जब श्रीराम कल्पवृक्ष को पृथ्वी पर ले आये

जब श्रीराम कल्पवृक्ष को पृथ्वी पर ले आये
महर्षि दुर्वासा के विषय में हम सभी जानते हैं। वे महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे जो भगवान शिव के अंश से जन्मे थे। इनकी गणना सर्वाधिक क्रोधी ऋषि के रूप में की जाती है। श्राप तो जैसे इनकी जिह्वा की नोक पर रखा रहता था। इन्ही महर्षि दुर्वासा ने एक बार श्रीराम की परीक्षा लेने की ठानी। उन्हें पता था कि श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं किन्तु फिर भी सामान्य जन को उनका महत्त्व और महानता दिखाने के लिए वे श्रीराम की परीक्षा लेने अयोध्या पहुँचे। उस समय तक लंका युद्ध समाप्त हो गया था और श्रीराम सुखपूर्वक अयोध्या पर राज्य कर रहे थे।

वे सीधे श्रीराम के भवन के ८ चौंकों को पार कर सीधे माता सीता के द्वार पर पहुँच गए। जब श्रीराम को पता चला कि महर्षि दुर्वासा अपने ६०००० शिष्यों के साथ अयोध्या पधारे हैं तो वे स्वयं अपने भाइयों के साथ द्वार पर उन्हें लिवाने चले आये। उन्होंने महर्षि दुर्वासा की अभ्यर्थना की और उनके चरण प्रक्षालन कर उन्हें ऊँचे आसन पर बिठाया। फिर उन्हें अर्ध्यपान देने के बाद उन्होंने कहा - 'हे महर्षि! आप अपने तेजस्वी शिष्यों के साथ अयोध्या पधारे ये हमारे लिए बहुत सम्मान की बात है। मुझे वनवास समय में अपनी पत्नी और भाई के साथ आपके माता-पिता महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आज आपके भी दर्शन प्राप्त कर मैं अपने आपको धन्य मान रहा हूँ। कृपया कहें कि मेरे लिए क्या आज्ञा है।"

तब महर्षि दुर्वासा ने कहा - 'हे कौशल्यानंदन राम! मुझे भी तुम्हारे दर्शन कर बड़ा हर्ष हो रहा है। मैं पिछले १०० वर्षों से उपवास पर था और आज ही मेरा उपवास पूर्ण हुआ है। इसी कारण भोजन करने की इच्छा से मैं अपने शिष्यों सहित तुम्हारे द्वार पर आया हूँ।'

तब श्रीराम ने प्रसन्नता से कहा - 'हे भगवन! मेरे लिए इससे प्रसन्नता की और क्या बात होगी कि आपको भोजन कराने के सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा।'

तब महर्षि दुर्वासा ने आगे कहा - 'हे राम! किन्तु मेरा संकल्प है कि तुम मुझे ऐसा भोजन कराओ जो जल, धेनु या अग्नि की सहायता से ना पका हो। इसके अतिरिक्त भोजन करने से पूर्व मेरी शिव पूजा के लिए तुम मुझे ऐसे अद्भुत पुष्प मँगवा दो जैसे आज तक किसी ने ना देखे हों। इस सब के लिए मैं तुम्हे केवल एक प्रहर का समय देता हूँ। अगर ये तुमसे ना हो सके तो मुझे स्पष्ट कह दो ताकि मैं यहाँ से चला जाऊँ।'

तब महर्षि की इस बात को सुनकर श्रीराम ने मुस्कराते हुए नम्रता से कहा - "भगवान् ! मुझे आपकी यह सब आज्ञा स्वीकार है।" ये सुनकर महर्षि दुर्वासा प्रसन्न होकर बोले - 'ठीक है। मैं अपने शिष्यों के साथ सरयू में स्नान करके आता हूँ। तब तक हमारे लिए सभी सामग्रियों की व्यवस्था कर दो।' ये कह कर महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ स्नान करने को चले गए। 

उनके जाने के बाद देवी सीता, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे कि किस प्रकार श्रीराम केवल एक प्रहर ऐसी दुर्लभ चीजों को प्राप्त कर पाएंगे। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से एक पत्र लिखने को कहा और फिर उसे अपने बाण पर बांध कर स्वर्गलोक की ओर छोड़ दिया। वह बाण वायु वेग से उड़कर अमरावती में इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जाकर उनके सामने गिर पड़ा। 

उस बाण को देखते ही देवराज इंद्र पहचान गए कि ये श्रीराम का बाण है। उन्होंने तुरंत उसपर बंधे पत्र को खोलकर पढ़ा तो उसमे लिखा था - 'हे देवराज! आप सुखी रहें। मैं सदैव आपका स्मरण करता हूँ किन्तु आज आपकी एक सहायता के लिए आपको पत्र लिख रहा हूँ। अयोध्या में इस समय महर्षि दुर्वासा अपने ६०००० शिष्यों के साथ उपस्थित हैं और वो ऐसा भोजन चाहते हैं, जो गऊ, जल अथवा अग्नि के द्वारा सिद्ध न किया हो। साथ ही उन्होंने शिव पूजन के लिए ऐसे पुष्प माँगे हैं जिन्हें कि अब तक मनुष्यों ने न देखा हो। अतः आप अतिशीघ्र कल्पवृक्ष और पारिजात, जो क्षीरसागर से निकले हैं, मेरे पास भेज दें। इसके लिए रावण के संहारक मेरे बाणों की प्रतीक्षा मत कीजियेगा।'

वो पत्र मिलते ही इंद्रदेव उठे और कल्पवृक्ष तथा पारिजात को साथ ले देवताओं सहित विमान में बैठकर अयोध्या में आ पहुँचे। वहाँ श्रीराम ने इंद्र का स्वागत किया उधर सरयू तट पर महर्षि दुर्वासा ने अपने एक शिष्य से कहा कि वे भवन जाकर देख आएं कि वहाँ का क्या हाल है। जब वो शिष्य राजभवन पहुँचा तो इन्द्रादि देवताओं से घिरे श्रीराम को देखा। उसने वापस आकर महर्षि को सारा हाल सुनाया। 

ये सुनकर महर्षि आश्चर्य करते हुए श्रीराम के पास पहुँचे। उन्हें आया देख कर श्रीराम ने देवताओं सहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और फिर उन्होंने महर्षि को किसी के द्वारा ना देखे गए पारिजात के पुष्प शिव पूजा के लिए अर्पण किये। महर्षि दुर्वासा ने प्रसन्नतापूर्वक उन अद्भुत पुष्पों द्वारा श्रीराम और देवताओं सहित भगवान महाकाल की पूजा की। 

पूजा समाप्त होने के बाद श्रीराम ने देवी सीता को भोजन परोसने के लिए कहा। तब सीता ने कल्पवृक्ष के नीचे असंख्य पत्रों को रखवा कर प्राथना की - 'हे कपलवृक्ष! आप सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। कृपया महर्षि दुर्वासा और उनके सभी शिष्यों को संतुष्ट करें।' देवी सीता के ऐसा कहते ही वो सारे पात्र कल्पवृक्ष द्वारा ऐसे व्यंजनों से भर गए जो अग्नि, दूध अथवा जल से नहीं बने थे। ये देख कर महर्षि दुर्वासा ने श्रीराम की भूरि-भूरि प्रशंसा की और आकंठ भोजन कर वहाँ से प्रस्थान किया। जय श्रीराम।

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