जैसा कि हम जानते हैं कि रावण निःसंदेह एक महान योद्धा था। उसने अपने शासन में सातों द्वीपों को जीत लिया था। उसे ब्रह्मा का वरदान प्राप्त था। उसने देवताओं को परास्त किया और नवग्रह उसके राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। यहाँ तक कि वो शनि के सर पर अपना पैर रख कर बैठा करता था। यहाँ तक कि उसने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था। उसका वीर रूप ऐसा था कि उसके साथ अपने अंतिम युद्ध करते समय स्वयं श्रीराम ने कहा था कि आज रावण जिस रौद्ररूप में है कि उसे पराजित करना समस्त देवताओं के साथ स्वयं देवराज इंद्र के लिए भी संभव नहीं है।
इतना बलशाली होने के कारण रावण सदैव अपने वीर रस में ही डूबा रहता था। इसी कारण उसे वानरराज बाली और कर्त्यवीर्य अर्जुन के हाथों पराजय का सामना भी करना पड़ा था लेकिन उसने उन दोनों से कोई बैर नहीं रखा और बालि के साथ उसकी मित्रता तो विश्व प्रसिद्ध थी। उसका इतना अधिक बल ही वास्तव में उसके अभिमान और पतन का कारण बना। इसी सन्दर्भ में एक कथा आती है जब अपने बल के घमंड में रावण महाबली हनुमान से उलझ पड़ा।
हनुमान के बल के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। वो स्वयं महारुद्र के अंश थे। समस्त देवताओं का वरदान उन्हें प्राप्त था और विश्व का कोई भी अस्त्र उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता था। लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए उन्होंने बात ही बात में पूरा पर्वत शिखर उखाड़ लिया था। श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त करवाने के लिए उन्होंने अहिरावण का वध किया था।
औरों की क्या बात है, श्रीराम के लिए तो वो स्वयं महादेव से टकराने से पीछे नहीं हटे थे। हनुमान और रावण दोनों महाबली थे किन्तु जहाँ हनुमान अपार बल के स्वामी होने के बाद भी सदैव विनम्र रहे, वही रावण सदैव अपने बल के घमंड में दूसरों का अहित ही करता रहा। इसी बल के अभिमान में उसने देवी सीता का हरण किया और अपना सर्वनाश कर लिया।
कथा ये है कि लंका युद्ध के समय अपने बल के मद में रावण ने हनुमान से शर्त लगाई कि दोनों में कौन अधिक शक्तिशाली है। अब इसका फैसला कैसे हो? तब रावण ने पुनः अभिमान में कहा कि - "रे वानर! संसार में ऐसा कोई दिव्यास्त्र नहीं है जिसका ज्ञान मुझे नहीं है। उनसे भी ऊपर स्वयं परमपिता का महान अस्त्र ब्रह्मास्त्र भी मेरे पास है जिससे मैं क्षण भर में तेरा वध कर सकता हूँ। किन्तु अगर बात बल की हुई है तो बाहुबल की परीक्षा करनी ही उचित है।"
तब ये तय हुआ कि दोनों बारी-बारी से एक दूसरे पर मुष्टि प्रहार करेंगे और जो उसे बिना किसी कष्ट के झेल लेगा, वही अधिक बलशाली कहलायेगा। दोनों इस बात के लिए सहमत हो गए। पहले प्रहार के लिए रावण ने हनुमान को आमंत्रित किया किन्तु हनुमान ने हँसते हुए कहा - "हे वीर! मैं इस वक्त तुम्हारे साम्राज्य में हूँ और राजा होने के कारण भी तुम्हारा पहले प्रहार करना ही न्यायोचित होगा।"
अब रावण उत्साह भरकर तैयार होने लगा। दूसरी ओर हनुमान भी अपने बल को एकत्र कर रावण का प्रहार झेलने के लिए वीरासन में बैठ गए। रावण ये सोच रहा था कि ये अच्छा मौका है जब वो अपनी अपार शक्ति प्रहार से हनुमान का वध कर देगा और फिर राम की सेना में ऐसा महावीर नहीं होगा। यही सोच कर उसने अपनी पूरी शक्ति से हनुमान पर भीषण प्रहार किया। लेकिन आश्चर्य, देवों तक को पछाड़ देने वाले उसके शक्तिशाली प्रहार को हनुमान सहज रूप से ही झेल गए।
कुछ समय तक तो रावण को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ कि उसके इतने भीषण प्रहार के बाद भी हनुमान उसी प्रकार बैठे हैं। उसका अभिमान टूटने को आया पर उसने सोचा कि अभी उसके पास भी एक अवसर है। अगर वो हनुमान का प्रहार झेल गया तो दोनों को बल समान ही माना जाएगा और उसका अपमान नहीं होगा। वैसे भी जिसके वक्ष से टकराकर स्वयं सुदर्शन चक्र वापस लौट गया हो, उसपर इस वानर के प्रहार का क्या असर होगा। ये सोच कर अब रावण ने हनुमान को प्रहार करने के लिए आमंत्रित किया।
हनुमान पहले से ही देवी सीता के अपहरण के कारण रावण से रुष्ट थे। उन्होंने सोचा कि इस दुष्ट के कारण क्यों श्रीराम भटकते रहे। इससे तो अच्छा कि आज अपने प्रहार से वे उसका वध ही कर दें और माता सीता को ले जाकर श्रीराम को सौंप दें। ये सोच कर उन्होंने रावण पर प्रहार करने के लिए पूरी शक्ति से अपनी मुष्टि उठाई।
अब क्या हो? हनुमान की पूरी शक्ति से किये गए प्रहार से भला कौन बच सकता है? सभी देवताओं ने समझा कि बस आज रावण का अंत आ गया है। किन्तु इससे पहले हनुमान प्रहार कर पाते, स्वयं ब्रह्मदेव अदृश्य रूप से हनुमान के सामने आये। परमपिता को अपने सामने देख कर हनुमान ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।
तब ब्रह्मा ने कहा - "हे महाबली! ये क्या कर रहे हो? क्या तुम्हे अपने बल का ज्ञान नहीं है? तुम्हारे इस प्रहार से रावण अवश्य मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। और अगर ऐसा हो गया तो श्रीराम का पृथ्वी पर अवतार लेना व्यर्थ हो जाएगा। इसके अतिरिक्त इससे उनका यश भी कम होगा। अतः ऐसा दुःसाहस ना करो और रावण को छोड़ दो।"
तब हनुमान ने कहा - "प्रभु! आपकी आज्ञा भला मैं कैसे टाल सकता हूँ किन्तु रावण एक वीर है और मुझपर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर चुका है। अतः अब अगर मैंने उसपर प्रहार ना किया तो उसका अपमान तो होगा ही साथ ही साथ श्रीराम को भी उसके वध का वैसा यश नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त उसे बल का घमंड तोडना भी आवश्यक है। अतः आप चिंता ना करें, मैं उसपर अपनी पूरी शक्ति से प्रहार नहीं करूँगा। केवल उसका अभिमान भंग कर उसे छोड़ दूंगा।" हनुमान द्वारा आश्वासन दिए जाने पर ब्रह्मदेव उन्हें आशीर्वाद देकर चले गए।
तब हनुमान ने केवल रावण का अभिमान तोड़ने के लिए अपने बल के चौथे अंश द्वारा ही उसपर प्रहार किया। हनुमान के चौथाई अंश के प्रहार का प्रभाव ही ऐसा था कि रावण रक्तवमन करता हुआ कुछ समय के लिए मूर्छित हो गया। ऐसा बल देख कर रावण के मन में हनुमान के प्रति आश्चर्य के साथ-साथ सम्मान भी उत्पन्न हुआ।
तब उसने हनुमान की प्रशंसा करते हुए कहा - "हे महाबली! तुम्हारे बल की जितनी भी प्रशंसा की जाये वो कम है। इसमें अब मुझे कोई आश्चर्य नहीं रहा कि कैसे तुमने अकेले ही लंका को जलाकर राख कर दिया। अगर तुम मेरे शत्रु के मित्र ना होते तो तुमसे मित्रता करके मैं अपने आप को धन्य समझता। तुम निःसंदेह बल में बालि और कर्त्यवीर अर्जुन से भी श्रेष्ठ हो। आज से विश्व तुम्हे "अतुलित बलधाम" के रूप में स्मरण करेगा।
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