अगर महाभारत की बात की जाये तो जब भी मैत्री का नाम आता है तो हमें कृष्ण और सुदामा या अर्जुन और कृष्ण की मैत्री की याद आती है। लेकिन एक मित्र जोड़ी ऐसी भी है जिनकी मैत्री कही से भी कम नहीं दिखती है। वो है दुर्योधन एवं कर्ण की मित्रता। ये अवश्य है कि दोनों अधर्म के पक्ष में खड़े दीखते हैं लेकिन उससे दोनों की मैत्री का महत्त्व तनिक भी कम नहीं होता।
कई लोग दुर्योधन पर ये आक्षेप लगा सकते हैं कि उसने कर्ण को अंगदेश का राजा इसीलिए बनाया ताकि उसके पास अर्जुन के समकक्ष कोई योद्धा हो। कदाचित ये सही भी हो किन्तु दोनों ने जीवन भर अपनी उस मित्रता को निभाया। दोनों की मित्रता के वैसे तो कई किस्से हैं लेकिन आज हम जिस घटना के बारे में बताने जा रहे हैं वो निश्चित रूप से इस बात को सिद्ध करता है कि दुर्योधन को कर्ण पर कितना अधिक विश्वास था।
कर्ण की पत्नी वृषाली एवं दुर्योधन की पत्नी भानुमति के बीच अच्छी मित्रता थी। कर्ण की दूसरी पत्नी सुप्रिया भानुमति की सखी थी जिससे कर्ण को भानुमति के स्वयंवर में विवाह करना पड़ा। ये भी वर्णन है कि जब अपने स्वयंवर में भानुमति ने दुर्योधन का वरण नहीं किया तो अपने मित्र कर्ण के बल पर दुर्योधन ने उसका अपहरण कर लिया। उपस्थित सारे राजाओं को कर्ण ने अकेले परास्त किया ताकि दुर्योधन भानुमति को लेकर सकुशल वहाँ से निकल सके। कहा जाता है कि भानुमति अपने पति दुर्योधन से मल्ल्युद्ध की और कर्ण से धनुर्विद्या की शिक्षा भी लेती थी। खैर भानुमति के विषय में कभी और विस्तार से बताया जाएगा। तात्पर्य ये है कि कर्ण और भानुमति के बीच भी बहुत अच्छी मित्रता थी।
एक बार दुर्योधन, कर्ण और भानुमति दुर्योधन के अंतःपुर में बैठे वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय राजसभा से बुलावा आने पर दुर्योधन वहाँ से चला गया। समय बिताने के लिए कर्ण और भानुमति चौसर का खेल खेलने लगे। उस खेल में भाग्यवश भानुमति बार-बार जीत रही थी और कर्ण को हारने पर छेड़ भी रही थी। किन्तु कर्ण उसकी बातों का बुरा ना मानते हुए बार-बार दांव लगा रहा था। अंततः भाग्य से एक बाजी कर्ण जीत ही गया।
उसी समय भानुमति को दुर्योधन के वापस आने की पदचाप सुनाई दी और वो उसके स्वागत के लिए उठने लगी। कर्ण अपनी विजय के धुन में था इसीलिए उसे दुर्योधन के आने का भान नहीं था। उसे लगा कि उसके जीतने पर भानुमति खेल छोड़कर भागना चाहती है। यही सोच कर उसने भानुमति का हाथ पकड़ कर उसे वापस बिठाना चाहा। किन्तु जल्दबाजी में कर्ण के हाथ में भानुमति का हाथ ना आकर उसकी साड़ी आ गयी। इससे उसकी साड़ी कुछ खिंच गयी और उसमे लगे सारे मोती पृथ्वी पर बिखर गए।
ठीक उसी समय दुर्योधन ने कक्ष में प्रवेश किया। उस समय वहाँ का दृश्य बड़ा संदेहजनक सा था। कर्ण के हाथों में भानुमति की साड़ी थी और पूरा फर्श उसकी माला से टूटे हुए मोतियों से भरा था। ऐसी स्थिति में किसी भी व्यक्ति को उन दोनों पर संदेह हो सकता था। अब दोनों को काटो तो खून नहीं। ईश्वर के अतिरिक्त केवल कर्ण और भानुमति ही ये जानते थे कि कुछ गलत नहीं हुआ था किन्तु ऐसे दृश्य को देखने के बाद वे दुर्योधन से क्या कहें उन्हें समझ में नहीं आ रहा था। भानुमति ने तो भय से अपनी आँखे बंद कर ली और कर्ण का भी सर लज्जा से झुक गया। वे दोनों उसी प्रकार खड़े रह गए।
यहाँ पर हम दुर्योधन का एक अलग रूप देखते हैं। उसके उदार प्रकृति के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि उसके कई अन्य उदाहरण हैं। किन्तु यहाँ उसकी उदारता का एक अलग ही स्तर देखने को मिलता है। दुर्योधन अपनी पत्नी से बहुत प्रेम और उसपर पूर्ण विश्वास करता था। और कर्ण तो जैसे उसके लिए उसका दूसरा प्राण ही था। उसपर संदेह करने के विषय में तो वो सोच भी नहीं सकता था। उसे अपने मित्र और पत्नी पर इतना भरोसा था कि जब उसने दोनों को उस स्थिति में देखा तब भी उसे दोनों पर लेशमात्र का भी संदेह नहीं हुआ। उसके उलट जब उसने देखा कि इस कारण कर्ण और भानुमति लज्जा से गड़े जा रहे हैं तो उसने हँसते हुए कहा - "अरे प्रिये! ये क्या? तुम्हारे तो सारे मोती बिखर गए हैं। उसे तुम स्वयं उठा लोगी या मैं तुम्हारी कोई सहायता करूँ?"
उसने ये इस प्रकार कहा जैसे कि कुछ हुआ ही ना हो। जब दोनों ने दुर्योधन की ये उदारता देखी तो उनकी जान में जान आयी। इस घटना के बाद दोनों के मन में दुर्योधन के लिए सम्मान और बढ़ गया। ये घटना इस बात को दर्शाती है कि जहाँ सच्चा प्रेम और विश्वास होता है वहाँ संदेह का कोई स्थान नहीं होता।
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