एक बार देवर्षि नारद "नारायण! नारायण!" का जाप करते हुए तीनों लोकों की यात्रा पर निकले। सभी देवों के दर्शन करते हुए "शीतला माता" के धाम पहुँचे। ध्यान-मुद्रा में बैठी मातारानी को मुस्कुराते हुए देख विस्मित महर्षि ने अभिवादन के साथ ही कहा -"माँ! आज तो आपके मुख पर अद्वितीय तेज और प्रसन्नता झलक रही है। कौन है, जिसने आपके मुख पर प्रसन्नता बिखेर दी है?" माता ने उसी स्मित हास्य के साथ कहा - वत्स! एक निश्छल हृदय भक्त के अतिरिक्त और कौन हो सकता है?"
तब महर्षि ने आश्चर्य से पूछा - "माता! आपके तो असंख्य भक्त हैं। फिर ऐसा कौन भक्तविशेष है जो आपके ह्रदय के इतने समीप है?" इसपर देवी ने कहा - "देवर्षि! कुण्डिनपुर में रहने वाली निर्मला ने अपनी सच्ची व निस्पृह भक्ति से मेरे हृदय को जीत लिया है।" तब देवर्षि ने मुस्कुराते हुए कहा - "अगर आज्ञा हो तो मैं भी आपकी इस विशेष भक्त से मिल आऊं।" तब देवी ने हँसते हुए कहा - "देवर्षि! मैं आपकी प्रकृति से अनभिज्ञ नहीं हूँ। मैं जानती हूँ कि आप निर्मला की परीक्षा लेना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो आप अवश्य अपने मन की करें।"
भक्त निर्मला की प्रशंसा सुनकर और माता से आज्ञा लेकर महर्षि नारद ने बड़ी ही उत्सुकता के साथ पृथ्वीलोक की ओर प्रस्थान किया। कुण्डिनपुर पहुँच कर वे निर्मला के द्वार पहुँचे और वहाँ उन्होंने निर्मला को उसकी जेठानी सोनाक्षी के साथ शीतला माता की पूजा-अर्चना में रत देखा। निर्मला का रूप उसके नाम के अनुरूप ही निर्मल था और उससे भक्ति का तेज साफ़ नजर आता था।
निर्मला का जन्म एक अत्यंत धनी परिवार में हुआ था किन्तु दैवयोग से उसका विवाह बहुत ही साधारण परिवार में हुआ। उसने इसे भाग्य का लेख समझ कर सहर्ष स्वीकार कर लिया और अपने गुणों से शीघ्र ही ससुराल में सभी का मन जीत लिया। वह माता की दृढ़ आस्था के साथ अपने सास-श्वसुर, जेठ-जेठानी, पति व दो छोटे बच्चों की सेवा-सुश्रुषा करते हुए अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत कर रही थी।
निर्मला जितने सरल स्वभाव की थी, सोनाक्षी उतनी ही कर्कशा। वो निर्धन परिवार की कन्या थी और दो पुत्रों और एक पुत्री की माता भी किन्तु अहर्निश सास-श्वसुर के मुख से निर्मला के गुणगान सुनकर शनैः शनैः उसके मन में निर्मला के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी जो समय के साथ बढ़ती ही जा रही थी।
उधर देवर्षि ने सोचा कि निर्मला की भक्ति की परीक्षा कैसे ली जाये? फिर उन्हें लगा कि सुख में तो सभी भक्ति करते हैं किन्तु उनकी भक्ति की वास्तविक परीक्षा दुःख में ही होती है। उन्होंने अपनी लीला रची और निर्मला के घर में चेचक की महामारी ने प्रवेश किया। सभी हैरान-परेशान। नगर भर को छोड़ चेचक ने उनके घर में ही कैसे प्रवेश किया? प्रभाव बढ़ा और निर्मला के बच्चे भी रोगग्रस्त हो गए। नगर के श्रेष्ठतम वैद्य ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए। वो बेचारी रोग के समक्ष असहाय पड़ गई।
उधर दूसरी ओर सोनाक्षी के बच्चे स्वस्थ थे उसपर भी वो मन ही मन मातारानी से प्रार्थना कर रही थी कि "हे माँ! इसके दोनों बच्चों को उठा लो। मैं तुम्हें धोती चढ़ाऊँगी।" दैवयोग से जब सोनाक्षी ये संकल्प कर रही थी, निर्मला ने सुन लिया। एक तो उसके बच्चे मृत्यु के मुख में, ऊपर से उसके जेठानी जिसे उसने सदैव अपनी बड़ी बहन का सम्मान दिया, उसका ये कुटिल रूप। अब वो क्या करे? कहाँ जाये? माँ के अतिरिक्त उसका और ठिकाना ही क्या था? आकण्ठ अश्रु लिए वह शीतला माता के पैरों में गिर पड़ी और बच्चों के स्वास्थ्य लाभ हेतु विनती करने लगी।
देवर्षि को ये प्रहसन बहुत भा रहा था। वो प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब विपत्ति का वेग निर्मला की सहनशक्ति को पार करे और कब वो अपने भक्ति पथ से भटके। दिन बीते किन्तु ऐसा कोई भी दिन ना आया जब निर्मला की मातृभक्ति में किंचितमात्र भी कमी आयी हो। देवर्षि ने परीक्षा कठिन करने की ठानी। निर्मला के तीनों बच्चों का ताप बढ़ा। पहले उन्होंने भोजन त्यागा, फिर जल। श्वास कंठ में अवरुद्ध होने लगी और फिर लगा कि जैसे अंत निकट है।
सोनाक्षी प्रसन्न हुई, निर्मला संतप्त। सास-ससुर और यहाँ तक कि उसके पति ने भी आशा छोड़ दी किन्तु जिसकी भक्ति ने स्वयं माता को झंझोड़ दिया हो वो कैसे आशा छोड़ती। बच्चों के पीछे निर्मला ने भी अन्न-जल त्यागा और माता की मूर्ति के समक्ष पहुँची। सिर्फ इतना ही कह पायी कि "माँ! रक्षा करो।" आगे कुछ बोल ना पायी, कंठ अवरुद्ध हो गया। शरीर साथ ना दे पाया और वहीँ माता की प्रतिमा के समक्ष निर्मला अचेत हो गयी।
देवर्षि को अब आत्मग्लानि हुई। उनकी परीक्षा के कारण निर्मला और उसके बच्चों ने अथाह कष्ट पाया। इस अगाध कष्ट में भी निर्मला ने माता का ही आश्रय लिया। इससे बड़ी भक्ति का और क्या प्रमाण हो सकता था? मन ही मन उन्होंने माता से क्षमा माँगी किन्तु आगे का हाल जानने को वही रुक गए। जिज्ञासु जो ठहरे। उधर निर्मला को स्वप्न में माता ने दर्शन दिए। लगा जैसे वो निर्मला के मस्तक को सहला रही हो और कह रही हो - "उठ पुत्री। तेरी तपस्या पूर्ण हुई। तेरी संतानों को मेरा अभय है।"
सुबह हुई, निर्मला का ह्रदय अनन्य आशा से भरा हुआ था। उसने शांत हृदय से मातारानी की अगाध श्रद्धा व विश्वास के साथ पूजा-अर्चना की। बच्चों को चन्दन का लेप लगाया। प्रतिदिन की ही भाँति सास-श्वसुर व समस्त परिवार की सेवा में सलग्न हो गई। सभी हैरान थे कि आज इसे हुआ क्या है? चेहरे पर किंचित भय नहीं। उन्हें क्या पता था कि जिसे माता का अभय प्राप्त हो उसे किस बात की चिंता? किस बात का भय?
अनन्य भक्ति और सेवाभाव के परिणामस्वरूप उसके दोनों बच्चे शीघ्र ही स्वस्थ हो गए। उसकी भक्ति का गुणगान पहले परिवार करता था, अब पूरा नगर करने लगा। सोनाक्षी को घोर आश्चर्य और ईर्ष्या हुई। सोचा उसने भी तो सच्चे मन से उसके बच्चों का बुरा चाहा था? फिर माता ने निर्मला की ही क्यों सुनी? विनाशकाल था, बुद्धि विपरीत हुई। मुख से माता के लिए दुर्वचन निकल गया।
अब शुभ कैसे होता? गाँव का एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया। उसने हड़बड़ाते हुए सूचित किया कि सोनाक्षी की पुत्री सुशीला को सर्प ने काट लिया। विषधर था, चेतना जाती रही। नदी तट पर अचेत पड़ी है, दोनों भाई बैठे रो रहे हैं। इतना सुनते ही सोनाक्षी अचेत हो वहीं बैठ गई। निर्मला ने उसे सम्भालते हुए कहा - "दीदी! मातारानी पर विश्वास रखिए। वो हमारे साथ इतना बड़ा अन्याय नहीं करेंगी।"
निर्मला की बातों ने उसको अन्दर तक झकझोर दिया। वह पश्चाताप करते हुए उसके पैरों पर गिर पड़ी और गिड़गिड़ाते हुए बोली - "बहन! अन्याय मैंने तुम्हारे साथ किया है। मैंने सदा चाहा कि तुम्हारे बच्चे ठीक ना हो। और तो और माता को भी दुर्वचन कहे। उसी का ये परिणाम है कि मेरी बच्ची मृत्यु के मुख में है। निर्मला! तुम माता की प्रिय भक्त हो। मुझे क्षमा कर दो। मैंने जो पाप किया है उसके बाद माता कभी मेरी नहीं सुनेगी किन्तु तुम्हारी प्रार्थना वो नहीं ठुकरा सकती। मेरी सहायता करो मेरी बहन। जिस प्रकार तुमने अपने बच्चों को मृत्यु के मुख से निकला, मेरी बच्ची पर भी कृपा करो। मेरे कर्मों का फल वो क्यों भुगते? उसके प्राण बचा लो, बहन!" निर्मला ने पूर्ण विश्वास से कहा - "विलाप ना करो दीदी। सुशीला क्या मेरी बच्ची नहीं है। माता को उसके प्राण लौटने ही होंगे अन्यथा मुझे मेरे बच्चों का प्राणदान भी नहीं चाहिए।"
देवर्षि अवाक् रह गए। ऐसी भक्ति? ऐसा विश्वास? ऐसे भक्त पर कोई विपत्ति कैसे आ सकती है? उन्होंने अंततः सभी को दर्शन दिए और बताया कि कैसे वे माता की आज्ञा से निर्मला की परीक्षा ले रहे थे। उन्होंने निर्मला की भक्ति को नमन किया और उसके उपहार स्वरुप सुशीला को प्राणदान दिया। इतने पर भी उनका जी नहीं भरा। उन्होंने निर्मला से वरदान माँगने को कहा। निर्मला ने शीतला माता की अनन्य भक्ति ही वरदान स्वरुप माँगी। देवर्षि ने कहा - "वाह पुत्री! जो तेरे पास पहले से है उसी को वरदान में माँग लिया। सत्य है, तू ही माता की अनन्य भक्त है।" सबों को आशीर्वाद देकर देवर्षि वापस अपने लोक चले। जाते-जाते उनके मुख से अनायास ही निकला -
अनन्य भक्ति से मिलती मातारानी की कृपा अपार।
आस्था व विश्वास से ही होता जीवन का उद्धार।।
ये लेख हमें डॉ उपासना पांडेय से प्राप्त हुआ है जो भिवाड़ी (राजस्थान) की निवासी हैं। इन्होंने इलाहाबाद विश्विद्यालय से संस्कृत में परास्नातक (स्वर्ण पदक) और डी.फिल. की डिग्री प्राप्त की है। इन्हें विभिन्न संस्थानों से सहित्यश्री, राष्ट्रभाषा गौरव, वगदेश्वरी, भाषा एवं साहित्य सारथी एवं अन्य कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। विभिन्न पत्रिकाओं एवं वेबसाइट पर इनके शोधपत्र, लेख, कहानियाँ , लघुकथाएँ व कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है। धर्मसंसार में इनके योगदान के लिए हम इनके आभारी हैं।
माता शीतला जी की कृपा प्राप्त होती रहे । मा शीतला मेरी कुल देवी है उनकी असीम कृपा हमारे परिवार और खानदान पर रखतीं है।
जवाब देंहटाएंआपका लेखन कार्य अनवरत चलता रहे जो मनुष्य का कल्याण कराने वाला हो।
आप के आलेख पढ़ने से किसी भी पाठक के मन मस्तिष्क में यह उपज आनी स्वाभाविक है कि रचनाकार का अध्यन अध्यापन उन्नत तकनीक युक्त होगा।
शुभकामना सहित!
आपका बहुत आभार।
हटाएंआदरणीय डॉ उपासना पाण्डेय और धर्म संसार ब्लॉग का हार्दिक अभिनंदन साधुवाद। धर्म सेवा का आपका प्रयास प्रशंसनीय है आपको प्रणाम।🙏
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