रावण संहिता

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि रावण में चाहे जैसे भी अवगुण हों पर वो अपने समय का सबसे महान पंडित था। मातृकुल से राक्षस होने के बाद भी वो ब्राह्मण कहलाया क्यूंकि उसका पितृकुल ब्राह्मण था। वो परमपिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि पुलत्स्य का पौत्र और महर्षि विश्रवा पुत्र था। तो जो व्यक्ति इतना बड़ा पंडित हो वो अपना ज्ञान विश्व को अवश्य देना चाहता है। इसी कारण रावण ने कई ग्रंथों की रचना की जिसमे से 'शिवस्त्रोत्रताण्डव' एवं 'रावण संहिता' प्रमुख है। इस लेख में हम रावण द्वारा रचित महान ग्रन्थ रावण संहिता के विषय में जानेंगे।

रावण संहिता विशेष रूप से कर्म फल को बताती है। अर्थात इसमें मनुष्यों के कर्म फल का लेखा जोखा है। ये पुस्तक मुख्यतः ज्योतिष और तंत्र-मन्त्र पर आधारित है जो आपके सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति का मार्ग बताती है। यहाँ एक बात विशेष रूप से बोलना चाहूँगा कि रावण संहिता में समस्त दुखों को मिटाने के किसी ज्योतिष एवं तांत्रिक उपाय (टोने-टोटके) का वर्णन मैं इस लेख में नहीं करूँगा क्यूंकि इस लेख का मुख्य उद्देश्य रावण संहिता के महत्त्व के बारे में हैं ना कि उसमे दिए गए उपायों के विषय में। अगर कोई उन उपायों के विषय में जानना चाहता हो तो वो गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित वृहद् रावण संहिता पढ़ सकता है। 

लेकिन रावण संहिता में क्या है इसे जानने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में जाना होगा अन्यथा हमें इसका सन्दर्भ समझ में नहीं आएगा। जब रावण को अपने नाना सुमाली से राक्षस कुल के दुर्दशा के विषय में पता चला तो उसने शक्ति प्राप्त करने के लिए अपने भाई कुम्भकर्ण एवं विभीषण के साथ परमपिता ब्रह्मा की घोर आराधना। ब्रह्मदेव के प्रसन्न होने पर उसने अमरता का वरदान माँगा पर ब्रह्माजी ने मना कर दिया। तब उसने वरदान माँगा कि देव, दैत्य, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर और अन्य कोई जाति उसका वध ना कर सके। इस वरदान में उसने अभिमान वश मानव एवं वानर जाति का उल्लेख ये सोच कर, कि उनका बल ही क्या है, नहीं किया। ब्रह्मदेव ने वरदान दिया और अंतर्धान हो गए।

उसके बाद अभिमानवश वो महादेव से युद्ध कर बैठा और पराजित हुआ। कैलाश को उठाने के प्रक्रिया में उसके हाँथ कैलाश के नीचे दब गए और उसे अपार कष्ट हुआ। उस कष्ट से मुक्ति पाने हेतु उसने महारुद्र की १०० वर्षों (कहीं-कहीं १००० वर्षों का भी विवरण है) तक प्रार्थना की। वही प्रार्थना जो उसने छंदों के रूप में की, 'शिवस्त्रोत्रताण्डव' कहलाया। शिव प्रसन्न हुए और उसे अतुल बल प्रदान किया। तब उसने कहा कि 'प्रभु! मैं आपसे युद्ध करने की भूल अज्ञानता में कर बैठा और तब समझ में आया कि ज्ञान ही सबसे बड़ा मित्र है। इसीलिए मैं इस संसार का समस्त ज्ञान अर्जित करना चाहता हूँ।' तब शिव ने उसे फिर से तपस्या करने को कहा।

उनके आदेशानुसार उसने इतनी घोर तपस्या की कि एक-एक करके दस बार अपना शीश उसने महादेव को अर्पण कर दिया। तब महादेव प्रसन्न हुए और उसे दस शीश प्रदान किये जिस कारण वो दशानन कहलाया। फिर महादेव ने उसे विश्व का समस्त ज्ञान देना आरम्भ किया और पहले चार मुख से उसने चार वेद और फिर अन्य छः मुख से उसने छः शास्त्रों का ज्ञान महादेव से अर्जित किया। इस प्रकार वो विश्व का पहला प्राणी बना जिसने एक साथ चारो वेदों और छः शास्त्रों का ज्ञान अर्जित किया। उसके बाद उन्ही दस मुख से वो एक साथ निरंतर वेदों और शास्त्रों का का पठन-पाठन किया करता था।

इस प्रकार सभी प्रकार से अजेय होकर वो राज्य कर रहा था कि एक दिन आकाशवाणी हुई कि उसकी मृत्यु एक मानव के हाथों होगी। वो मानव कौन है ये जानने के लिए उसने फिर महादेव की तपस्या की। उनके प्रसन्न होने पर उसने वरदान माँगा कि उसे इस पृथ्वी पर उपस्थित समस्त प्राणियों के तीन जन्मों (भूत, वर्तमान और भविष्य) का ज्ञान हो जाये। महारुद्र ने उसे ये वरदान दिया। 

तब उसी ज्ञान से उसे पता चला कि भविष्य में दशरथ के होने वाले पुत्र राम के हाथों उसकी मृत्यु होगी। इसी कारण उसने हर प्रयास किया कि श्रीराम का जन्म ही ना हो। इसके लिए ऐसा वर्णन है कि उसने महारानी कौशल्या का विवाह मंडप से अपहरण भी कर लिया। किन्तु उसके सभी प्रयासों के बाद भी दशरथ और कौशल्या का विवाह हुआ और श्रीराम का जन्म हुआ। कहा जाता है कि रावणको को पता था कि उसकी मृत्यु श्रीराम के हाथों ही होगी इसी कारण उसने जान-बूझ कर सीता का हरण किया ताकि उसे शीघ्र मुक्ति मिल सके।

जब रावण को समस्त प्राणियों के तीन जन्मों का ज्ञान हुआ तो उसे अपने जन्म के बारे में भी पता चला। उसे पता चला कि उसकी माता कैकसी पुत्र प्राप्ति हेतु ऋतुस्नान कर संध्या समय अपने पति महर्षि विश्रवा के पास पहुँची। उसकी इच्छा देख कर विश्रवा ने कैकसी को समझाया कि संध्या समय भगवत्पूजन का होता है अतः इस समय संसर्ग उचित नहीं है किन्तु स्त्रीहठ के समक्ष उनकी एक ना चली। 

तब विश्रवा ने विवश होकर अनुचित काल में अपनी पत्नी के साथ संसर्ग किया जिस कारण नवग्रह रुष्ट हो अमंगलकारी भाव में स्थित हो गए और इसी कारण रावण में राक्षसी गुण अधिक था और वो अमर नहीं बन सका। अपने जन्म के विषय में जान कर रावण ने ये निश्चय किया कि जो उसके साथ हुआ है वो उसके पुत्र के साथ नहीं होगा। उस समय मंदोदरी गर्भवती थी और रावण ने वो ज्योतिष उपाय करने का निश्चय किया जो रावण संहिता का मूल है।

अपनी मृत्यु का कारण जानने के बाद उसने उसे बदलने का निश्चय किया। वो महान योद्धा था। नारायणास्त्र को छोड़कर विश्व के सभी दिव्यास्त्र उसके पास थे (हालाँकि पाशुपतास्त्र उसके लिए उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ)। उसके बल का ऐसा प्रताप था कि युद्ध में उसने यमराज को भी पराजित किया और स्वयं नारायण के सुदर्शन चक्र को पीछे हटने पर विवश कर दिया। ब्रह्मा के वरदान से उसकी नाभि में अमृत था जिसके सूखने पर ही उसकी मृत्यु हो सकती थी। रूद्र के वरदान से उसका शीश चाहे कितनी बार भी काटो, उससे उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी। किन्तु इतना सब होने के बाद भी वो अजेय और अवध्य नहीं था। उसने निश्चय किया कि वो अपने पुत्र, जो अभी मंदोदरी के गर्भ में था, उसे अविजित और अवध्य बनाएगा।

भगवान शंकर से जो उसे ज्ञान और वरदान प्राप्त हुआ था, उससे उसने सभी नवग्रहों और ज्योतिष विज्ञान का गहन अध्यन किया। उसे ज्ञात हुआ कि अगर नवग्रह उसके अनुसार अपनी स्थिति बदल सकें तो वो मृत्यु को भी पीछे छोड़ सकता है। इसी कारण उसने इंद्र पर आक्रमण किया और अपनी अतुल शक्ति, वरदान, विद्या और पांडित्य के बल पर उसने नवग्रहों को अपने अधीन कर लिया। इस बीच मंदोदरी के प्रसव की घडी भी नजदीक आ गयी। जब रावण के पुत्र का जन्म होने ही वाला था, उसने सभी नवग्रहों को ये आदेश दिया कि वो उसके पुत्र की कुंडली के ११वें घर पर स्थित हो जाएँ। व्यक्ति की कुंडली का ११वां घर शुभता का प्रतीक होता है। यदि ऐसा हो जाता तो उसके होने वाले पुत्र की मृत्यु असंभव हो जाती।

रावण की आज्ञा अनुसार सभी ग्रह उसके होने वाले पुत्र की कुंडली के ११वें घर में स्थित हो गए। रावण निश्चिंत था कि अब इस मुहूर्त में उत्पन्न होने वाला उसका पुत्र अजेय होगा। किन्तु अंतिम क्षणों में, जब उसका पुत्र पैदा होने ही वाला था, शनिदेव उसकी कुंडली के ११वें घर से उठ कर १२वें घर में स्थित हो गए। प्राणी की कुंडली का १२वां घर अशुभ लक्षणों का प्रतीक है। ठीक उसी समय रावण के पुत्र का जन्म हुआ जिसे देख कर बादल घिर आये और बिजली चमकने लगी। इसी कारण रावण ने उसका नाम 'मेघनाद' रखा। अंत समय में शनिदेव के १२वें घर में स्थित होने के कारण मेघनाद महाशक्तिशाली तो हुआ किन्तु अल्पायु और वध्य रह गया।

रावण हर तरह से निश्चिंत था किन्तु जब उसने अपने राजपुरोहित से अपने पुत्र की कुंडली बनाने को कहा तब उसे पता चला कि शनिदेव ने उसकी आज्ञा का उलंघन किया है। उसे अपार दुःख हुआ और उसने ब्रह्मदण्ड की सहायता से शनि को परास्त कर बंदी बना लिया। कहा जाता है कि रावण के दरबार में नवग्रह सदैव उपस्थित रहते थे किन्तु शनिदेव से विशेष द्वेष के कारण उन्हें रावण सदैव अपने चरण पादुकाओं के स्थान पर रखता था। बाद में लंका दहन के समय महाबली हनुमान ने शनिदेव को मुक्त करवाया। खैर वो कथा बाद में।

अब स्वयं के सामान रावण ने मेघनाद को भी रूद्र का कृपापात्र बनाया। उसका पराक्रम देख कर स्वयं भगवान शंकर ने उसे रावण से भी महान योद्धा बताया। वही एक योद्धा था जिसके पास तीनों महास्त्र (ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र) सहित संसार के समस्त दिव्यास्त्र थे। इसी कारण वही आज तक का एक मात्र योद्धा बना जिसे अतिमहारथी होने का गौरव प्राप्त हुआ। उसी बल पर उसने देवराज इंद्र को परास्त किया और इंद्रजीत कहलाया। उसे कुछ विशेष वरदान भी प्राप्त हुए जिससे वो एक प्रकार से अवध्य हो गया किन्तु उन वरदानों को लक्ष्मण ने संतुष्ट किया और आखिरकार उसका वध किया। उसके विषय में आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं।

जब रावण अपने पुत्र को मनचाहा भविष्य ना दे सका तो वो ये समझ गया कि परमपिता ब्रह्मा के विधि के विधान को कोई बदल नहीं सकता। तब उसने ये निश्चय किया कि वो राक्षस जाति के लिए कुछ ऐसे विधान और उपायों का निर्माण करेगा जिससे उनके समस्त दुःख दूर हो जाएँ। इसी लिए उसने जो भी विद्या प्राप्त की थी उनकी रचना अचूक उपायों के साथ एक ग्रन्थ के रूप में की। उसके बाद ये ज्ञान लोप ना हो जाये इसी कारण उसने इन उपायों को स्वयं मेधनाद द्वारा लिपिबद्ध करवाया ताकि ये ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी राक्षस जाति को मिलता रहे। यही लिपिबद्ध पुस्तक 'रावण संहिता' के नाम से प्रसिद्ध हुई।

ये भी कहा जाता है कि जब अंत समय में लक्ष्मण रावण के पास शिक्षा लेने गए तो रावण ने उन्हें इस ग्रन्थ के उपायों की भी शिक्षा दी। जब तक रावण जीवित रहा ये महान ग्रन्थ केवल राक्षस जाति तक सीमित रहा किन्तु विभीषण के राजा बनने के पश्चात श्रीराम की आज्ञा से उसने मानवमात्र के कल्याण के लिए उस रहस्यमयी और दुर्लभ ज्ञान को मनुष्यों को प्रदान किया। ऐसा भी वर्णन है कि रावण ने रावण संहिता का जो ज्ञान लक्ष्मण को दिया था, उन्होंने ही उसे अनुवाद कर अयोध्या में रख लिया जहाँ से इसका बाद में प्रचार प्रसार हुआ।

तो अगर संक्षेप में समझा जाये तो रावण संहिता एक ऐसी पुस्तक है जिसमे मनुष्यों के कर्म फल के अनुसार होने वाले दुखों और उससे मुक्ति का उपाय है। कुछ उपाय बहुत सरल हैं (जैसे सौभाग्य के लिए गौमाता को भोजन कराने का उपाय) किन्तु कुछ उपाय अत्यंत कठिन हैं जिसे साधक अत्यंत कठिन साधना के बाद ही सिद्ध कर सकता है। कहा जाता है कि नागा साधु बनने की प्रक्रिया भी रावण संहिता से ही प्रेरित है। यही नहीं, महर्षि भृगु द्वारा रचित भृगु संहिता, जिसे आज कल 'लाल किताब' कहते हैं, वो भी रावण संहिता से प्रेरित और मिलती जुलती है। इसी कारण दोनों पुस्तकों में कई उपाय हैं जो समान हैं।

कहते हैं कि समय के साथ-साथ विद्वानों ने रावण संहिता के सर्वाधिक चमत्कारी उपायों को जान बूझ कर मिटा दिया गया अन्यथा कलियुग में मानव उसका दुरुपयोग करता। कहा जाता है कि अगर वो लुप्त विद्या और तंत्र साधना के उपाय आज किसी को मिल जाएँ तो वो उनकी शक्ति से भविष्य को भी पलट सकता है। 

यही कारण है कि आज कल प्रकाशित होने वाली रावण संहिता में आपको उन गुप्त रहस्यों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलेगी क्यूंकि वो किसी को भी ज्ञात नहीं है। हालाँकि इस पुस्तक में लिखे उपायों से मनुष्य अपने कष्टों को मिटा सकता है किन्तु उन उपायों को किसी योग्य गुरु की छत्र-छाया में ही सिद्ध करना चाहिए अन्यथा विपरीत परिणाम मिल सकते हैं। साथ ही रावण संहिता को घर में रखने की भी मनाही की गयी है। खैर, बात चाहे जो भी हो, इसमें कोई शंका नहीं है कि रावण ने हमें रावण संहिता के रूप में अमूल्य ज्ञान का खजाना दिया है जिसे हमें मानव कल्याण के लिए उपयोग करना चाहिए।

6 टिप्‍पणियां:

  1. मान्यवर
    आपका हारदिक आभारी हूं ।
    इस सूचना हेतु आपका धन्यवाद।
    मैने ही यह सूचना एक अन्य मित्र के फोन से आपके ग्रुप में मागी थी ।
    शिवकुमार खत्री
    हापुड़

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    1. आपका धन्यवाद। आपके अनुरोध के कारण मुझे भी बहुत कुछ नया जानने को मिला। इसका दूसरा और अंतिम भाग कल धर्मसंसार पर पढ़ना ना भूलें।

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  2. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  3. आप पर सदैव रामजी की कृपा बनीं रहे!

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