हिन्दू धर्म में अनेकानेक मन्त्रों का वर्णन है किन्तु जो दो मन्त्र सबसे प्रमुख हैं वो है भगवान शिव का "महामृत्युञ्जय मन्त्र" और वेदमाता गायत्री का "श्री गायत्री मन्त्र"। इन दोनों के सामान शक्तिशाली और कोई मन्त्र नहीं है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद गीता में कहा है कि "मन्त्रों में मैं गायत्री हूँ"। ऐसा माना जाता है कि दोनों मन्त्रों में किसी का १२५०००० बार जाप करके बड़ी से बड़ी इच्छा को फलीभूत किया जा सकता है।
भगवान शिव ने महामृत्युञ्जय और गायत्री मन्त्र को मिलाकर एक और अद्भुत एवं महाशक्तिशाली मन्त्र की रचना की थी। उस मन्त्र को "महामृत्युञ्जयगायत्री मन्त्र" कहा गया और उसे ही आम भाषा में हम "मृतसञ्जीवनी मन्त्र" के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि इस मन्त्र से मृत व्यक्ति को भी जीवित किया जा सकता था। ये मन्त्र बहुत ही संवेदनशील माना जाता है और हमारे ऋषि-मुनियों ने इसके उपयोग को स्पष्ट रूप से निषिद्ध भी किया है। अगर योग्य गुरु का मार्गदर्शन ना मिले तो इस मन्त्र का उच्चारण कभी भी १०८ बार से अधिक नहीं करना चाहिए अन्यथा उसके विपरीत परिणाम हो सकते हैं।
महामृत्युञ्जयगायत्री या मृतसञ्जीवनी मन्त्र है:
ऊँ हौं जूं स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ त्रयंबकंयजामहे
ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम
ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारूकमिव बंधनान
ऊँ धियो योन: प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात
ऊँ स्व: ऊँ भुव: ऊँ भू: ऊँ स: ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ
इस महान मृतसञ्जीवनी मन्त्र का ज्ञान सर्वप्रथम भगवान शिव ने दैत्यों के गुरु भृगुपुत्र शुक्राचार्य को उनकी घोर तपस्या के बाद वरदान स्वरुप दिया था। इस मन्त्र के प्रभाव से शुक्राचार्य देव-दानवों के युद्ध में मरे हुए दैत्यों को पुनः जीवित कर देते थे। दैत्य पहले से ही बल में देवताओं से अधिक ही थे और फिर उनके ऐसा करने से दैत्यों का पड़ला भारी हो गया और उन्होंने देवताओं को स्वर्ग से निष्काषित कर दिया। ऐसा कई बार हुआ कि शुक्राचार्य ने केवल इसी महान मन्त्र से दैत्यों को हारा हुआ युद्ध जितवा दिया। जब महादेव ने देखा कि शुक्राचार्य उनकी दी हुई विद्या का गलत उपयोग कर रहे हैं तो क्रोध में आकर उन्होंने शुक्राचार्य को निगल लिया। इस विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ। बाद में शुक्राचार्य को भगवान शिव ने लिंग मार्ग से बाहर निकाला जिससे उनका नाम शुक्राचार्य पड़ा।
इसके बाद देवगुरु मरीचि पुत्र बृहस्पति ने भी इसकी काट ढूंढने की सोची। उन्होंने अपने पुत्र कच को शिष्य बना कर शुक्राचार्य के पास भेजा ताकि वो भी उनसे मृतसञ्जीवनी मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कर सकें। शुक्राचार्य के आश्रम में उनकी पुत्री देवयानी कच से प्रेम कर बैठी। ये जानकर कि कच संजीवनी विद्या सीखने आये हैं और देवयानी उससे प्रेम करती है, दैत्यों ने कई बार उसका वध कर डाला किन्तु देवयानी की प्रार्थना पर शुक्राचार्य ने मृतसञ्जीवनी मन्त्र के प्रयोग से उसे हर बार जीवित कर दिया। अंत में दैत्यों से कच को मार कर उसे जला दिया और उसके भस्म को मदिरा में मिला कर शुक्राचार्य को ही पिला दिया। उसके बाद वे निश्चिन्त हो गए कि अब शुक्राचार्य कच को जीवित नहीं कर पाएंगे अन्यथा उनका भी अंत हो जाएगा।
जब शुक्राचार्य ने कच को नहीं देखा और मृतसञ्जीवनी मन्त्र का प्रयोग किया तो कच उनके उदर में जीवित हो उठा। उसने शुक्राचार्य से कहा कि अब यदि वो बाहर आया तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। शुक्राचार्य को दैत्यों पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उन्हें अपना साम्राज्य खोने का श्राप दे दिया। किन्तु अपनी पुत्री का दुःख देख कर शुक्राचार्य ने कच से कहा कि वो उसे मृतसञ्जीवनी विद्या का ज्ञान देते हैं और जब वो बाहर आये तो उसी विद्या से उन्हें जीवित कर दे।
इस प्रकार कच ने वो ज्ञान शुक्राचार्य के उदर में ही सीखा। जब वो शुक्राचार्य का उदर चीर कर बाहर आया तो उनकी मृत्यु हो गयी किन्तु फिर कच ने उसी महान मन्त्र का उपयोग कर उन्हें जीवित कर दिया। जब देवयानी ने उसे बताया कि वो उससे प्रेम करती है तो कच ने ये कहकर उससे विवाह करने से मना कर दिया कि वो उसके गुरु की पुत्री है। इससे रुष्ट होकर देवयानी ने उसे श्राप दिया कि जिस मृतसञ्जीवनी विद्या के लिए वो यहाँ आया था वो उसके किसी काम नहीं आएगी। तब कच ने भी देवयानी को श्राप दिया कि उसका विवाह उससे नीचे कुल में होगा। इसी कारण देवयानी का विवाह क्षत्रिय कुल के महाराज ययाति से हुआ।
मृतसञ्जीवनी मन्त्र का प्रभाव अद्भुत है। ऐसी मान्यता है कि इस मन्त्र में हिन्दू धर्म के सभी ३३ कोटि देवताओं (८ वसु, ११ रूद्र, १२ आदित्य, १ प्रजापति और १ वषट) की शक्तियाँ सम्मलित होती है। इस मन्त्र के उच्चारण से इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है जिसे सम्हालना किसी आम मनुष्य के बस की बात नहीं होती है। यही कारण है कि विद्वानों ने बिना किसी योग्य गुरु के इस मन्त्र के जाप करने के लिए मना किया है। इस मन्त्र के जाप से पूर्व कुछ बातें याद रखें:
- बिना गुरु के मार्गदर्शन के इस मन्त्र का जा ना करें।
- अगर बिना गुरु के इस मन्त्र का जाप करना हो तो १०८ जाप से अधिक ना करें।
- जाप पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें।
- जाप के लिए शांत स्थान का चुनाव करें। अकेले कमरे में भी कर सकते हैं अथवा ऐसे किसी मंदिर में जहाँ लोगों का आवागमन अधिक ना हो।
- मन्त्रों का उच्चारण अत्यंत शुद्ध हो और मन्त्र की आवाज बाहर ना आ रही हो।
- जाप रुद्राक्ष की माला से ही करना चाहिए।
- जाप के दौरान सात्विक जीवन जियें और मांसाहार, मदिरापान और सम्भोग से बचें।
मृतसञ्जीवनी मन्त्र की भांति ही "मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र" भी है जिसकी रचना ब्रह्मपुत्र महर्षि वशिष्ठ ने की थी। इसके विषय में एक लेख विस्तार से प्रकाशित किया गया है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
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