महाभारत का युद्ध होना तय हो चुका था। अंतिम प्रयास के रूप में श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गए किन्तु मूढ़ कौरवों ने उनका भी अपमान किया और उनके केवल ५ गाँव देने के प्रस्ताव को अभी अस्वीकार कर दिया। कृष्ण को तो खैर ये पता ही था कि ये युद्ध किसी भी स्थिति में टल नहीं सकता है किन्तु भीष्म और द्रोण ने दुर्योधन के हठ की ऐसी पराकाष्ठा देखी तो वे भी समझ गए कि कुरुवंश के नाश का समय अब आ गया है।
अब युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ हो गयी और उसके लिए स्थान और दिन निश्चित करने की बात आयी। जब स्थान नियत करने का प्रश्न आया तो श्रीकृष्ण और भीष्म ने एक स्वर में कुरुक्षेत्र के सम्यक पञ्चक प्रदेश का चुनाव किया। ये वही स्थान था जहाँ भगवान परशुराम ने २१ बार क्षत्रियों का नाश करके उनके रक्त से पाँच सरोवर भर दिए थे। कौरवों और पांडवों के पूर्वज महाराज कुरु को देवराज इंद्र ने वरदान दिया था कि यहाँ जो भी मृत्यु को प्राप्त होगा, वे निश्चय ही स्वर्ग को प्राप्त करेगा। इसी कारण दोनों ने इस स्थान का चुनाव किया। कुछ समय में दोनों ओर की सेनाएँ कुरुक्षेत्र में उपस्थित हो गयी।
अब बात आयी तिथि निश्चित करने की। ये बहुत महत्वपूर्ण कार्य था क्यूंकि अगर युद्ध गलत समय और राशि में आरम्भ किया जाता तो उसका विपरीत प्रभाव किसी भी पक्ष पर पड़ सकता था। इसी कारण पितामह भीष्म ने अपने राजज्योतिषी के अतिरिक्त देश-विदेश से कई ज्योतिषविदों को आमंत्रित किया ताकि वे ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार युद्ध का सही समय निश्चित करें। उन विद्वानों ने ग्रहों की गणना कर कई तिथियाँ बताई किन्तु दुर्योधन ने उन सबको अस्वीकार कर दिया। सभी हैरान थे कि दुर्योधन इतने सारे ज्योतिष विद्वानों की बात क्यों नहीं मान रहा।
एक दिन अचानक दुर्योधन अकेला ही पांडवों के शिविर की ओर चल पड़ा। उसे इस प्रकार दूसरे पक्ष में जाते देख कर कर्ण और उसके अन्य भाई भी उसके साथ हो लिए। जब उनके प्रधान सेनापति भीष्म को इस विषय में पता चला तो वे भी द्रोण और कृप के साथ उसके पीछे-पीछे चल दिए। उन्हें आशंका थी कि कही दुर्योधन अपने क्रोध में समय से पहले ही युद्ध की स्थिति उत्पन्न ना कर दे।
दुर्योधन और इतने सारे योद्धाओं को अपने शिविर की तरफ आते देख भीम और अर्जुन को शंका हुई और वो युद्ध के लिए तत्पर होने लगे। अपने भाइयों को इतना उत्तेजित देख कर युधिष्ठिर और कृष्ण ने उन्हें शांत करवाया। दुर्योधन के वहाँ आने पर उन्होंने उसका स्वागत किया और वहाँ आने का का कारण पूछा। तब दुर्योधन ने कहा कि वो सहदेव से कुछ परामर्श करना चाहता है।
दुर्योधन की ऐसी बात सुनकर सभी आश्चर्य में पड़ गए। दुर्योधन जैसा मानी व्यक्ति, जिसने आज तक पितामह और गुरु द्रोण का परामर्श भी नहीं माना, सहदेव से क्या परामर्श लेना चाहता है? किन्तु वे दुर्योधन के अनुरोध को ठुकराना नहीं चाहते थे इसी लिए सहदेव आगे आये और दुर्योधन से पूछा कि वो उनसे क्या सलाह चाहते हैं।
तब दुर्योधन ने कहा - 'हे अनुज! अब तो युद्ध निश्चित ही हो गया है। दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने है। किन्तु बिना शुभ मुहूर्त के युद्ध आरम्भ नहीं हो सकता। मैं जानता हूँ कि तुम त्रिकालदर्शी हो। साथ ही तुम जैसा ज्योतिष विद्वान आज पूरे विश्व में नहीं है। अतः तुम्ही अपनी विद्या का प्रयोग कर इस युद्ध को आरम्भ करने का शुभ मुहूर्त निकाल कर हमें बताओ। सहदेव त्रिकालदर्शी कैसे बने इसके बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
दुर्योधन को इस प्रकार बोलते देख कर कौरवों के साथ-साथ पांडव भी आश्चर्यचकित रह गए। तब अपने भाई को समझाते हुए दुःशासन ने कहा - 'भैया आप ये क्या कर रहे हैं? आपने स्वयं कहा कि सहदेव त्रिकालदर्शी हैं किन्तु उससे पहले वो हमारा शत्रु है। अगर उसने जान-बूझ कर हमें गलत मुहूर्त बता दिया तो हम ये युद्ध अवश्य ही हार जाएँगे। अतः यही उचित होगा कि पितामह ने जो ज्योतिष के विद्वान बुलाये हैं उसनी के द्वारा निश्चित किये गए मुहूर्त पर हम युद्ध करें।'
तब दुर्योधन ने कहा - 'दुःशासन! मुझे इस बात का पूर्ण विश्वास है कि सहदेव किसी भी परिस्थिति में हमारे साथ छल नहीं करेंगे। ये उसका स्वाभाव ही नहीं है। मैं जनता हूँ कि कृष्ण भी त्रिकालदर्शी हैं और मैं युद्ध का मुहूर्त उनसे भी पूछ सकता था किन्तु मुझे उनपर विश्वास नहीं है। वे अवश्य ही हमारे साथ छल कर सकते हैं। औरों की क्या बात है, इस विषय पर तो मैं स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर की बात पर भी विश्वास नहीं कर सकता। किन्तु मुझे इस बात का विश्वास है कि सहदेव हमारे साथ छल नहीं करेंगे।'
दुर्योधन की इस बात का भीष्म और द्रोण ने भी अनुमोदन किया। उनकी आज्ञा के बाद सहदेव ने युद्ध का मुहूर्त बताना स्वीकार किया। अगर वे चाहते तो ऐसा मुहूर्त बता सकते थे जिससे पांडवों को फायदा होता और वो आसानी से युद्ध जीत जाते, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। सहदेव ने युद्ध का मुहूर्त ऐसा रखा जब ग्रह और नक्षत्र ना पांडवों के लिए फलदायी थे ना ही कौरवों के लिए। ताकि इस युद्ध का जो भी निर्णय हो वो केवल अपने बाहुबल के बल पर हो। उनके बताये गए शुभ मुहूर्त पर ही युद्ध लड़ा गया और पांडवों ने अपने पौरुष और श्रीकृष्ण की सहायता से युद्ध में विजय प्राप्त की।
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