संक्रांति का माहौल है और इस समय पूरे देश में पतंगबाजी का मजा लिया जाता है। पतंग का इतिहास वैसे तो बहुत पुराना नहीं है लेकिन लोक कथाओं में एक वर्णन ऐसा भी आता है जब श्रीराम ने भी पतंग उड़ाई थी। यदि आप इस कथा का सन्दर्भ पूछें तो ९९% लोग बताएँगे कि इसका वर्णन श्री रामचरितमानस के बालकाण्ड में दिया गया है किन्तु ऐसा नहीं है।
संक्षेप में कथा इस प्रकार है कि श्रीराम और उनके तीनों भाई बालक थे और महाबली हनुमान भी बालरूप में श्रीराम के दर्शनों को अयोध्या आये हुए थे। संक्रांति के दिन सभी बालकों ने पतंग उड़ाने का मन बनाया। श्रीराम अपने भाइयों और हनुमान के साथ खुले मैदान में आ गए और श्रीराम ने अपनी पतंग उड़ाई। उन्होंने अपनी पतंग की इतनी ढील दी कि वो स्वर्गलोक तक जा पहुँची। इस बारे में लोक कथाओं में लिखा गया है:
राम इक दिन चंग उड़ाई।
इन्द्रलोक में पहुंची जाई।।
उधर इंद्रलोक में इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी ने अपनी मुंडेर पर एक सुन्दर पतंग देखा तो उसने सोचा कि इतने संदर पतंग को उड़ाने वाला स्वयं कितना सुंदर होगा। ये सोच कर कि इस पतंग को लेने के लिए इसे उड़ने वाला अवश्य आएगा, उसने उस पतंग को पकड़ लिया। इसके बारे में लिखा गया है:
जासु चंग अस सुन्दरताई।
सो पुरुष जग में अधिकाई।।
जब श्रीराम ने पतंग को खींचना चाहा तो पाया कि पतंग अटक गयी है। तब उन्होंने हनुमानजी से कहा कि ये पता करें कि ये पतंग कहाँ अटकी है। तब बजरंगबली उस पतंग की डोर पकड़ कर ऊपर की ओर चले ताकि इसका पता चला सकें कि ये पतंग कहाँ अटकी है। उस पतंग की डोर को थामे वो स्वर्गलोक तक पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर उन्होंने देखा कि एक सुन्दर स्त्री श्रीराम के पतंग को पकड़ कर खड़ी है।
उन्होंने पूछा कि वे कौन है और इस पतंग को पकड़ कर क्यों खड़ी है? तब उसने कहा कि वो देवराज इंद्र की पुत्रवधु है। उसने पूछा कि ये पतंग किसकी है? तब पवनपुत्र ने बताया कि ये पतंग श्रीराम की है। तब जयंत की पत्नी ने कहा कि वे श्रीराम के दर्शन करना चाहती है और जब तक उसे उनके दर्शन नहीं होंगे तब तक वो पतंग नहीं छोड़ेगी।
उसकी बात सुनकर हनुमान वापस आये और सारी बातें श्रीराम को बताई। तब श्रीराम ने कहा कि वे देवराज की पुत्रवधु को कहें कि वे उन्हें चित्रकूट में अवश्य दर्शन देंगे। तब हनुमान वापस इंद्रलोक आये और उन्होंने उसे बताया कि श्रीराम उन्हें चित्रकूट में दर्शन देंगे। ये सुनकर ही जयंत की पत्नी ने अंततः पतंग छोड़ दी। इसके बारे में लिखा गया है:
तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग।
खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।।
यदि आप इन दोहों को देखेंगे तो समझ आता है कि ये वो भाषा ही नहीं है जो तुलसीदास जी ने मानस में लिखी है। निश्चित रूप से इसे बाद में लिख कर मानस में जोड़ दिया गया है। हालाँकि ये कथा बहुत अच्छी है और इसका सार भी ज्ञानप्रद है किन्तु सत्य यही है कि ये कथा रामचरितमानस के बालकाण्ड में तो क्या, समूचे मानस में कहीं नहीं है।
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