रामायण का 'लंका दहन' प्रसंग उसके सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रसंगों में से एक है। आम धारणा है कि जब रावण ने महाबली हनुमान को बंदी बना कर उनकी पूछ में आग लगा दी तब उसी जलती हुई पूछ से हनुमान ने पूरी लंका में आग लगा दी। इससे पूरी लंका खण्डहर हो गयी जिसे बाद में रावण ने पुनः अपने स्वर्ण भंडार से पहले जैसा बसाया। हालाँकि इसके विषय में एक कथा हमें वाल्मीकि रामायण के साथ-साथ अन्य भाषाओँ की रामायण में भी मिलती है। इसके बारे में जो कथा प्रचलित है वो बजरंगबली और शनिदेव के संबंधों को भी दर्शाती है।
रामायण एवं रावण संहिता के अनुसार रावण ने नवग्रहों को अपने आधीन कर रखा था किन्तु रावण का सर्वाधिक क्रोध शनिदेव पर था क्यूंकि शनि ने ही मेघनाद के जन्म के समय अपनी दिशा बदल दी थी। रावण को शनिदेव पर इतना क्रोध था कि वो सदैव उन्हें राजसभा में अपनी पादुकाओं के नीचे रखता था। शनिदेव भी महान शक्तिशाली थे किन्तु रावण को प्राप्त अनेकानेक वरदानों के आगे वो भी विवश थे।
तो कथा इस प्रकार है कि जब हनुमान ने लंका में आग लगाई तो समस्त नगर धू-धू कर जलने लगा। किन्तु इसका जो परिणाम हनुमान जी ने सोचा था उसका ठीक उल्टा हुआ। उन्होंने सोचा था कि इस भीषण अग्निपात से लंका का नामों निशान मिट जाएगा। किन्तु पूरी लंका स्वर्ण की बनी थी। ये तो सभी जानते हैं कि स्वर्ण को जितना तपाया जाता है वो उतना ही निखर जाता है। ठीक ऐसा ही लंका के साथ हुआ। उस भीषण अग्निपात के कारण समस्त नगरी पहले से भी अधिक चमकने लगी और उसका सौंदर्य पहले से भी अधिक बढ़ गया।
महावीर हनुमान ये देख कर बड़े चकित हुए। उन्होंने ये नहीं सोचा था कि उनके श्रम और पराक्रम का ये परिणाम होगा। उसी उधेड़ बुन में वे समस्त लंका में घूमने लगे। घूमते-घूमते वे रावण के राजभवन पहुँचे और वहां उन्होंने देखा कि एक अति तेजस्वी देवपुरुष रावण के सिंहासन के नीचे पाश में जकड़े पड़े हैं। उन्होंने उनसे उनका परिचय पूछा तो उन्होंने बताया कि वे सूर्यपुत्र शनि हैं।
उनका परिचय जानकर हनुमान ने अपने गुरुभाई को प्रणाम किया और उनसे पूछा कि उनकी ऐसी अवस्था किसने की। इस पर शनिदेव ने उन्हें बताया कि किस प्रकार रावण ने नवग्रहों सहित उन्हें भी बंदी बना रखा है। तब महाबली हनुमान ने अपने अतुल बाहुबल से शनिदेव को मुक्त करवाया। उन्हें मुक्त करने के बाद हनुमान ने उनसे पूछा कि उनके इतने प्रयास करने के बाद भी लंका को नुकसान नहीं हुआ। इसके उलट आग में तपने से सोने की लंका और चमक उठी है। उन्होंने शनिदेव से पूछा कि क्या ऐसा कोई उपाय है जिससे ये सोने की लंका नष्ट हो जाये।
तब शनिदेव ने कहा - 'हे महावीर! आपने मुझे रावण की कैद से स्वतंत्र करवाया है इसी कारण मैं आपकी सहायता अवश्य करूँगा। मैं आपको वरदान देता हूँ कि आज से जो कोई भी आपका भक्त होगा, उसपर मैं अपनी कुदृष्टि नहीं डालूँगा। आपका भक्त आपके साथ-साथ मुझे भी प्रिय होगा।' फिर उन्होंने कहा कि - "लंका से ४ योजन दूर एक पर्वत है। आप कृपया मुझे उसके शिखर पर पहुँचा दें।"
शनिदेव के आग्रह पर हनुमान जी ने उन्हें अपनी पीठ पर बिठा कर वहाँ से ४ योजन दूर एक पर्वत के शिखर पर पहुँचा दिया। फिर शनिदेव ने हनुमान से कहा - "हे महाबली! अब आप यहाँ से कहीं दूर चले जाएँ क्यूंकि अब मैं अपनी कुदृष्टि लंका पर डालने वाला हूँ और मैं नहीं चाहता कि मेरी कुदृष्टि का कोई दुष्परिणाम आपको भोगना पड़े।" शनिदेव की ये बात सुनकर हनुमान लंका की उलटी दिशा में ८ योजन और दूर चले गए।
उनके जाने के बाद शनिदेव ने उस पर्वत शिखर से अपनी कुदृष्टि जलती हुई लंका पर डाली। उनकी कुदृष्टि पड़ते ही स्वर्ण लंका अपनी कान्ति खो कर काली पड़ गयी। जब हनुमान ने ये चमत्कार देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्न होकर शनिदेव से कहा - "हे शनिदेव! आज से आपका जो भी भक्त आपके साथ-साथ मेरी भी पूजा करेगा उसे मेरी कृपा स्वतः ही प्राप्त हो जाएगी।" तभी से हनुमान और शनि की पूजा साथ करने का विधान है। जो भी मनुष्य दोनों में से किसी की भी पूजा करता है उसे दूसरे का आशीर्वाद स्वतः ही मिल जाता है। जय हनुमान। जय शनिदेव।
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