव', 'यत्' प्रत्यय और 'षुक्' आगम होकर 'मनुष्य', 'अन्त्र्' प्रत्यय और 'षुक्' आगम होकर 'मानुष', 'जन्' धातु के योग से 'उ' प्रत्यय होकर 'मनुज' पद बना है। इन सभी का अर्थ सन्तान अथवा वंशज और प्रजा है। यही कथन अन्य ग्रन्थों में है- 'मनोरपत्यं मानव:' (निरुक्त ३.४)= मनु के वंशज को मानव कहते हैं। 'मानव्य प्रजा:'= सभी प्रजाएं मनु की वंशज हैं (काठक ब्राह्मण २.३०.२; तैत्तिरीय संहिता ५.१.५.६) आदि।
लेखक: डॉ० सुरेन्द्र कुमार (मनुस्मृति भाष्यकार)
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