रुक्मी महाभारत का एक प्रसिद्ध पात्र है जो विदर्भ के राजा महाराज भीष्मक का सबसे बड़ा पुत्र था। महाराज भीष्मक के पांच पुत्र थे - रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मकेतु, रुक्मबाहु एवं रुक्मनेत्र। इसके अतिरिक्त रुक्मिणी नाम की उनकी एक कन्या भी थी। रुक्मी युवराज था और विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर में अपने पिता की क्षत्रछाया में राज-काज संभालता था। बचपन से ही रुक्मी बहुत बलशाली और युद्ध विद्या में पारंगत था। किंपुरुष द्रुम उसके गुरु थे और उन्होंने रुक्मी को सभी प्रकार की युद्धकला में पारंगत किया था। इसके अतिरिक्त उसने भगवान परशुराम की कृपा से कई दिव्य अस्त्र भी प्राप्त किये थे। महाभारत में उसकी गिनती मुख्य रथियों में की जाती है।
उसके पिता महाराज भीष्मक जरासंध के मित्र थे और रुक्मी स्वयं चेदिनरेश शिशुपाल का मित्र था। वो अपनी छोटी बहन रुक्मिणी से अत्यंत प्रेम करता था और उसका विवाह आर्यावर्त के श्रेष्ठ नरेश से करना चाहता था। रुक्मिणी के लिए उसने शिशुपाल को योग्य वर माना और अपने इस निर्णय के विषय में अपने पिता भीष्मक को बताया। यद्यपि भीष्मक रुक्मिणी का स्वयंवर करवाने के पक्ष में थे किन्तु शिशुपाल कुलीन और वीर तो था ही, साथ ही साथ जरासंध का कृपापात्र भी था। इसी कारण भीष्मक को भी शिशुपाल के साथ रुक्मिणी के विवाह में कोई अड़चन दिखाई नहीं दी।
दूसरी और रुक्मिणी ने मन ही मन में श्रीकृष्ण को अपना पति मान लिया था। जब उसे पता चला कि उसके पिता और भाई रुक्मी ने शिशुपाल से उसका विवाह निश्चित करने का निर्णय लिया है तो उसने अपने पिता और रुक्मी को श्रीकृष्ण के बारे में बताया। रुक्मी कृष्ण को पसंद नहीं करता था। उसकी श्रीकृष्ण से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं थी किन्तु वो आर्यावर्त में कृष्ण के बढ़ते हुए प्रभाव से प्रसन्न नहीं था। एक तो श्रीकृष्ण के सामने वो अपना महत्त्व कम होते हुए नहीं देख सकता था और दूसरे वो रुक्मिणी का विवाह यादवकुल में नहीं करना चाहता था। इसीलिए जब उसे रुक्मिणी के निर्णय के बारे में पता चला तो उसने रुक्मिणी पर कड़ा प्रतिबन्ध लगा दिया। हालाँकि भीष्मक को रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करने में कोई आपत्ति नहीं थी किन्तु अपने पुत्र के हठ के कारण उन्हें उसकी बात माननी पड़ी।
उधर रुक्मिणी ने अपने एक दूत के हांथों एक पत्र श्रीकृष्ण के पास भिजवाया। उस पात्र में उन्होंने श्रीकृष्ण से सहायता मांगी। कृष्ण ने भी रुक्मिणी के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था और वैसे भी नियति ने तो उन दोनों का मिलन पूर्व निश्चित कर रखा था। उन्हें पता था कि रुक्मी के रहते वे रुक्मिणी से विवाह तो नहीं कर सकते इसी कारण उन्होंने रुक्मिणी के हरण का विचार किया। ये सोच कर वे अकेले अपने सारथि दारुक के साथ विदर्भ की और चल पड़े। उनके जाने के बाद जब बलराम को इसकी सूचना मिली तो वे बड़ा बिगड़े और तुरंत अपनी सेना लेकर कृष्ण के पीछे उनकी मदद को चल पड़े।
कुछ समय पश्चात शिशुपाल अपने दल-बल के साथ कुण्डिनपुर पहुँच चुका था। शिशुपाल और रुक्मिणी के विवाह का मुहूर्त तीन दिन बाद रखा गया। शिशुपाल स्वयं कृष्ण का बहुत बड़ा विरोधी था और जब उसे पता चला कि रुक्मिणी श्रीकृष्ण से प्रेम करती है तो वो बड़ा प्रसन्न हुआ। रुक्मिणी के साथ विवाह को उसने कृष्ण के विरुद्ध अपनी विजय ही माना और विवाह के दिन की प्रतीक्षा करने लगा।
उधर श्रीकृष्ण गुप्त रूप से कुण्डिनपुर पहुँच गए थे। विवाह के दिन नियम के अनुसार जब रुक्मिणी माँ पार्वती की पूजा करने मंदिर गयी तो वही से श्रीकृष्ण ने उनका अपहरण कर लिया। ये खबर आग की तरह फैली। जैसे ही रुक्मी को पता चला कि कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया है तो वो क्रोध से पागल हो गया। उसी उसने अपनी सेना को कृष्ण के पीछे जाने का आदेश दिया। उसी समय पता चला कि बलराम भी अपनी सेना लेकर कुण्डिनपुर पहुँच चुके हैं। ये समाचार मिलते ही शिशुपाल चेदि और विदर्भ की सेना लेकर बलराम का सामना करने गया और रुक्मी अकेला ही कृष्ण को रोकने निकल पड़ा।
बलराम ने कृष्ण से तुरंत द्वारका पहुँचने को कहा और अपनी सेना के साथ शिशुपाल से भिड़ गए। उधर कृष्ण तीव्र गति से कुण्डिनपुर से बाहर निकल चुके थे किन्तु जैसे ही उन्हें पता चला कि रुक्मी उनसे युद्ध करने आ रहा है वे कुण्डिनपुर के पश्चिम में भोजकट नामक स्थान पर ही रुक गए और रुक्मी की प्रतीक्षा करने लगे। शीघ्र ही रुक्मी वहाँ पहुँचा और श्रीकृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा। फिर दोनों में भयानक युद्ध आरभ हुआ।
रुक्मी धनुर्विद्या में पारंगत था और साथ ही कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी उसे था। उसके पास भी "विजय" नामक उत्तम धनुष था (ये विजय कर्ण के महान विजय धनुष से अलग है) जो किसी भी सेना को परास्त करने की शक्ति रखता था। दोनों में युद्ध आरम्भ हुआ और बड़ी देर तक चला। रुक्मी एक महान योद्धा था किन्तु कृष्ण की शक्ति के सामने कब तक टिकता? अंततः उसकी पराजय हुई। कृष्ण उसका वध करना ही चाहते थे किन्तु रुक्मिणी से अपने भाई की ये दशा देखी नहीं गयी और उसके अनुरोध पर कृष्ण ने रुक्मी को जीवन दान दिया। उन्होंने उसका सर मुड़ दिया और फिर रुक्मिणी के साथ द्वारका चले गए।
उधर बलराम ने भी शिशुपाल को परास्त कर दिया और वापस द्वारका की और चले। रुक्मी को ये अपमान सहन नहीं हुआ और इससे वो इतना व्यथित हुआ कि वापस लौटकर कुण्डिनपुर गया ही नहीं। उसने उसी भोजकट में अपनी राजधानी बनाई और वहीँ से विदर्भ का राज्य सँभालने लगा। उस घटना के बाद से उसका श्रीकृष्ण के प्रति बैर और बढ़ गया।
उस घटना के बाद वो कभी भी अपनी बहन रुक्मिणी को पहले की तरह नहीं अपना सका और ना ही कृष्ण के प्रति उसका वैर कम हुआ। हालाँकि श्रीकृष्ण और बलराम से रुक्मी बाद में ना केवल मिला, बल्कि उनसे अपने पारिवारिक सम्बन्ध भी दृढ किये। रुक्मी की पुत्री रुक्मवती का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के साथ हुआ था। इससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए रुक्मी ने अपनी पौत्री रोचना का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र और प्रद्युम के पुत्र अनिरुद्ध से कर दिया। इससे द्वारका और विदर्भ के रिश्ते थोड़े तो सुधरे किन्तु फिर ही इन दोनों भाई बहनों में पहले जैसा स्नेह नहीं रहा। महाभारत में कहीं भी रुक्मिणी हरण के पश्चात रुक्मी और रुक्मिणी का मिलने का वर्णन नहीं है।
जब पांडवों और कौरवों में युद्ध की ठन गयी तो रुक्मी को अपना पुरुषार्थ दिखाने का एक अवसर मिला। इससे पहले वो युद्ध में श्रीकृष्ण से मात खा चुका था इसी कारण इस युद्ध में वो अपने बाहुबल से सारी कसर निकाल देना चाहता था। इसी अति-उत्साह में एक दिन रुक्मी अपने दल-बल के साथ पांडवों के शिविर पहुँचा। वहाँ श्रीकृष्ण और पांडवों ने उसका स्वागत किया और उसके आने का कारण पूछा।
तब रुक्मी ने कहा - "हे धर्मराज! आप तो जानते हैं कि मैं वासुदेव का सम्बन्धी हूँ और इसी नाते आपका और मेरा भी सम्बन्ध बनता है। यही कारण है कि इस महायुद्ध में मैंने आप लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया है। मैंने सुना है कि शत्रुपक्ष की सेना आपकी सेना से अधिक है। किन्तु आप तनिक भी चिंता मत कीजिये। मेरी एक अक्षौहिणी सेना आपकी सेवा में उपस्थित है। मैं महारथी हूँ और पितामह भीष्म, गुरुद्रोण, कर्ण, कृप, अश्वथामा और दुर्योधन को जीतने में भी सक्षम हूँ। इनमे से जिससे भी आपको सबसे अधिक भय हो, आप उसे मुझपर छोड़ दें। और तो और, अगर आप कहें तो मैं अकेले ही पूरी कौरव सेना को जीतकर आपको आपका राज्य दिलवा दूंगा।"
रुक्मी को इस प्रकार दम्भ पूर्वक बोलते हुए देखकर कृष्ण ने हँसते हुए कहा - "रुक्मी! आपके बल के विषय में तो मुझे पता ही है। आप निश्चय ही महान योद्धा हैं। अगर धर्मराज चाहें तो आप हमारी ओर से युद्ध कर सकते हैं।" तब अर्जुन ने कहा - 'हे अतिरथी! हमें आपकी शक्ति और पराक्रम पर कोई संदेह नहीं है किन्तु आपने अभी-अभी जिन योद्धाओं का नाम लिया है उनपर विजय पाना तो देवताओं के लिए भी सरल नहीं है।
मैंने अपने जीवन में असंख्य युद्ध लड़े हैं और महादेव की कृपा से किसी भी युद्ध में मैंने पराजय का मुँह नहीं देखा। यहाँ तक कि श्रीकृष्ण की सहायता से मैंने स्वयं देवराज इंद्र को भी युद्धक्षेत्र में पीछे हटने को विवश कर दिया था। किन्तु इतने पर भी मैं पूर्ण विश्वास से नहीं कह सकता कि मैं पितामह भीष्म और गुरुद्रोण को परास्त कर सकता हूँ। अतः आपका ये कहना कि आप ये युद्ध अकेले ही जीत सकते हैं, मुझे हास्यप्रद लगता है। हमारी सेना छोटी भी हो तो भी विजय के लिए हमें आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं है।'
अर्जुन के ऐसा कहने पर रुक्मी क्रोध से अपनी सेना लेकर वहाँ से चला गया और सीधा दुर्योधन के शिविर पहुँचा। दुर्योधन ने उसका स्वागत किया और उसके आने का कारण पूछा। तब रुक्मी ने क्रोध में कहा - "हे युवराज! मैं तो अपनी सेना लेकर पांडवों की सहायता करने को गया था किन्तु अर्जुन ने मेरा बड़ा अपमान किया। इसी लिए मैंने ये निर्णय लिया है कि अब मैं आपकी ओर से युद्ध करूँगा। आप मुझे जिसका भी वध करने कहेंगे, मैं उसे मृत्यु के घाट उतार दूँगा। और तो और अगर आप पितामह भीष्म की जगह मुझे सेनापति नियुक्त करें तो प्रथम दिन ही मैं कृष्ण सहित पांचों पांडवों को मार डालूँगा।"
दुर्योधन जैसा भी था पर उसमे आत्मसम्मान कूट कूट कर भरा था। रुक्मी को इस प्रकार बोलते देख कर उसने कहा - "रुक्मी! जो पांचों पांडव पितामह भीष्म की नेतृत्व वाली ११ अक्षौहिणी सेना के सामने भी ना घबराये, आप उन्हें मृत्यु के घाट उतारने की बात कर रहे हैं? अगर मैं मान भी लूँ कि आप ऐसा कर सकते हैं तो भी आपको पहले मेरी सहायता के लिए आना चाहिए था। आप ह्रदय से हमारा समर्थन नहीं करते अपितु पांडवों द्वारा ठुकराने के कारण हमारी ओर से युद्ध करना चाहते हैं। और अगर पांडव केवल ७ अक्षौहिणी सेना होने के बाद भी आपके सहायता के बिना युद्ध कर सकते हैं तो मेरे पास तो फिर भी ११ अक्षौहिणी सेना है। अतः मुझे भी आपकी सहायता की कोई आवश्यतकता नहीं है।"
इस प्रकार अपने घमंड के कारण रुक्मी ना पांडवों और ना ही कौरवों की ओर से युद्ध कर सका। उस महायुद्ध में आर्यावर्त के केवल दो ही योद्धा ऐसे थे जिन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया था। वे थे बलराम और रुक्मी। किन्तु जहाँ बलराम अपनी सात्विक प्रकृति के कारण युद्ध से विरत थे, वहीँ रुक्मी अपने अतिआत्मविश्वास के कारण उस महायुद्ध में भाग लेने से वंचित रह गया। कृष्ण से पराजय के पश्चात उसने भोजकट को ही अपनी राजधानी बना लिया था और वही से विदर्भ का राज-काज संभालता था। कुण्डिनपुर में उसके पिता भीष्मक की छत्रछाया में उसका छोटा भाई रुक्मण भी उसकी सहायता करता था। बाद में उसने भीष्मक की सहमति से अपनी पुत्री रुक्मवती का विवाह श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ पुत्र प्रद्युम्न से कर दिया। प्रद्युम्न की पहले से एक पत्नी थी जिसका नाम माया था।
युद्ध के आरम्भ में रुक्मी का जो मतभेद कृष्ण और पांडवों से हो गया था उसे मिटाने के लिए उसने अपनी पौत्री रोचना का विवाह प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से करने का निर्णय लिया। उसने इस प्रस्ताव को अपने पुत्र के द्वारा द्वारका भेजा जिसे कृष्ण और बलराम ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अनिरुद्ध ने भी बाणासुर की पुत्री उषा से विवाह किया था किन्तु उसने भी इस सम्बन्ध को सहर्ष स्वीकार किया।
रोचना को ब्याहने यादवों की बारात भोजकट पहुँची। शुभ मुहूर्त देख कर रोचना और अनिरुद्ध का विवाह कर दिया गया। श्रीकृष्ण विवाह के पश्चात वापस लौटना चाहते थे किन्तु रुक्मी ने उन्हें अनुरोध कर के रोक लिया। जब उन्हें वहाँ रहते कुछ समय हो गया तो एक दिन पुनः श्रीकृष्ण ने वापस जाने की आज्ञा मांगी। इस बार रुक्मी ने उनकी इच्छा का सम्मान किया किन्तु एक दिन चौसर के खेल के लिए उन्हें रोक लिया।
अगले दिन रात्रि में चौसर का आयोजन किया गया। उस चौसर में एक और रुक्मी अपने भाइयों के साथ बैठा था तो दूसरी ओर कृष्ण और बलराम अपने बंधु बांधवों के साथ उपस्थित थे। खेल आरम्भ हुआ और दोनों पक्ष बढ़-चढ़ कर दांव लगाने लगे। इस प्रकार खेलते-खेलते बहुत समय बीत गया। उस खेल में दैवयोग से यादवों की बार-बार हार हो रही थी। कृष्ण को वो खेल कुछ जंचा नहीं और उन्होंने उस खेल को बंद करवाने का प्रयास किया किन्तु दोनों पक्ष के लोग इतने आनंद से खेल रहे थे कि उन्होंने कृष्ण की बात नहीं सुनी। ये देख कर श्रीकृष्ण खिन्न होकर सभा से चले गए।
उधर बलराम और रुक्मी बार बार दांव लगा रहे थे और संयोग से रुक्मी हर बार विजयी हो रहा था। ऐसे करते हुए बलराम ने ९९ बार दांव लगाया और सारे दांव वो हार गए। उनके पास जितना भी धन था उसमे से १ लाख स्वर्ण मुद्राएं छोड़ कर वे सब हार गए। अंत में उन्होंने अंतिम १००वां दांव लगाने का निश्चय किया और अपने पास पड़ी आखिरी १००००० स्वर्ण मुद्राओं को दांव पर लगा दिया। इस बार भाग्य से वो विजयी हुए।
जब रुक्मी ने जीता हुआ धन वापस जाता हुआ देखा तो वो छल पर उतर आया। वो बार-बार बलराम जी के पांसों से आये छः अंक को चार बताने लगा और कहने लगा कि आपने ये दांव जीता ही नहीं है। लम्बे समय से बार-बार दांव हारने के कारण बलराम पहले ही क्रोध में थे। अब रुक्मी को इस प्रकार खुले रूप से छल करते हुए देख उनका क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने रुक्मी को कई बार समझाने का प्रयत्न किया कि वे विजयी हुए हैं किन्तु रुक्मी बार-बार उन्हें ही छली बोलने लगा।
बात को बिगड़ते देख कई यादव वीर श्रीकृष्ण को बुलाने दौड़े किन्तु जब तक कृष्ण वहाँ आ पाते, बलराम का क्रोध अपनी सीमा को लाँघ गया था। रुक्मी का खुला छल और उनपर बार बार झूठा लांछन लगाना उनसे बिलकुल सहन नहीं हुआ। ऐसे में जब रुक्मी ने फिर से उन्हें छली बोला तो क्रोध में आकर बलराम ने वहीँ पड़े मदिरा के बड़े पात्र से रुक्मी को इतनी जोर से मारा कि उसकी तत्काल वहीँ मृत्यु हो गयी।
जब कृष्ण वहाँ पहुंचे तो रुक्मी को मरा देख कर बड़े दुखी हुए। बलराम का क्रोध भी तत्काल उतरा और उन्हें भी अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ। किन्तु अब हो भी क्या सकता था? अंततः उन्होंने रुक्मी का अंतिम संस्कार किया और फिर अनिरुद्ध और रोचना को लेकर वापस द्वारिका आ गए। बलराम ने चौसर के छल के कारण पांडवों पर हुआ अत्याचार देखा था और आज फिर चौसर के कारण ही रुक्मी को मृत्यु को प्राप्त होते देख बलराम इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने कहा - "चौसर विनाश का ही दूसरा रूप है जो मनुष्य की बुद्धि और विवेक को हर लेता है। आज से मेरी ये बात नियम समझी जाये कि जो कोई भी चौसर का खेल खेलेगा, सौभाग्य उसी क्षण उसका साथ छोड़ देगा।"
very informative post....thanks for sharing
जवाब देंहटाएंHindi News
धन्यवाद
हटाएंबलराम और सात्विक प्रकृति!
हटाएंतो बलराम को कोई तामसिक कह सकता है?
हटाएंVANSAVALI OF BHISMAK?????? PL....
जवाब देंहटाएंJay Shri Krishn ji ki
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