ब्रह्मा पुत्र मनु के एक पुत्र हुए जिनका नाम था इला। इला को पुरुष तथा स्त्री दोनों माना जाता है। अपने स्त्री रूप में इला ने चन्द्रमा और तारा (बृहस्पति की पत्नी) के अवैध पुत्र बुध से विवाह किया। इन्ही दोनों के पुत्र पुरुरवा हुए जिन्हे पुरुवंश का जनक माना जाता है। इन्ही के पुत्र आयु हुए, आयु के पुत्र नहुष और नहुष के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट ययाति हुए जिनके पुत्रों से ही आगे समस्त कुल चले। पुरुरवा ने देवराज की सर्वश्रेठ अप्सरा उर्वशी से विवाह किया। इस तरह से उर्वशी पुरुवंश की राजमाता बनी। कुरुवंश के बारे में विस्तार से एक लेख धर्म संसार पर पहले ही प्रकाशित हो चुका है।
इसी का वर्णन करते हुए शताब्दियों बाद पाण्डुपुत्र अर्जुन उर्वशी के प्रणय याचना को ये कहते हुए ठुकरा देते हैं कि वे उनके पूर्वज पुरुरवा की पत्नी थी इसी कारण वे उनके लिए माता सामान है। अर्जुन के द्वारा इस प्रकार अपमानित होने पर उर्वशी उसे नपुंसक होने का श्राप दे देती है। हालाँकि बाद में ये श्राप अर्जुन के काम ही आता है जब उन्हें अज्ञातवास बिताना होता है। इस बारे में अर्जुन कहते हैं कि माता द्वारा क्रोध में दिया गया श्राप भी पुत्रों का भला ही करता है।
इनकी कथा तब आरम्भ होती है जब एक बार उर्वशी देवराज इंद्र की आज्ञा लेकर धरती की यात्रा पर आयी। उसे पृथ्वी का वातावरण इतना मोहक लगा कि वो कुछ काल तक वही पर रुक गयी। एक दिन वो एक वन में विचरण कर रही थी तभी वहाँ एक राक्षस आ गया। जब उसने उर्वशी को देखा तो कामांध हो गया। ऐसी सुन्दर स्त्री उसने आज तक देखी ना थी। उसने उर्वशी से प्रणय याचना की किन्तु उस राक्षस का भयानक मुख देख कर उर्वशी वहाँ ये भाग निकली। इसे अपना अपमान जान कर उस राक्षस ने उर्वशी का अपहरण कर लिया और जबरन अपने साथ ले जाने लगा। स्वयं को संकट में देख कर उर्वशी उच्च स्वर में अपनी रक्षा की गुहार लगाने लगी।
उसी समय आर्यावर्त के अधिपति महाराज पुरुरवा वही से गुजर रहे थे। जब उन्होंने एक स्त्री के चिल्लाने का स्वर सुना तो उसी ओर भागे। आगे जाकर उन्होंने देखा कि एक राक्षस एक स्त्री का हरण कर उसे बलात अपने साथ ले जा रहा है। वे क्षत्रिय थे, उसपर से राजा सो प्रजा की रक्षा करना उनका धर्म था। उन्होंने उस राक्षस को रोका और उर्वशी को स्वतंत्र करने को कहा। किन्तु जब राक्षस नहीं माना तो दोनों में भयानक युद्ध हुआ। वो राक्षस पुरुरवा के सामर्थ्य को पार ना कर पाया और अंततः उस युद्ध में पुरुरवा ने उस राक्षस का वध कर दिया।
उसके बाद पुरुरवा ने वही अचेत पड़ी उर्वशी को उठाया। एक परपुरुष का स्पर्श पाकर उर्वशी की चेतना लौटी। उस समय उर्वशी से सुन्दर स्त्री त्रिलोक में कोई और नहीं थी और दूसरी और महाराज पुरुरवा भी पुरुषश्रेष्ठ थे। दोनों ने तत्काल एक दूसरे को अपना ह्रदय दे दिया। किन्तु दोनों की अपनी एक मर्यादा थी। पुरुरवा उस समय नरेश थे और और परस्त्री को अपनी भावना बताना उन्हें उचित ना लगा। दूसरी ओर उर्वशी पृथ्वी की थी ही नहीं और से पता था कि अंततः उसे वापस स्वर्गलोक लौटना ही है। यही कारण था कि दोनों एक दूसरे से प्रेम करने के बाद भी अपनी भावनाएं एक दूसरे को ना बता पाए।
पुरुरवा का धन्यवाद अदा कर उर्वशी भरे मन से वापस स्वर्गलोक लौट गयी। दोनों पृथक तो हो गए किन्तु अब उनके लिए ये विरह असहनीय हो गया। किन्तु अब किया ही क्या जा सकता था? इसी बीच एक दिन स्वर्ग में एक प्रहसन (नाटक) रचा गया जिसमे भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कथा कही जानी थी। इस प्रहसन में उर्वशी को माता लक्ष्मी की भूमिका निभानी थी। प्रहसन आरम्भ हुआ किन्तु उर्वशी का मन उसमे नहीं था। उसे उस समय भी पुरुरवा का ही ध्यान था। इसी भटकाव के कारण उर्वशी ने प्रहसन में माता लक्ष्मी के स्वामी भगवान विष्णु के नाम की जगह पुरुरवा का नाम ले लिया।
यह देखकर नाटक को निर्देशित कर रहे भारत मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने उर्वशी को शाप देते हुए कहा कि एक मानव की तरफ आकर्षित होने के कारण तुझे पृथ्वीलोक पर ही रहना पड़ेगा और मानवों की तरह संतान भी उत्पन्न करना होगा। उर्वशी के लिए तो ये श्राप जैसे वरदान साबित हुआ। पृथ्वी पर आने के बाद वो पुरुरवा से मिली जो पहले से ही सदैव उसी का स्मरण करते रहते थे। जब पुरुरवा को उर्वशी के श्राप के विषय में पता चला तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। दोनों का प्रेम अंततः सफल रहा और दोनों ने विवाह कर लिया।
विवाह करने से पूर्व उर्वशी ने पुरुरवा से कहा कि उसकी तीन शर्तें हैं और अगर पुरुरवा उन्हें वचन देंगे कि वे उनकी तीन शर्तों को मानेंगे तभी उन दोनों का विवाह संभव है। पुरुरवा तो किसी भी स्थिति में उर्वशी से विवाह करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने कहा कि वो जो कोई भी शर्त रखना चाहे रख सकती है। उनसे आश्वासन मिलने के बाद उर्वशी ने कहा:
- "मेरे पास २ बकरियाँ हैं जो मुझे अत्यंत प्रिय हैं। ये सदैव मेरे साथ रहती हैं। आपको सदैव मेरे साथ-साथ इनकी भी रक्षा करनी होगी।"
- "मैं सदैव घी का ही सेवन करुँगी।"
- "केवल और केवल सहवास के समय हम एक दूसरे को नग्न देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप मेरे समक्ष कभी भी, किसी भी परिस्थित में नग्न ना आएं।"
महाराज पुरुरवा ने उसकी तीनों शर्तें मान ली। फिर उर्वशी ने कहा - 'हे महाराज! अगर आपने इनमे से कोई एक भी शर्त तोड़ दी तो मैं उसी समय आपको छोड़कर वापस स्वर्ग लौट जाऊँगी।' ये सुनकर पुरुरवा ने उसे आश्वासन दिया कि वे उसकी तीनों शर्तों का सदैव ध्यान रखेंगे। इसके बाद दोनों ने विधिवत रूप से विवाह कर लिया। दोनों जो चाहते थे वो उन्हें मिला और दोनों सुख पूर्वक जीवन बिताने लगे। इस प्रकार बहुत काल बीत गया। महाराज पुरुरवा सदैव उर्वशी की उन तीन बातों का ख्याल रखते थे और उर्वशी भी सदैव उन्हें हर प्रकार से संतुष्ट रखती थी।
उधर स्वर्गलोक का हाल बुरा था। जब उर्वशी को श्राप मिला तब तो इंद्र ने ये सोच कर कुछ नहीं कहा कि उर्वशी कुछ काल में ही पृथ्वी लोक में रहते-रहते परेशान हो जाएगी और वापस स्वर्ग लौट आएगी, किन्तु उर्वशी तो पृथ्वी जाकर बस ही गयी। उसके बिना स्वर्गलोक की आभा कम हो गयी और देवराज को भी अपनी प्रिय अप्सरा की याद सताने लगी। वे किसी भी मूल्य पर उर्वशी को वापस लाना चाहते थे किन्तु तब तक उन्हें पता चल गया था कि उर्वशी पुरुरवा से प्रेम करती है और वो वापस नहीं आना चाहती। तब इंद्र ने एक छल करने का निश्चय किया।
देवराज को उर्वशी की शर्त के विषय में पता था। उन्होंने गंधर्वों को ये कार्य करने की आज्ञा दी। इंद्र की आज्ञा पर एक रात जब उर्वशी महाराज पुरुरवा की सेवा में जा रही थी उसी समय गंधर्वों ने उर्वशी की दोनों बकरियों को चुरा लिया। ये देख कर उर्वशी ने उनकी सुरक्षा के लिए पुरुरवा को गुहार लगाई। उस समय पुरुरवा निर्वस्त्र थे। उन्होंने सोचा कि यदि उन्होंने वस्त्र पहनने में विलम्ब किया तो चोर अवश्य उन बकरियों को ले जाएंगे और फिर उर्वशी उन्हें छोड़ कर चली जाएगी। उस समय गहन अंधकार था, हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। उन्होंने सोचा कि ऐसे तो उर्वशी उन्हें देख ही नहीं पायेगी और वे चोरों को भी पकड़ लेंगे।
यही सोच कर वे अपने पहले वचन की रक्षा के लिए बाहर भागे। ठीक उसी समय इंद्र ने स्वर्ग से बिजली चमका कर उजाला कर दिया और उर्वशी ने पुरुरवा को निर्वस्त्र देख लिया। इससे उर्वशी की शर्त टूट गयी और उर्वशी वापस स्वर्गलोक जाने के लिए तैयार हुई। जाते-जाते उर्वशी अपने ज्येष्ठ पुत्र आयु को भी साथ ले गयी किन्तु बाद में उसने कुरुक्षेत्र में पुरुरवा को उनका पुत्र सौप दिया। किन्तु अलग होने के बाद भी दोनों का प्रेम कम नहीं हुआ। वे दोनों उसके बाद एक साथ तो नहीं रह सके किन्तु बाद में भी उर्वशी कई घटनाक्रम की वजह से पृथ्वी पर आती रही और पुरुरवा से मिलती रही। इस कारण बाद में भी दोनों के कई पुत्र हुए। उर्वशी से पुरुरवा को आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि ९ पुत्र प्राप्त हुए।
पुरुरवा के बाद उनके पुत्र आयु को राज्य मिला और आयु के पश्चात उसके पुत्र नहुष ने सिंहासन संभाला। नहुष के पुत्र ययाति हुए और उन्ही के पांच पुत्रों से समस्त राजवंश चला। ययाति के छोटे पुत्र पुरु से पुरुवंश (कुरुवंश) चला जिसमे आगे चलकर कौरवों और पांडवों ने जन्म लिया। ययाति के बड़े पुत्र यदु से ही यदुवंश चला जिसमें आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया।
इंद्र के इस छल के कारण पुरुरवा इतने दुखी हुए कि उन्होंने ये प्रतिज्ञा की कि एक ना एक दिन उन्ही के कुल से कोई इंद्र को पदच्युत करेगा। उनकी ये प्रतिज्ञा पूर्ण हुई जब उनके पौत्र नहुष ने आगे चलकर इंद्र का पद ग्रहण किया। हालाँकि उसके घमंड और वासना ने अंततः उसे उस पद से च्युत कर दिया। वहीँ उर्वशी ने भी इस कारण इंद्र का कभी पहले जैसा सम्मान नहीं किया। इस प्रेम कथा के बारे में हमें अधिक नहीं बताया जाता किन्तु ये हिन्दू धर्म की सबसे पहली और पवित्र प्रेम कथाओं में से एक है।
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