महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था और पांडव एवं श्रीकृष्ण निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे। उस समय एक ऋषि थे उनका नाम था जैमिनी। जब उन्होंने महाभारत का विवरण जाना तो उनके मन में श्रीकृष्ण, पांडव एवं उस महायुद्ध के विषय में संदेह उत्पन्न हो गया। वे अपनी शंका के समाधान के लिए कई महात्माओं से मिले पर कोई उनके संदेह का निवारण नहीं कर सका। फिर वे विचरण करते हुए मार्कण्डेय ऋषि के पास पहुँचे।
जब मार्कण्डेय मुनि ने उनकी समस्या सुनी तो उन्होंने कहा - "हे महर्षि! इस समय तो मैं समाधि में जा रहा हूँ और कुछ काल बाद ही चेत होऊंगा। किन्तु यदि आपको अपनी समस्या का समाधान विस्तार पूर्वक चाहिए तो विंद्याचल पर्वत में स्थित महर्षि शमीक के आश्रम में जाइये। वहाँ पिंगाक्ष, निवोध, सुपुत्र और सुमुख नामक ४ पक्षी निवास करते हैं। वे द्रोणपुत्र हैं और समस्त वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता हैं। वे आपकी शंका का समाधान अवश्य कर देंगे।"
यह सुनकर जैमिनी ऋषि ने विस्मित होकर पूछा - "हे महामुने! पक्षी द्रोण के पुत्र कैसे हो सकते हैं? मानवों की भाषा का ज्ञान पक्षियों को कैसे हो सकता है? वे कैसे मेरी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं?" तब मार्कण्डेय ऋषि ने उन्हें बताया कि एक बार देवर्षि नारद स्वर्गलोक पहुंचे। वहाँ देवराज इंद्र ने उनका उचित स्वागत सत्कार किया और फिर उनसे कहा - "हे देवर्षि! आपको विदित ही है कि देवसभा में रंभा, ऊर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका, घृतांचि, उर्वशी आदि देव गणिकाएं, अप्सराएं और नर्तकियां हैं। आपके विचार से इनमें से श्रेष्ठ कौन है?"
तब देवर्षि ने समस्त अप्सराओं को बुलाकर कहा - "हे सुंदरियों! तुम लोग अपने नृत्य कला का प्रदर्शन हमारे समक्ष करो किन्तु ध्यान रहे कि जो रूप में सर्वोत्तम और सरस-संलाप आदि विधाओं में श्रेष्ठ हैं, वही हमारे समक्ष नृत्य करें।" देवर्षि नारद का प्रश्न सुनकर सभी अप्सराएं मौन रहीं। तब इंद्र ने देवर्षि से कहा - "हे देवर्षि! आप स्वयं ही इनके रूप को देख कर सर्वश्रेष्ठ का चयन करें।"
तब देवर्षि ने कहा - "देवराज! बिना परीक्षा के कभी चयन नहीं होता है। इनमे से जो कोई भी महर्षि दुर्वासा को अपने मोह जाल में बाँध लेगी, वही मेरी दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ होगी।" अब महर्षि दुर्वासा का क्रोध भला कौन मोल लेती? इसी लिए सभी अप्सराएँ पुनः मौन रह गईं। तभी "वपु" नामक एक अप्सरा ने आगे बढ़ कर उस चुनौती को स्वीकार किया। उसका ऐसा आत्मविश्वास देख कर इंद्र ने प्रसन्न होकर कहा - "अगर तुमने महर्षि दुर्वासा को मोह लिया तो मैं तुम्हें मुहँमांगा इनाम दूँगा और साथ ही अप्सराओं की नायिका बना दूँगा।"
ये सुनकर वपु महर्षि दुर्वासा के पास पहुँची जो हिमालय पर घोर तपस्या में रत थे। वहाँ पहुँच कर वपु ने भाँति-भाँति के गायन और नृत्य करना आरम्भ कर दिया। इस शोर से दुर्वासा की तपस्या भंग हो गयी। अपने सामने एक सुन्दर स्त्री को इस प्रकार नृत्य करते देख कर उन्होंने क्रोध में उसे श्राप दिया - "तुमने अकारण मेरे तप को भंग किया है इसी कारण मैं तुम्हे श्राप देता हूँ कि तुम तत्काल गरुड़ कुल में एक पक्षी के रूप में जन्म लो।" ऐसा सुनते ही वपु ने रोते हुए उनसे क्षमा याचना की। उससे द्रवित होकर दुर्वासा ने कहा कि वो १६ वर्षों तक पक्षी रूप में जीवित रहकर ४ पुत्रों को जन्म देगी और उसके बाद अपने प्राण त्याग कर पुनः अपने रूप को प्राप्त करेगी।
दुर्वासा के श्राप के फलस्वरूप वपु ने गरुड़वंशीय कंगधर नामक पक्षी की पत्नी मदनिका के गर्भ से जन्म लिया। उसका नाम "तार्क्षी" रखा गया। बाद में उसका विवाह मंदपाल के पुत्र द्रोण से हुआ। १६ वर्ष की आयु में उसने गर्भ धारण किया। उसी समय महाभारत का युद्ध आरम्भ हो गया और वो कुरुक्षेत्र उसे देखने की लालसा से पहुँची। जब वो कुरुक्षेत्र के रण के ऊपर उड़ रही थी, उसी समय नीचे अर्जुन और भगदत्त के बीच भीषण युद्ध चल रहा था। दुर्भाग्यवश उस युद्ध में अर्जुन का एक बाण उसके गर्भाशय को चीरता हुआ निकल गया और वो अपने प्राण त्यागते हुए श्राप से मुक्त होकर स्वर्गलोक चली गयी।
उसके गर्भ से जो चार अंडे गिरे थे वो महायुद्ध के बीच में गिरे। आघात से वो अंडे फूट गए और उससे ४ पक्षियों का जन्म हुआ। किन्तु उस भयानक रणक्षेत्र में उनकी कुशल कैसे हो? लेकिन जिसपर ईश्वर की कृपा रहती है वो सदैव सुरक्षित रहते हैं। अर्जुन और भगदत्त के उसी युद्ध में अर्जुन के बाणों से भगदत्त के हाँथी सुप्रतीक के गले का विशाल घंटा टूट कर उन पक्षियों के ऊपर गिरा और उन्हें ढँक दिया। इससे उस युद्ध में उनके प्राणों की रक्षा हुई।
सायंकाल को दैवयोग से शमीक मुनि उधर विचरते हुए आ गए और उनकी ठोकर से वो घंटा गिर गया। उन्होंने उसके नीचे ४ छोटे पक्षियों को देखा और दयाभाव से उन्हें अपने साथ अपने आश्रम ले आये। वहाँ उनकी क्षत्रछाया में वे शीघ्र ही बड़े हो गए और मनुष्यों की वाणी बोलने लगे। एक दिन उन्होंने अपने गुरु शमीक से पूछा कि "हे मुनिवर! क्या कारण है कि हम पक्षी होकर भी मनुष्यों की वाणी बोलते हैं?" इस पर शमीक मुनि ने उन्हें उनके पिछले जन्म की कथा सुनाई।
तब शमीक ऋषि ने बताया कि प्राचीनकाल में विपुल नामक एक तपस्वी ऋषि थे जिनके सुकृत और तुंबुर नाम के दो पुत्र हुए। तुम चारों ही पूर्वजन्म में सुकृत के पुत्र हुए। एक बार देवराज इंद्र पक्षी के रूप में सुकृत के आश्रम आये और उनसे भोजन हेतु मनुष्य का मांस मांगा। तब तुम्हारे पिता सुकृत ने तुम लोगों को आदेश दिया कि पितृऋण चुकाने हेतु तुमलोग इंद्र का आहार बनो। किन्तु मृत्यु के भय से तुम लोगों ने उनकी आज्ञा नहीं मानी। इससे क्रोध होकर तुम्हारे पिता ने तुम चारों को पक्षी रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया और स्वयं पक्षी का आहार बनने के लिए तैयार हो गए।
उनकी ऐसी दृढ इच्छाशक्ति देख कर इंद्र ने उन्हें दर्शन दिए और आशीर्वाद स्वरुप तुम लोगों को श्राप से मुक्ति का उपाय बताया। उन्होंने कहा कि तुम लोग पक्षी रूप में ज्ञानी बनकर कुछ दिन विंध्याचल पर्वत की कंदरा में निवास करोगे। जिस दिन महर्षि जैमिनी तुम्हारे पास आकर अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिए तुम लोगों से प्रार्थना करेंगे, तब तुम लोग अपने पिता के श्राप से मुक्त हो जाओगे। ऐसा कहकर देवराज इंद्र पुनः स्वर्गलोक चले गए। ये कथा सुनकर उन चारो पक्षियों ने महर्षि शमीक से शीघ्र विंध्याचल जाने की आज्ञा मांगी और फिर उनके आदेशानुसार विंध्याचल में जाकर निवास करने लगे।
इस कथा को सुनकर मार्कण्डेय मुनि ने जैमिनी ऋषि से कहा - "हे महामुने! यही कारण है कि मैंने आपको विंध्याचल पर्वत को जाने को कहा। वहाँ वे चारों पक्षी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ताकि आपके पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देकर वे चारों श्रापमुक्त हो जाये। इसीलिए आप यथाशीघ्र विंध्याचल की और प्रस्थान कीजिये।" महर्षि मार्कण्डेय की सहमति से जैमिनी ऋषि विंध्याचल पहुंचे और उन्होंने वहां उच्च स्वर में वेदों का पाठ करते पक्षियों को देखा। यह देख कर वे बड़े प्रसन्न हुए और फिर उन्होंने चारों से अलग-अलग ४ प्रश्न पूछे।
- पिंगाक्ष से उन्होंने पूछा - "इस जगत के कर्ता-धर्ता भगवान ने मनुष्य का जन्म क्यों लिया?" तब पिंगाक्ष ने कहा - "हे महर्षि! कई बार प्रभु अपनी ही सृष्टि के बनाये नियम का पालन करने के लिए विवश होते हैं। इसी कारण पापियों का नाश करने के लिए और इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करने के लिए स्वयं नारायण ने श्रीकृष्ण के रूप में मानव अवतार लिया।"
- निवोध से उन्होंने पूछा - "द्रौपदी पांच पतियों की पत्नी क्यों बनी?" तब निवोध ने कहा - "महामुने! द्रौपदी ने पिछले जन्म में महादेव से ऐसे पति की कामना की थी जो धर्म का चिह्न हो, बल में जिसकी कोई तुलना ना हो, जो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो, संसार में उसके सामान कोई सुन्दर ना हो और जिसके सामान धैर्यवान कोई और ना हो। किसी भी एक व्यक्ति में ये सारे गुण नहीं हो सकते थे इसीलिए उसे पाँच पतियों से विवाह करना पड़ा क्यूंकि युधिष्ठिर धर्म का चिह्न थे, भीम का बल अपार था, अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, नकुल सर्वाधिक सुन्दर और सहदेव सबसे बड़े धैर्यधारी थे। सूर्यपुत्र कर्ण में ये सारे गुण अवश्य थे किन्तु उनमे एक अवगुण था कि वे अधर्मियों का साथ दे रहे थे।
- सुपुत्र से उन्होंने पूछा - "श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम ने किस कारण तीर्थयात्राएं कीं?" तब सुपुत्र ने कहा - "महर्षि! बलराम कभी भी भाइयों के बीच वैरभाव के समर्थक नहीं थे। उनके विचार में जितना दोष दुर्योधन का था, द्रौपदी को दांव पर लगाने के कारण उससे अधिक दोष युधिष्ठिर का था। उन्हें ये पता था कि जैसा युद्ध इन दोनों पक्षों के बीच होने वाला है वैसा ना आज तक हुआ और ना ही होगा। ऐसे समय में शांति का लोप हो जाएगा। इसी कारण शांति हेतु उन्होंने युद्ध में भाग ना लेकर तीर्थयात्रा करना उचित समझा।
- सुमुख से उन्होंने पूछा - "द्रौपदी के पांच पुत्र उपपांडवों की ऐसी जघन्य मृत्यु क्यों हुई?" तब सुमुख ने कहा - "हे महामुने! ये इस युद्ध का प्रारब्ध था। धरती को मनुष्यों और पापियों के भार से मुक्त करने के लिए ही ये युद्ध हुआ था। इसी कारण इसमें पापियों के साथ-साथ श्रेष्ठ मनुष्यों की भी मृत्यु हुई। उप-पांडवों की मृत्यु भी उनके पिछले जन्मों के कर्मों के कारण हुई।"
इस प्रकार चारो पक्षी महर्षि जैमिनी के प्रश्नों का समाधान कर श्राप मुक्त हो परमधाम को प्राप्त हुए।
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