रावण की वीरता के किस्से तो सबने सुने होंगे किन्तु कई ऐसी अवसर थे जब रावण को भी पराजय का सामना करना पड़ा। इसी को ध्यान में रखकर मैंने 'रावण का मानमर्दन' नाम की श्रृंखला लिखने का निश्चय किया है जिसमे विभिन्न योद्धाओं द्वारा रावण की पराजय का वर्णन है। इस पहली कथा में हम आपको बताएँगे कि किस प्रकार रावण अपनी शक्ति के मद में दैत्यराज बलि से उलझा और उसे मुँह की खानी पड़ी। महाराज बलि के विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
दैत्यराज बलि भगवान विष्णु के अनन्य भक्त प्रह्लाद के पोते और विरोचन के पुत्र थे। वे भी अपने दादा की भांति न्यायप्रिय और विष्णुभक्त थे जिन्हे भगवान वामन की कृपा से पाताल लोक का राज्य प्राप्त हुआ जहाँ वो सभी दैत्यों का नेतृत्व करते थे। साथ ही वामनदेव ने उन्हें कल्प के अंत तक जीवित रहने का वरदान भी दिया। रावण उस समय युवा था और अपनी शक्ति के मद में चूर भी। कई देशों और द्वीपों को जीतते हुए वो दैत्यराज बलि की नगरी पाताल पहुँचा। वो वहाँ भी अपनी सत्ता का को स्थापित करना चाहता था।
जब रावण ने अपने विशाल परशु के साथ पाताल लोक में प्रवेश किया तो वहाँ भगदड़ मच गयी। उसका तेज ऐसा था कि उसके समक्ष खड़े होने का साहस कोई ना दिखा पाया। जिन दैत्य वीरों ने उसे रोकने का प्रयास किया उसे रावण के हाथों मृत्यु को प्राप्त होना पड़ा। ऐसा उपद्रव देख कर दैत्यराज के वृद्ध मंत्री रावण के समक्ष आये और उन्होंने उससे पूछा कि वो पाताल लोक क्यों आया है और इस प्रकार उपद्रव क्यों मचा रहा है।
एक वयोवृद्ध दैत्य को अपने सामने देख कर रावण ने उसपर प्रहार करना उचित नहीं समझा और उससे कहा - "हे महामंत्री! मैं महर्षि पुलत्स्य का पौत्र और विश्रवा का पुत्र रावण हूँ। वीर राक्षसराज सुमाली मेरे नाना और उनकी पुत्री कैकसी मेरी माता हैं। आज संसार में ऐसा की नहीं जिसने मेरी अधीनता स्वीकार नहीं की हो। मैं आपके स्वामी दैत्यराज बलि से भी यह कहने आया हूँ कि या तो मेरी अधीनता स्वीकार करें अथवा मुझसे युद्ध करें।"
एक युवा योद्धा को इस प्रकार बोलते देख कर उस वृद्ध दैत्य ने कहा - "क्या तुम्हे ये नहीं पता कि पाताल का साम्राज्य महाराज को स्वयं श्रीहरि ने प्रदान किया था और यहाँ महाराज बलि के अतिरिक्त किसी और की सत्ता हो ही नहीं सकती। और अपने बल के मद में जो तुम बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो, क्या तुममे वास्तव में महाराज बलि का सामना करने का सामर्थ्य है?"
तब रावण ने रुष्ट होते हुए कहा - "अग्रज! आप आयु में मुझसे बहुत बड़े हैं इसी कारण मैं आपका वध नहीं करता अन्यथा मेरी शक्ति पर संदेह करने वाले का मैं तत्काल शिरच्छेद करता हूँ। क्या आपने नहीं देखा कि मैंने किस प्रकार थोड़े ही समय में आपके कई योद्धाओं का वध किया है? किन्तु आपसे उलझ कर क्या लाभ? अतः जाइये और अपने स्वामी महाराज बलि से कहिये कि लंकापति रावण उन्हें ललकार रहा है। अगर उनमे साहस हो तो आकर मुझसे द्वन्द करें।"
ये सुनकर उस वृद्ध दैत्य ने रावण से कहा - "हे वीर! मुझे तुम्हारी वीरता पर को संदेह नहीं है किन्तु तुम कदाचित महाराज बलि की शक्ति से परिचित नहीं हो। उन्होंने समुद्र मंथन के समय देवताओं और दैत्यों के थक जाने पर अकेले ही नागराज वासुकि सहित पूरे मंदराचल पर्वत को घुमा दिया था। किन्तु अगर तुम्हे तुम्हारी पराजय इतनी ही प्रिय है तो तनिक विश्राम करो। महाराज अभी पूजा में बैठे हैं। मैं उन्हें जाकर तुम्हारा निवेदन सुनाता हूँ, वे शीघ्र ही तुम्हे दर्शन देंगे।" ये कहकर वो दैत्यराज बलि को बुलाने अंतःपुर में चला गया और रावण वही उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा।
थोड़ी देर के पश्चात दैत्यराज बलि वहाँ आये। उनका तेज देख कर रावण भी हतप्रभ रह गया। दैत्यराज ने प्रसन्नतापूर्वक रावण को गले लगते हुए कहा - "वाह वत्स! तुम्हारे जैसे वीर को अपने कुल में देख कर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। मेरे पूर्वज महर्षि मरीचि तुम्हारे पितामह महर्षि पुलत्य के बड़े भाई हैं। इस प्रकार तुम मेरे सम्बन्धी ही हुए। किन्तु तुम मुझसे युद्ध क्यों करना चाहते हो? एक समय ये समस्त पृथ्वी और स्वर्गलोग भी मेरे ही अधीन था जिसे मैंने भगवान वामन को दान कर दिया। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हे स्वतः ही पाताल का राज्य प्रदान कर सकता हूँ।"
इसपर रावण ने कहा - "हे महाराज! मुझे आपका आशीर्वाद और दर्शन पाकर अत्यंत हर्ष हो रहा है किन्तु मैं एक योद्धा हूँ और दान में लिया गया राज्य स्वीकार नहीं कर सकता। आज पृथ्वी पर मेरे अतिरिक्त और कोई चक्रवर्ती सम्राट नहीं है और मैं चाहता हूँ कि पाताल लोक भी मेरे अधीन हो जाये। इसीलिए या तो आप मेरी अधीनता स्वीकार कीजिये अन्यथा मुझसे युद्ध कर मुझे पराजित कीजिए।"
ये सुनकर बलि ने हँसते हुए कहा - "अच्छा ठीक है। अगर तुम्हे युद्ध की इतनी ही इच्छा है तो जरा वहाँ रखा मेरा कवच ला दो।" तब रावण सोच में पड़ गया कि एक राजा होते हुए वो कैसे किसी का कवच उठा सकता है। तब उसे चिंतित देख कर बलि ने हँसते हुए कहा - "अरे वत्स! संकोच ना करो। मैंने तो तुम्हारे नाना सुमाली, माली और माल्यवान का बचपन भी देखा है और उनके पिता सुकेश मेरे मित्र भी थे। अतः तुम तो मेरे लिए बालक समान ही हो। अगर बड़ों की सेवा भी करनी पड़े तो वो लाभदायक ही होता है। अतः अधिक विचार ना करो और मुझे मेरा कवच लाकर दे दो।"
ये सुनकर रावण वही रखे दैत्यराज बलि के कवच के पास गया और उसे उठाना चाहा। किन्तु आश्चर्य! विश्वविजयी रावण जिससे देवता भी भय खाते थे, उस कवच को हिला भी ना पाया। दूसरी ओर बलि बैठे मुस्कुराते रहे। ये देख कर रावण ने एक बार फिर पूरी शक्ति लगाकर उस कवच को उठाना चाहा किन्तु वो उसे उठा नहीं सका। ये देख कर बलि हँसते हुए वहाँ आये और उन्होंने स्वयं अपना कवच पहना। उसके बाद उन्होंने रावण से कहा - "हाँ पुत्र, मैं तैयार हूँ। बोलो तुम किस शस्त्र से युद्ध करना पसंद करोगे?"
अब तक रावण का अभिमान चूर-चूर हो चुका था। उसे समझ में आ गया कि जब वो महाबलि का कवच भी नहीं उठा पाया तो उन्हें युद्ध में कैसे परास्त कर सकता है? उसने बलि को प्रणाम किया और उनसे अपनी धृष्टता की क्षमा माँगी। बलि ने सहर्ष उसे क्षमा कर दिया और फिर रावण बहुत काल तक दैत्यराज बलि का अतिथि बन कर रहा। बाद में रावण के अनुरोध पर बलि ने अपनी पुत्री वज्रज्वला का विवाह रावण के छोटे भाई कुम्भकर्ण से किया जिससे दैत्य और राक्षस कुल संबंधों की डोर में बंध गया।
रावण का मानमर्दन श्रृंखला:
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