एक बार देवर्षि नारद घूमते-घूमते बैकुंठ पहुंचे। वहाँ उन्होंने श्रीहरि विष्णु से पूछा कि "हे भगवन! संसार आपको मायापति कहता है किन्तु ये माया है क्या? मनुष्य क्यों सदैव माया के बंधन में जकड़ा होता है और व्यर्थ दुखी रहता है? जबकि बंधु-बांधव, धन संपत्ति आदि तो केवल मिथ्या है। अगर मनुष्यों को भी वैसा ज्ञान हो जाये जैसा हम देवताओं को होता है तो उन्हें इन व्यर्थ चीजों का दुःख नहीं होगा।" देवर्षि की ऐसी गर्व भरी बातें सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुराये और कहा - "कोई बात नहीं। समय आने पर माया क्या है ये तुम्हे समझ आ जाएगा।"
फिर श्रीहरि ने कहा - "चलो थोड़ा पृथ्वी पर घूम आएं।" ऐसा कह कर वो देवर्षि के साथ पृथ्वीलोक पहुँचे। वहाँ एक वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए श्रीहरि ने देवर्षि से कहा कि उन्हें बड़ी प्यास लगी है। आस पास देखो जल है या नहीं। उनकी आज्ञा पाकर देवर्षि जल को ढूंढते हुए कुछ दूर तक चले आये जहाँ उन्हें एक सरोवर दिखा। वहाँ उन्होंने स्नान किया, जल पिया और फिर श्रीहरि के लिए जल लेकर सरोवर से बाहर आये। स्नानादि करने के बाद उन्हें अचानक ही नींद आने लगी और वो वही एक वृक्ष के नीचे थोड़ी देर के लिए लेट गए और उन्हें गहन निद्रा ने घेर लिया।
तभी उन्हें एक स्वप्न आया जिसमे उन्होंने देखा कि वही पास में एक घर है। वे कौतूहलवश उस घर पर पहुँचे और द्वार खटखटाया। द्वार एक युवती ने खोला जो इतनी सुन्दर थी कि देवर्षि उसे एकटक देखते रह गए। उस अनिद्य सुंदरी को देखते ही देवर्षि के मन में काम का वेग प्रबल हो गया और ये भूलकर कि वे ब्रह्मचारी हैं, उन्होंने उस युवती से विवाह की प्रार्थना की। युवती की सहमति के पश्चात दोनों का विवाह हो गया और दोनों नाना प्रकार के सुख भोगते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ काल बीता और उस स्त्री से देवर्षि को २ पुत्र और एक पुत्री की प्राप्ति हुई। देवर्षि को लगा कि एक सुशील पत्नी और आज्ञाकारी बच्चों का साथ ही स्वर्ग है।
कुछ समय बाद वहाँ अचानक बाढ़ आ गयी जिसमे उनका घर-बार सब बहने लगा। वे उसी दुःख में थे कि अचानक उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी और बच्चे भी बाढ़ में बहने लगे हैं। उन्होंने उनलोगों को बचाने की पूरी कोशिश की किन्तु बचा नहीं सके। उनकी आँखों के सामने ही उनका पूरा परिवार मृत्यु की गोद में समा गया। अब बाढ़ उन्हें लीलने दौड़ी। जैसे तैसे वे अपने प्राण बचा कर एक पर्वत शिखर पर चढ़ गए। उनके प्राण तो बच गए किन्तु अपनी पत्नी और बच्चों के शोक में वे जोर-जोर से रोने लगे। हालाँकि ये सारी घटनाएं स्वप्न में हो रही थी किन्तु उसका प्रभाव ऐसा था कि देवर्षि वास्तव में स्वप्न में ही जोर-जोर से रोने लगे।
तभी भगवान विष्णु वहाँ आये और उन्हें उठाया। जब वे उठे तो उन्हें समझ ना आया कि क्या हुआ किन्तु स्वप्न में अपने परिवार को खोने का शोक उन्हें अभी भी था और उनकी आखों से लगातार अश्रु बह रहे थे। तब नारायण ने उनसे पूछा - "नारद तुम रो क्यों रहे हो? जल कहाँ है?" तब नारद ने उन्हें जल पीने को दिया और समझ गए कि ये सब प्रभु की ही माया है। उन्होंने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और कहा - "प्रभु! आज मैं समझ गया कि क्यों मनुष्य बंधु-बांधवों के प्रेम में पड़ा रहता है। मेरे साथ जो कुछ भी हुआ वो स्वप्न में हुआ और फिर भी मैं संताप से भर गया फिर जो मनुष्य वास्तव में अपने परिजाओं के साथ वर्षों प्रेमपूर्वक रहते हैं, उन्हें उनके प्रति मोह होना तो स्वाभाविक ही है।" नारायण हँसे। उनकी शिक्षा नारद को दी जा चुकी थी। फिर दोनों ने वापस स्वर्गलोक की और प्रस्थान किया।
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