एक बार देवर्षि नारद घूमते-घूमते अपने पिता के पास ब्रह्मलोक पहुँचे। वहाँ परमपिता ने उनका स्वागत किया और उनके आने का उद्देश्य पूछा। तब नारद ने कहा - "हे पिताश्री! आप इस समस्त संसार के जनक हैं। सृष्टि में जो कुछ भी है उनकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। देव और दैत्य दोनों आपके पौत्र महर्षि कश्यप की संतानें हैं। जिस प्रकार कश्यप की पत्नी अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई है, उसी प्रकार उनकी पत्नी दिति से दैत्यों की।
अदिति दिति से बड़ी है इसी कारण दैत्य देवताओं के छोटे भाई हुए। किन्तु बल में वे देवताओं से बढ़कर ही हैं। फिर क्या कारण है कि आज जहाँ देवता स्वर्ग में समस्त सुख भोग रहे हैं, वहीं दैत्य पाताल में निवास करने को विवश हैं। आपने सदैव देवों को ही श्रेष्ठ समझा है। मैं इसका कारण समझने में असमर्थ हूँ।"
अपने पुत्र को इस प्रकार बोलते देख ब्रह्माजी ने कहा - "नारद, ये सत्य है कि दैत्य देवताओं के बड़े भाई हैं और ये भी सत्य है कि बल में भी वे देवताओं से बढ़कर हैं। किन्तु केवल आयु अथवा बल में बड़ा होना श्रेष्ठता की पहचान नहीं है। श्रेष्ठ होने के सच्चरित्रता एवं बुद्धिमत्ता का होना भी अति आवश्यक है। देवताओं में यही गुण उन्हें दैत्यों से श्रेष्ठ बनता है।"
तब देवर्षि ने पूछा - "हे पिताश्री! आप ये कैसे कह सकते हैं कि दैत्यों में बुद्धि नहीं है? क्या वे मुर्ख हैं?" तब ब्रह्मदेव ने कहा - "नहीं पुत्र। वे मुर्ख नहीं हैं किन्तु अज्ञानी हैं। यही कारण है कि वे आज दुःख भोगने को विवश हैं। लेकिन तुम्हारे संदेह को मिटाना भी आवश्यक है। ऐसा करो, देवों और दैत्यों दोनों को ब्रह्मलोक में भोजन के लिए आमंत्रित करो। वहाँ तुम्हे पता चल जाएगा कि देवता क्यों दैत्यों से श्रेष्ठ हैं।"
ब्रह्माजी की आज्ञा से देवर्षि नारद तत्काल देवों और दैत्यों के पास गए और उन्हें ब्रह्मदेव का निमंत्रण दिया। वैसे तो आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या के कारण देव और दैत्य कभी भी एक स्थान पर इकट्ठे नहीं होते थे किन्तु ये परमपिता की आज्ञा थी जिसे कोई मानने से इंकार नहीं कर सकता था। इसी लिए देव और दैत्य दोनों अपने दल बल के साथ ब्रह्मलोक भोज के लिए पहुँचे।
वहाँ पहुँच कर सबने परमपिता को प्रणाम किया। फिर ब्रह्मदेव ने कहा - "तुम सभी यहाँ आये हो तो बताओ कि एक साथ भोजन करना पसंद करोगे अथवा अलग-अलग। और अगर अलग-अलग तो फिर पहले भोजन कौन करेगा?"
परमपिता की ये बात सुनकर देवता दैत्यों के साथ भोजन करने को राजी हो गए किन्तु दैत्यों ने देवताओं के साथ भोजन करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा - "प्रभु! देवता हमारे चिरशत्रु हैं इसी कारण हम उनके साथ भोजन नहीं कर सकते। रही पहले भोजन करने की बात तो हम देवताओं से बड़े हैं। हमारी माता दिति भी माता अदिति से बड़ी हैं। इसी कारण पहले भोजन करने का सौभाग्य तो हमें ही प्राप्त होना चाहिए।" देवता ये सुनकर दैत्यों के बाद भोजन करने के लिए भी तैयार हो गए।
ब्रह्माजी दैत्यों को लेकर भोजनगृह पहुँचे और उन्होंने सभी दैत्यों के हाँथों को लौहदण्ड के साथ सीधा बांध दिया। उसके बाद उन्होंने उन्हें भोजन करने की आज्ञा दी। भोजन की आज्ञा तो मिल गयी और सामने थाल में स्वादिष्ट भोजन भी रखा था किन्तु दैत्य खाएं कैसे। लौहदण्ड से बंधा होने के कारण उनके हाँथ मुड़ कर उनके मुख तक पहुँच ही नहीं सकते थे। कुछ दैत्यों ने उन दण्डों को खोलने का प्रयास किया किन्तु भला ब्रह्मा द्वारा बांधे गए बंधन को कौन खोल सकता था? अब कोई और उपाय ना देख कर उन्होंने जैसे तैसे खाने का प्रयत्न आरम्भ किया। कुछ भोजन उछाल कर अपने मुँह में डालने का प्रयत्न करने लगे तो कोई पशु जैसे पात्र में मुँह डालकर खाने लगे।
देवर्षि नारद ये सब देख रहे थे। आखिरकार तक कर दैत्य ब्रह्माजी के पास आये और उन्होंने कहा - "हे परमपिता! अगर हमारा अपमान ही करना था तो हमें आमंत्रित क्यों किया? फिर ब्रह्माजी ने कहा - "चलो देखते हैं कि देवता किस प्रकार भोजन करते हैं।" ये कहकर उन्होंने देवताओं को बुलवाया। सारे दैत्य प्रसन्नतापूर्वक वही रुके रहे ताकि वे देवताओं को अपमानित होते हुए देख सकें।
देवताओं के साथ भी वही शर्त रखी गयी। देवता भी उस प्रकार भोजन करने में असमर्थ हो गए। किन्तु फिर कुछ सोच कर सारे देवता आमने सामने बैठ गए और एक दूसरे को प्रेम से भोजन कराने लगे। इस प्रकार उन्हें अपना हाथ मोड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उन्होंने भोजन भी किया और ऐसे भोज से उन सभी का आपसी प्रेम भी बढ़ गया। भर पेट भोजन करने के बाद देवता ब्रह्मदेव के पास आये और कहा - "परमपिता! इस प्रकार की परीक्षा के लिए धन्यवाद। आज जिस अपनत्व से हमने भोजन किया है वैसा पहले कभी नहीं किया।"
जब दैत्यों ने देवताओं की बुद्धिमत्ता देखी तो वे बड़े लज्जित हुए। उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और वहाँ से चले गए। देवता भी उनका आशीर्वाद पाकर वापस स्वर्गलोक चले गए। तब देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी के चरणों में नतमस्तक होते हुए कहा - "हे पिताश्री! आज आपने मुझे भी अमूल्य शिक्षा दी है। वो बुद्धि और चेतना ही है जो किसी भी जीव को देव या दैत्य बनाती हैं।"
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