महर्षि वशिष्ठ परमपिता ब्रह्मा के पुत्र एवं सातवें सप्तर्षि हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मदेव की प्राण वायु से हुई बताई जाती है। महर्षि वशिष्ठ को ऋग्वेद के ७वें मण्डल का लेखक और अधिपति माना जाता है। ऋग्वेद में कई जगह, विशेषकर १०वें मण्डल में महर्षि वशिष्ठ एवं उनके परिवार के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। इसके अतिरिक्त अग्नि पुराण एवं पुराण में भी उनका विस्तृत वर्णन है।
महर्षि वशिष्ठ ही ३२००० श्लोकों वाले योगवशिष्ठ रामायण, वशिष्ठ धर्मसूत्र, वशिष्ठ संहिता और वशिष्ठ पुराण के जनक हैं। स्वयं श्री आदिशंकराचार्य ने महर्षि वशिष्ठ को वेदांत के आदिऋषियों में प्रथम स्थान प्रदान किया है। 'वशिष्ठ' का अर्थ भी सर्वश्रेष्ठ ही होता है।
ब्रह्मा के मानसपुत्रों में जिन्होंने गृहस्थ धर्म को अपनाया उनमे से एक ये भी हैं। अपनी पत्नी अरुंधति के साथ महर्षि वशिष्ठ एक आदर्श, श्रेष्ठ एवं उत्तम गृहस्थ जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गऊओं में श्रेष्ठ कामधेनु एवं उनकी पुत्री नंदिनी इन्ही की क्षत्रछाया में सुखपूर्वक रहती हैं। इसी कामधेनु गाय के लिए इनमे और महर्षि विश्वामित्र में विवाद हुआ और विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ के चिर प्रतिद्वंदी बन गए। किन्तु अंततः महर्षि वशिष्ठ की महानता के आगे राजर्षि विश्वामित्र को झुकना पड़ा।
ऋग्वेद के ७वें अध्याय में ये बताया गया है कि सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने अपना आश्रम सिंधु नदी के किनारे बसाया था। बाद में इन्होने गंगा और सरयू के किनारे भी अपने आश्रम की स्थापना की। बौद्ध धर्म में भी जिन १० महान ऋषियों का वर्णन है, उनमे से एक महर्षि वशिष्ठ हैं। अन्य सप्तर्षियों की तरह ये चिरजीवी हैं और इसी कारण इनका विवरण सतयुग, त्रेता और द्वापर सभी युग में मिलता है। सतयुग में जहाँ ये प्रथम स्वयंभू मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक कहलाते हैं वहीँ त्रेतायुग में ये भगवान श्रीराम के गुरु भी हैं। साथ ही द्वापर युग में महाभारत के समय ये महर्षि व्यास को तत्वज्ञान भी देते हैं और पितामह भीष्म के भी गुरु बनते हैं।
महर्षि वशिष्ठ की ख्याति विशेषकर इक्षवाकु कुल के कुलगुरु के रूप में है। वे महाराज इक्षवाकु को राजधर्म की शिक्षा देते हैं और आगे चलकर उनकी कई पीढ़ियों बाद महाराज दशरथ और उनके पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के भी गुरु बनते हैं। पुरुवंश में दुष्यन्तपुत्र भरत भी इनके शिष्यों में से एक माने जाते हैं। कहा जाता है कि महर्षि वशिष्ठ के आशीर्वाद से ही भरत चक्रवर्ती सम्राट बनते हैं। आगे चलकर वे देवव्रत भीष्म के गुरु भी बनते हैं और जब वे मृत्यु-शैय्या पर पड़े होते हैं तो अन्य सप्तर्षियों के साथ महर्षि वशिष्ठ भी उनसे मिलने जाते हैं। महर्षि वशिष्ठ ही मनु को अपनी संपत्ति और राज्य अपने दो पुत्रों प्रियव्रत एवं उत्तानपाद में बाँटने का निर्देश देते हैं।
इसी विषय में एक वर्णन आता है जब परमपिता ब्रह्मा महर्षि वशिष्ठ को सूर्यवंश के पुरोहित का दायित्व सँभालने के लिए कहते हैं। अपने पिता की ऐसी आज्ञा सुनकर महर्षि वशिष्ठ सूर्यवंश का कुलगुरु बनने में अपनी असमर्थता बतलाते हैं। तब भगवान ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि इसी कुल में आगे जाकर भगवान विष्णु अपने श्रीराम अवतार में जन्म लेंगे और उन्हें उनका गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। उनकी ये बात सुनकर महर्षि वशिष्ठ सहर्ष सूर्यवंश के कुलगुरु का स्थान स्वीकार कर लेते हैं। आगे चलकर वे महाराज इक्षवाकु की राजधानी अयोध्या में ही जाकर बस जाते हैं।
राजस्थान के अग्रवाल समाज में महर्षि वशिष्ठ का बहुत महत्त्व है और वे इन्हे अपना अग्रपुरुष मानते हैं। उनकी एक लोक कथाओं के अनुसार, एक बार सृष्टि का कष्ट देख कर महर्षि वशिष्ठ आत्महत्या करने के लिए सरस्वती नदी के किनारे जाते हैं। किन्तु जैसे ही वो उसमे छलाँग लगाते हैं, उनकी रक्षा के लिए सरस्वती नदी स्वयं २०० छोटी धाराओं में विभक्त हो जाती है और इस प्रकार महर्षि वशिष्ठ के प्राण बच जाते हैं। ये प्रसंग स्वयं ही उनकी महत्ता को सिद्ध करता है।
पुराणों में महर्षि वशिष्ठ की दो पत्नियों का वर्णन आता है। उनका पहला विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या 'ऊर्जा' से हुआ। ऊर्जा से महर्षि वशिष्ठ को कुकुण्डिहि, कुरूण्डी, दलय, शंख, प्रवाहित, मित और सम्मित नामक ७ पुत्र प्राप्त हुए और इन्ही सात पुत्रों ने तीसरे उत्तम मनु के मन्वन्तर में सप्तर्षि का पद ग्रहण किया। फिर उन्होंने महर्षि कर्दम और देवहुति की कन्या 'अरुंधति' से विवाह किया। अरुंधति देवी अनुसूया की छोटी बहन और महर्षि कपिल की बड़ी बहन थी। अरुंधति से इन्हे चित्रकेतु, सुरोचि, विरत्रा, मित्र, उल्वण, वसु, भृद्यान और द्युतमान नामक पुत्र हुए।
असम राज्य के गुवाहाटी में असम और मेघालय की सीमा पर महर्षि वशिष्ठ का एक भव्य मंदिर है जो गुवाहाटी के मुख्य आकर्षण केंद्रों में से एक है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक गाँव का नाम ही महर्षि वशिष्ठ के नाम पर है। इस वशिष्ठ गाँव में भी उनका एक बहुत सुन्दर मंदिर स्थापित है। ऋषिकेश से १८ किलोमीटर दूर शिवपुरी में वशिष्ठ और अरुंधति गुफाएँ भी स्थित हैं जिनके अंदर भगवान शिव की कई प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। केरल के त्रिसूर जिले में स्थित अरट्टुपुझा मंदिर के मुख्य देवता भी महर्षि वशिष्ठ ही हैं। प्रत्येक वर्ष त्रिसूर के ही प्रसिद्ध त्रिप्रायर मंदिर से श्रीराम को इस मंदिर में महर्षि वशिष्ठ के सानिध्य में लाया जाता है।
महर्षि वशिष्ठ एवं राजर्षि विश्वामित्र की प्रतिद्वंदिता बहुत प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में एक महान राजा हुए गाधि। उनके पुत्र थे कौशिक जो आगे चलकर विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार विश्वामित्र अपने १०० पुत्रों और एक अक्षौहिणी सेना लेकर वन से गुजर रहे थे। वहीँ उन्हें पता चला कि पास में ही महर्षि वशिष्ठ का आश्रम है। तो उनका आशीर्वाद लेने के लिए विश्वामित्र उनके आश्रम पहुँचे। राज्य के राजा को अपने आश्रम में आया हुआ देख कर महर्षि वशिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए और उनसे कहा कि वे कुछ दिन अपनी सेना के साथ उनका आथित्य ग्रहण करें।
ये सुनकर विश्वामित्र ने कहा - 'हे महर्षि! मैं तो यहाँ केवल आपके दर्शनों के लिए आया था। किन्तु मेरे साथ मेरी एक अक्षौहिणी सेना है। आप किस प्रकार उनके खान-पान की व्यवस्था करेंगे? इसी कारण मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता।' तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - 'राजन! आप उसकी चिंता ना करें। मेरे पास गौमाता कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है। इसके रहते आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।' ये सुनकर विश्वामित्र कौतूहलवश महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रुक गए।
उन्हें ये देख कर आश्चर्य हुआ कि गउओं में श्रेष्ठ नंदिनी उनकी सेना द्वारा इच्छित हर सामग्री क्षणों में उपस्थित कर देती थी। तब उन्होंने सोचा कि ऐसी गाय की अधिक आवश्यकता तो उन्हें है। इस आश्रम में उसका क्या काम? यही सोच कर विश्वामित्र ने लौटते समय उनसे नंदिनी गाय को माँगा किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने ये कहकर उन्हें मना कर दिया कि ये गाय उन्हें उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय है। ये देख कर विश्वामित्र ने नंदिनी को जबरन अपने साथ ले जाने की ठानी। उनकी आज्ञा से उसकी सेना बलात नंदिनी को ले जाने लगी।
तब नंदिनी ने महर्षि वशिष्ठ से कहा - 'हे महर्षि! आप क्यों मुझे जाने से नहीं रोकते?' तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - 'पुत्री! विश्वामित्र मेरे अथिति हैं और फिर उनके साथ इतनी सेना है। उनका विरोध कर मुझे तुम्हे रोकना उचित नहीं लग रहा।' तब नंदिनी ने कहा - 'कृपया आप मुझे आत्मरक्षा की आज्ञा दें।' ये सुनकर महर्षि वशिष्ठ ने उसे अपनी रक्षा करने की आज्ञा दे दी। उनकी गया पाते ही नंदिनी ने अपने खुरों से विशाल सेना उत्पन्न की जो भांति-भांति के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। उन्होंने बात ही बात में विश्वामित्र की पूरी सेना का नाश कर दिया।
ये देख कर विश्वामित्र के १०० पुत्र महर्षि वशिष्ठ का वध करने को उनकी ओर दौड़े किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने केवल अपने एक दृष्टिपात से उनके एक पुत्र को छोड़ कर शेष ९९ पुत्रों को भस्म कर दिया। अपनी पूरी सेना और पुत्रों को खो कर विश्वामित्र घोर शोक में घिर गए और तब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने की ठानी। उनका मन राज-काज और मोह माया से उठ गया और फिर उन्होंने अपने उस एक पुत्र को राज-पाठ सौंपा और वही से तपस्या करने सीधे हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए।
उन्होंने हिमालय में घोर तपस्या की और महादेव को प्रसन्न किया। वरदान स्वरुप उन्होंने महादेव से सम्पूर्ण धर्नुविद्या का ज्ञान और सभी प्रकार के दिव्यास्त्र कर उससे भी ऊपर ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर लिया। वो दिव्यास्त्र किस लिए प्राप्त कर रहे थे ये तो महादेव को पता ही था इसीलिए उन्होंने विश्वामित्र को कहा कि इन दिव्यास्त्रों का दुरुपयोग ना करें अन्यथा इतनी विद्या होने के बाद भी उन्हें पराजय ही प्राप्त होगी।' उस समय तो विश्वामित्र ने हामी भर दी किन्तु भीतर से वो प्रतिशोध की आग में जल रहे थे।
धनुर्विद्या और दिव्यास्त्रों का पूर्ण ज्ञान होने पर विश्वामित्र प्रतिशोध लेने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को युद्ध के लिए ललकारा। उन्होंने एक-एक कर महर्षि वशिष्ठ पर अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर लिया किन्तु उन्हें परास्त नहीं कर पाए। एक-एक कर उन्होंने व्यवयास्त्र, आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, पर्वतास्त्र, पर्जन्यास्त्र, गंधर्वास्त्र, मोहनास्त्र इत्यादि सभी अस्त्र-शस्त्र उनपर चला दिए किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने उन सभी दिव्यास्त्रों को बीच में ही रोक लिया। अंत में कोई और उपाय ना देखकर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया।
जब महर्षि वशिष्ठ ने ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आता देखा तो उन्होंने महाविनाशकारी "ब्रह्माण्ड अस्त्र" (ब्रह्माण्ड अस्त्र ब्रह्मास्त्र से ५ गुणा अधिक शक्तिशाली माना जाता है) को प्रकट किया जो विश्वामित्र के ब्रह्मास्त्र को पी गया। इतने पर भी महर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र का वध नहीं किया और उन्हें सम्मानपूर्वक वापस लौटा दिया। इससे और भी अपमानित होकर विश्वामित्र पुनः घोर तपस्या करने चले गए।
विश्वामित्र अपमान की अग्नि में जलते हुए पुनः ब्रह्मदेव की तपस्या करते हैं। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव प्रकट होते हैं और उन्हें 'राजर्षि' कहकर सम्बोधित करते हैं। ये सोच कर विश्वामित्र ब्रह्मदेव से कहते हैं - 'हे प्रभु! मुझे भी वशिष्ठ की तरह ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करना है।' तब ब्रह्मदेव उनसे कहते हैं - 'वत्स! तुम्हे ब्रह्मर्षि का पद तभी प्राप्त हो सकता है जब स्वयं वशिष्ठ तुम्हे ब्रह्मर्षि मान लें।' ये सुनकर विश्वामित्र ब्रह्माजी की आज्ञा से वशिष्ठ से मिलने जाते हैं।
मार्ग में विश्वामित्र के मन में ये विचार आया कि मैं छिपकर वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार करूँगा जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। जब वो नहीं रहेंगे तो सारा जगत मुझे ही ब्रह्मर्षि मानेगा। ये कुत्सित विचार लेकर विश्वामित्र वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और उन्होंने द्वार पर से ही ब्रह्मास्त्र का संधान किया। तभी उनके कानों में महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी देवी अरुंधति का संवाद पड़ा। देवी अरुंधति कह रही थी - 'हे स्वामी! आज की चाँदनी रात कितनी सुहानी है। इस जगत में इसके अतिरिक्त ऐसा प्रकाश और कहाँ प्राप्त हो सकता है?' तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - 'प्रिये! निश्चय ही ये शीतलता और प्रकाश अद्भुत है किन्तु इससे भी अधिक शीतलता और प्रकाश राजर्षि विश्वामित्र के तप में है।'
अपने प्रति महर्षि वशिष्ठ का ये कोमल भाव देख कर विश्वामित्र के हाथ से ब्रह्मास्त्र छूट गया और पश्चाताप के मारे वे वहीँ रुदन करने लगे। उनका रुदन सुनकर जब वशिष्ठ बाहर आये तब विश्वामित्र ने उनके चरण पकड़ते हुए उनसे अपने सभी अपराधों की क्षमा माँगी। अपनी इस ग्लानि को लेकर विश्वामित्र एक बार फिर घोर तपस्या में लीन हुए और तब अंततः अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से स्वयं वशिष्ठ वहाँ आये और उन्होंने विश्वामित्र को "ब्रह्मर्षि" कहकर सम्बोधित किया।
पुराणों में कुल १२ वशिष्ठ ऋषियों का वर्णन है। एक ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ब्रह्मा के पुत्र हैं, दूसरे इक्क्षवाकुवंशी त्रिशंकु के काल में हुए जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहते थे। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अपव कहते थे। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। पांचवें राजा सौदास के समय में हुए थे जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभाज था। कहते हैं कि सौदास ही सौदास ही आगे जाकर राजा कल्माषपाद कहलाये।
छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें भगवान राम के समय में हुए जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहते थे और आठवें श्रेष्ठ वशिष्ठ महाभारत के काल में हुए जिनके पुत्र का नाम शक्ति और पौत्र का नाम पराशर था। इनके अलावा वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चस जैसे दूसरे वशिष्ठों का भी जिक्र आता है। वेदव्यास की तरह वशिष्ठ भी एक पद हुआ करता था।
महाराज इक्ष्वाकु ने १०० वर्षों तक कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त की। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को अपना गुरु बनाया और उनके मार्गदर्शन में अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्यापुरी स्थापित कराया और फिर वे वहीँ बस गए। प्रथम वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा के यज्ञ के आचार्य रहे थे। इसके अतिरिक्त श्रीराम के काल में वशिष्ठ ने ही दशरथ का पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्रीरामजी का जातकर्म, यज्ञोपवीत, विवाह और उनका राज्याभिषेक करवाया। उन्होंने ही महाराज दशरथ को मनाया कि वे श्रीराम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ वन में भेज दें।
नक्षत्रमण्डल में दो चमकदार तारे हैं जो सदैव एक दूसरे के इर्द-गिर्द चक्कर लगते रहते हैं। इस युग्म तारे को नासा ने हाल में खोजा है किन्तु आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व हमारे विद्वानों ने इन दोनों का पता लगा लिया था। इन्होने उसे "अरुंधति-वशिष्ठ" का नाम दिया और आज पूरी दुनिया उसे इसी नाम से जानती है।
महर्षि वशिष्ठ सदैव शांत रहते हैं। सुख-दुःख, प्रसन्नता-क्रोध, मान-अपमान, लाभ-हानि सभी उनके लिए एक सामान थी। यहाँ तक कि जब सुदास ने विश्वामित्र के श्राप के कारण राक्षस बन महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों की हत्या कर दी, तब भी उन्होंने सुदास और विश्वामित्र को क्षमा कर दिया। यही कारण था कि स्वयं श्रीराम भी उन्हें अपने गुरु के रूप में पाकर गर्व का अनुभव करते थे।
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