पुराणों में पवनदेव की महत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इंद्र, अग्नि, वरुण इत्यादि देवताओं के साथ पवनदेव भी मुख्य एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध देताओं में से एक हैं। पवन को बल का भी प्रतीक माना जाता है क्यूंकि इसकी शक्ति के सामने बड़े-बड़े पर्वत भी नहीं टिक पाते। उल्लेखनीय है कि रुद्रावतार महावीर हनुमान और पाण्डवपुत्र महाबली भीमसेन भी पवन के ही अंशावतार थे।
सृष्टि में जीवन के लिए पवन का प्रवाह भी अति आवश्यक है। इसीलिए इसे प्राणवायु भी कहा जाता है क्यूंकि ये जीवों में जीवन का संचार करती है। पवन वैसे तो एक शब्द है लेकिन इसके भी कई प्रकार होते हैं। भौगोलिक रूप से तो पवन के कई प्रचलित प्रकार हैं जैसे व्यापारिक, पछुआ, ध्रुवीय इत्यादि किन्तु पौराणिक रूप से भी इसे ७ भागों में बांटा गया है। आइये इसके बारे में जानते हैं:
- प्रवह: पृथ्वी के ऊपर मेघ मंडल तक जो वायु स्थित है उसका नाम प्रवह है। इसका नाम प्रवह इस कारण है क्यूंकि इसका प्रवाह बहुत तीव्र होता है। यह वायु अत्यंत वेगशील और शक्तिशाली मानी जाती है। मेघों को अपने वेग और शक्ति से यही वायु उड़ा कर इधर-उधर ले जाती है। यही नहीं, मेघों में जो जल होता है वो भी इसी पवन की देन होता है। तो एक तरह से इसी पवन के कारण पृथ्वी पर जल की उपलब्धता होती है। मानव के जीवन को ये पवन सर्वाधिक प्रभावित करती है।
- आवह: इस पवन का सम्बन्ध सूर्यमण्डल से है। सूर्यमण्डल में जो भी चीजें गतिमान हैं, ये उसके पीछे की शक्ति मानी जाती है।
- उद्वह: इसका सम्बन्ध चंद्रलोक से है और वहाँ की सभी गतिमान चीजों का कारण यही पवन है।
- संवह: इस वायु का सम्बन्ध नक्षत्रमण्डल से होता है। उसी के ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
- विवह: नक्षत्रमंडल के ऊपर जो ग्रहमंडल है, ये पवन उससे सम्बंधित है। यही वहाँ की हर चल वस्तु का कारण है।
- परिवह: वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। कहा जाता है कि इसी पवन की शक्ति से सप्तर्षि विश्व में स्वछन्द विचरण करते हैं।
- परावह: ध्रुव क्षेत्र में आबद्ध पवन को परावह कहते है। ऐसी मान्यता है कि इसी पवन के कारण ध्रुव सदैव अपने स्थान पर स्थित रह अन्य ग्रहों को चलायमान रखता है।
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