बहुत काल के पहले महान ऋषियों द्वारा पृथ्वी पर एक महान यज्ञ किया गया। तब उस समय प्रश्न उठा कि इसका पुण्यफल त्रिदेवों में सर्वप्रथम किसे प्रदान किया जाये। तब महर्षि अंगिरा ने सुझाव दिया कि इन तीनों में जो कोई भी "त्रिगुणातीत", अर्थात सत, राज और तम गुणों के अधीन ना हो उसे ही सर्वश्रेष्ठ मान कर यज्ञ का पुण्य सबसे पहले प्रदान किया जाये। किन्तु अब त्रिदेवों की परीक्षा कौन ले? वे तो त्रिकालदर्शी हैं और जो कोई भी उनकी परीक्षा लेने का प्रयास करेगा उसे उनके कोप का भाजन बनना पड़ेगा। तब सप्तर्षियों ने महर्षि भृगु का नाम सुझाया और उनके अनुमोदन पर भृगु त्रिदेवों की परीक्षा लेने को तैयार हो गए।
सबसे पहले महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने ब्रह्मदेव और माता सरस्वती को प्रणाम नहीं किया। इससे ब्रह्मदेव को क्रोध तो बहुत आया किन्तु पुत्र की नासमझी समझ कर उन्होंने कुछ कहा नहीं। तब भृगु ऋषि ने कठोर स्वर में ब्रह्मदेव से कहा - "हे पिताश्री! क्या आप अपने लोक में आने वालों का यही आथित्य करते हैं? आपने तो मुझे आसन ग्रहण करने को भी नही पूछा।" तब परमपिता ब्रह्मा ने हँसते हुए कहा - "पुत्र! तुम अथिति कब से हो गए? तुम तो हमारे पुत्र हो अतः कभी भी यहाँ आ सकते हो। क्या पुत्रों को भी आसन ग्रहण करने के लिए कहने की आवश्यकता है? अतः निःसंकोच आसन ग्रहण करो।"
लेकिन तब तक भृगु ऋषि के क्रोध का पारा आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने बड़े ही कठोर स्वर में अपने पिता से कहा - "हे वृद्ध! आपको तो अपने अतिथि और पुत्र का सम्मान करना भी नहीं आता। क्या आपको ये ज्ञात नहीं कि मैं कितना बड़ा महर्षि हूँ और मेरा तपोबल क्या है? मुझे तो सप्तर्षियों में भी सम्मलित होने का सम्मान प्राप्त है और आपको इतनी भी समझ नहीं है कि इतने सम्माननीय व्यक्ति का स्वागत कैसे करना चाहिए।"
ब्रह्माजी तो सब कुछ जानते ही थे इसीलिए अपने पुत्र की दम्भ भरी बातें सुनकर मुस्कुराते रहे। महर्षि भृगु ने अपनी परीक्षा और कठिन की और खुलकर अपने पिता को अपशब्द बोलने लगे। अपने माता पिता के समक्ष इस प्रकार अपने पुत्र को अपशब्द बोलते देख कर अंततः ब्रह्मदेव को क्रोध आ ही गया। उन्होंने क्रोधित होते हुए कहा - "रे धृष्ट! क्या तुम्हारे यही संस्कार हैं जो अपने पिता से इस स्वर में बात कर रहे हो? तुमने तो ना प्रवेश से पहले आज्ञा ली और ना ही अपने माता पिता को प्रणाम किया। उसपर भी मैंने तुम्हे क्षमा कर दिया किन्तु तुम तो सीमा से परे चले गए हो। अतः अब मैं अवश्य तुम्हे श्राप दे दूंगा।"
ब्रह्माजी को इतना क्रोध में देख कर महर्षि भृगु ने हाथ जोड़ कर उनसे क्षमा मांगी और कहा - "हेपिताश्री! मुझे क्षमा कर दें। आपसे क्या छुपा है? आप तो जानते ही हैं कि सप्तर्षियों के कहने पर मैं त्रिदेवों की परीक्षा लेने निकला हूँ। उसी उद्देश्य से मैं यहाँ आया था किन्तु मैंने देखा कि आप भी मेरे अपशब्द कहने पर क्रोधित हो गए। अतः आप त्रिगुणातीत नहीं हो सकते।"
तब ब्रह्मदेव ने कहा - "हे पुत्र! इसमें इतना प्रहसन करने की क्या आवश्यकता थी? अगर तुम मुझसे सीधे भी पूछते तो मैं तुम्हे बता देता कि मैं त्रिगुणातीत नहीं हूँ। मुझमे रजोगुण की अधिकता है और ये सृष्टि के निर्माण के लिए भी आवश्यक है। अतः तुम महादेव और श्रीहरि के पास जा कर उन्हें परखो।"
तब भृगु ऋषि ने कहा - "हे प्रभु! आपको तो अवश्य ही ज्ञात होगा कि आप तीनों में त्रिगुणातीत कौन है। तो आप ही मुझे क्यों नहीं बता देते? आपने तो फिर भी मुझे पुत्र समझ कर क्षमा कर दिया किन्तु महादेव का रौद्र रूप कौन नहीं जानता? मुझे तो उनके समक्ष जाने में ही भय लगता है। अगर आपकी तरह वो भी मुझपर रुष्ट हो गए तब तो मेरी रक्षा त्रिलोक में कोई नहीं करेगा। अतः आप ही मुझे इस प्रश्न का उत्तर दे दीजिये।"
तब ब्रह्मदेव ने हँसते हुए कहा - "वत्स! इसका उत्तर तो मैं अवश्य जनता हूँ किन्तु तुम्हे बताऊंगा नहीं। ऐसा इसलिए क्यूंकि लीलाओं का अपना आनंद है। ये कैसे संभव है कि तुमने मेरी लीला देख ली किन्तु महादेव और श्रीहरि की लीला देखने से वंचित रह जाओ। तुम निःसंकोच होकर महादेव के पास जाओ। वो तो सर्वज्ञ हैं अतः तुम्हारी प्राणहानि नहीं करेंगे। तुम बहुत भाग्यशाली हो कि तुम्हे त्रिदेवों की लीला को देखने का अवसर मिला है।" अपने पिता से ये वचन सुनकर महर्षि भृगु उन्हें प्रणाम कर कैलाश की ओर प्रस्थान कर गए।
जब महर्षि भृगु महादेव के पास चले तो वे ये सोच कर चिंतित थे कि त्रिलोक के स्वामी महादेव की किस प्रकार परीक्षा ली जाये? दूसरे, वे तो संहार के स्वामी थे और उनका प्रचंड क्रोध तो जगत में विख्यात था। वे इस बात से भी भयभीत थे कि कही उन्हें महारुद्र के कोप का भाजन ना बनना पड़ जाये। किन्तु महादेव आशुतोष भी थे। वे जितनी जल्दी क्रोधित होते थे उतनी ही जल्दी प्रसन्न भी हो जाते थे।
यह सोच कर उन्हें कुछ धीरज बंधा और वे कैलाश पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर नंदी के नेतृत्व में सभी शिवगणों ने उनका स्वागत किया और उन्हें सूचित किया कि अभी महादेव तपस्या में लीन हैं। जब वे तपस्यारत होते हैं तो किसी को उनसे मिलने की आज्ञा नहीं होती अतः आपको उनके समाधि से बाहर आने तक प्रतीक्षा करनी होगी।
तब उनकी ऐसी बातें सुनकर महर्षि भृगु ने उनसे बिगड़ते हुए कहा - "रे शिव के सेवक! क्या तू मेरे विषय में नहीं जानता? जिस परमपिता ब्रह्मा ने ये समस्त सृष्टि बनाई है, मैं उन्ही ब्रह्मा का पुत्र हूँ। मुझे अपने दर्शनों के लिए तो स्वयं ब्रह्मा और विष्णु भी नहीं रोकते फिर तुम मुझे रोकने का साहस कैसे कर रहा है? तुझे मेरे क्रोध के बारे में ज्ञात नहीं है इसी कारण तू मेरे साथ ऐसी धृष्ट्ता कर रहा है। मुझे रोकने का प्रयास ना कर अन्यथा मैं तुझे अवश्य ही श्राप दे दूंगा।"
महर्षि भृगु की ऐसी बात सुनकर भी नंदी क्रोधित ना होते हुए उनसे बोले - "हे महर्षि! मुझे आपके प्रताप के विषय में सब कुछ पता है और आपका अपमान करना मेरा आशय नहीं था। किन्तु जब महादेव की आज्ञा ना हो तो मैं किस प्रकार आपको भीतर आने दे सकता हूँ। यदि स्वयं ब्रह्मदेव आये होते तो कदाचित मैं उनका मार्ग नहीं रोकता किन्तु उनके और श्रीहरि के अतिरिक्त महादेव की समाधि के समय कोई और कैलाश में प्रवेश नहीं कर सकता। अतः आप अपना क्रोध शांत करें।
अब महर्षि भृगु अत्यंत क्रोध में भरकर बलात कैलाश में प्रवेश करने का प्रयत्न करने लगे। उन्हें रोकने के लिए शिवगणों अहिंसात्मक रूप से प्रयत्न करने लगे। किन्तु इस प्रयास में वहाँ कोलाहल का वातावरण उपस्थित हो गया। इस कोलाहल को सुनकर भगवती पार्वती अपने अंतःपुर से निकल कर वहाँ आ गयी। किन्तु तब तक उस कोलाहल से महादेव की समाधि भंग हो गयी। अब आगे क्या होने वाला है, ये देखने के लिए सारे देवता और सप्तर्षिगण महादेव की लीला को देखने के लिए आकाश में स्थित हो गए।
महादेव ने देखा कि भृगु के कारण ही उनकी समाधि भंग हुई है किन्तु भृगु ब्रह्मा के पुत्र थे इसी कारण उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण रखा। उधर शिवगण भृगु को कैलाश में प्रवेश करने से रोक रहे थे तभी महादेव ने उन्हें रोका और भृगु को अपने पास बुलाया और प्रसन्नतापूर्वक उन्हें आलिंगन करने को अपने स्थान से उठे। अब महर्षि भृगु को सही मौका मिला और उन्होंने उनके आलिंगन को अस्वीकार करते हुए कहा - "हे महादेव! आप अनार्यों की भांति भूत-प्रेतों से घिरे रहते हैं और अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाए रहते हैं। मैं तो पवित्र ब्राह्मण हूँ अतः मैं आपसे आलिंगन कैसे कर सकता हूँ?"
महादेव अपनी समाधि टूटने से वैसे ही दुखी थे और अब भृगु द्वारा इस प्रकार अपमान करने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया और भृगु की ओर बढे। अब भृगु ने सोचा कि अब तो प्राण गए। किन्तु महादेव से उन्हें त्रिलोक में कौन बचा सकता है? तभी उनकी दृष्टि माता पार्वती पर पड़ी। उन्होंने तुरंत माता के चरण पकड़ लिए और उनसे अपनी रक्षा करने की गुहार लगाई।
अब माता पार्वती आगे आयी और महादेव से प्रार्थना की कि भृगु तो उनके पुत्र की भांति हैं अतः उन्हें प्राणदान दें। उनके ऐसा कहने पर महादेव का क्रोध थोड़ा शांत हुआ। उन्हें शांत देख कर भृगु ने उनके चरण पकड़ते हुए परीक्षा के बारे में बताया। ये सुनकर महादेव हँसते हुए बोले - "महर्षि! आप तो स्वयं ज्ञानी हैं फिर आपने ऐसा कैसे सोचा कि सृष्टि के संहार का जो भार मुझपर है वो बिना तमोगुण के पूर्ण हो सकता है। मुझमे तमोगुण की अधिकता है क्यूंकि संहार के लिए ये आवश्यक है। इसके अतिरिक्त यज्ञ के जिस पुण्य के लिए आप ये परीक्षा ले रहे हैं उसे तो मैंने दक्ष के यज्ञ में ही त्याग दिया था।"
तब भृगु भगवान शिव की स्तुति करते हुए बोले - "हे महादेव! मुझे ये ज्ञात है। आप तो समस्त यज्ञ और पुण्य से परे हैं किन्तु फिर भी इसी बहाने मुझे आपकी इस लीला में भाग लेने का अवसर मिला। इससे मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे लिए क्या आज्ञा है? अब केवल नारायण ही बचे हैं किन्तु सृष्टि के पालनहार की परीक्षा लेने में मुझे संकोच हो रहा है।" तब महादेव ने कहा - "महर्षि! ये तो कार्य आपने किया है वो नारायण की परीक्षा के बिना अधूरा है। उनकी परीक्षा लेने के बाद ही आपको ज्ञात होगा कि त्रिगुणातीत कौन है। अतः आप निःसंदेह वैकुण्ठ को प्रस्थान करें।" महादेव की ऐसी आज्ञा सुनकर महर्षि भृगु उन्हें प्रणाम कर क्षीरसागर की और बढे।
जब महर्षि भृगु वहाँ पहुँचे तो नारायण के पार्षद जय-विजय ने उन्हें रोका। तब महर्षि भृगु ने उन्हें अपने वहाँ आने का कारण बताया। कोई भगवान नारायण की भी परीक्षा ले सकता है ये सोच कर जय-विजय को बड़ा कौतुहल हुआ और उन्होंने भृगु को प्रवेश की आज्ञा दे दी। जब भृगु ऋषि अंदर गए तो वहाँ का अलौकिक दृश्य देख कर एक क्षण को मंत्रमुग्ध हो गए। अनंत तक फैले क्षीरसागर में स्वयं देव अनंत (शेषनाग) की शैय्या पर नारायण विश्राम कर रहे थे। त्रिलोक में जिनके रूप का कोई जोड़ नहीं था, वो देवी लक्ष्मी, जो स्वयं महर्षि भृगु और दक्षपुत्री ख्याति की पुत्री थी, नारायण की पाद सेवा कर रही थी। अपनी पुत्री और जमाता का ऐसा अलौकिक रूप देख कर महर्षि भृगु एक क्षण के लिए खो से गए।
जब उनकी चेतना लौटी तब उन्होंने सोचा कि श्रीहरि तो इस जगत के स्वामी है हीं किन्तु उसके साथ-साथ वे उनके जमाता भी लगते हैं। फिर किस प्रकार वे उनकी परीक्षा लें? जमाता को तो लोग अपने शीश पर बिठाते हैं और इसी कारण वे किस प्रकार श्रीहरि को कटु शब्द बोलेंगे? उनकी समझ में कुछ नहीं आया कि वे किस प्रकार भगवान विष्णु की परीक्षा लें। वे उसी प्रकार द्वार पर खड़े रह गए।
उसी समय अचानक माता लक्ष्मी की दृष्टि द्वार पर खड़े अपने पिता पर पड़ी। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया और श्रीहरि के समक्ष बुलाया। महर्षि भृगु अब नारायण की शेष शैय्या तक पहुँचे और देवी लक्ष्मी से कहा कि वे अपने पति को सूचित करे कि उनके पिता वहाँ उपस्थित हैं। ये सुनकर देवी लक्ष्मी ने कहा कि अभी उनके स्वामी योग निद्रा में हैं अतः उन्हें जगाया नहीं जा सकता। उन्हें उनके जागने की प्रतीक्षा करनी होगी।
अब यहाँ प्रभु की माया आरम्भ हुई। अभी तक भृगु त्रिदेवों की परीक्षा ले रहे थे अब उनकी परीक्षा आरम्भ हुई। उन्हें ये पता भी नहीं चला कि कब प्रभु ने उनकी परीक्षा आरम्भ कर दी है। उसी माया के कारण अकस्मात् उन्हें माता लक्ष्मी अपनी एक साधारण पुत्री प्रतीत होने लगी। उस कारण देवी लक्ष्मी के ऐसा करने से उनमें क्रोध का भाव उत्पन्न हो गया। त्रिगुणातीत की खोज करते-करते महर्षि भृगु ये भूल गए कि वे स्वयं त्रिगुणातीत नहीं हैं।
प्रभु की माया से वशीभूत महर्षि भृगु ने क्रोधपूर्वक देवी लक्ष्मी से कहा - "पुत्री! तुम्हे तो अपने पिता से वार्तालाप करने का शिष्टाचार भी नहीं पता। क्या तुम्हे ये ज्ञात नहीं कि पिता की आज्ञा अन्य सभी की आज्ञा से ऊपर होती है। और अगर तुम्हे ये ज्ञात है तो तुम अपने पति को मेरे स्वागत हेतु क्यों नहीं उठा रही। जान पड़ता है कि इस छलिये के साथ रहते-रहते तुम अपने पिता का सम्मान करना भी भूल गयी हो।"
देवी लक्ष्मी ने भृगु की दम्भ भरी बातें सुनी किन्तु ये जानकार कि ये प्रभु की माया से ग्रसित हैं, उन्होंने कुछ नहीं कहा। अब भृगु भगवान विष्णु की ओर मुड़े और ऊँचे स्वर में कहा - "हे नारायण! क्या आपको ये भी नहीं पता कि अपने अतिथि का स्वागत सत्कार कैसे करना चाहिए? मैं ब्रह्मपुत्र भृगु जो महान सप्तर्षिओं में से एक है, स्वयं आपके सामने खड़ा है किन्तु आप समाधि का ढोंग कर मेरा अपमान कर रहे हैं। ये ना भूलिए कि मैं आपका श्वसुर भी हूँ और उस नाते आपको मेरे सम्मान हेतु अपने आसन से उठना चाहिए।"
महर्षि भृगु के इतना कहने पर भी जब नारायण योगनिद्रा से नहीं जागे तो उन्हें लगा कि प्रभु जान बूझ कर उनकी अवहेलना कर रहे हैं। योगमाया से घिरे भृगु को उचित-अनुचित का ध्यान ना रहा और उन्होंने क्रोध में आकर भगवान विष्णु के वक्ष पर पाद-प्रहार कर दिया। त्रिलोक ये देख कर कांप उठा कि इस जगत के पालनहार के वक्ष पर एक मनुष्य ने अपने पैरों से प्रहार किया। देवता और सप्तर्षि ये सोच कर चिंतित हो उठे कि अब पता नहीं भृगु को इस अपराध का क्या दंड मिले।
नारायण पर प्रहार करते ही महर्षि भृगु उनकी माया से बाहर निकल आये। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने कितना बड़ा पाप कर दिया है तो लज्जा के मारे उनके नेत्र ना उठे। उसी समय भृगु के पाद प्रहार के कारण नारायण जागे और इससे पहले भृगु कुछ समझ पाते, भगवान विष्णु ने शेषशैय्या से उतर कर उनके पैर पकड़ लिए। उन्होंने कहा - "हे महर्षि! आपने मेरे वज्र समान वक्ष पर प्रहार किया। कही उससे आपके पैरों में कोई आघात तो नहीं पहुँचा? मैं अत्यंत लज्जित हूँ कि मेरे कारण आपको ऐसा कष्ट उठाना पड़ा।"
अब क्या था? महर्षि भृगु नारायण के चरणों में गिर गए और अपने अश्रुओं से उनके चरण पखारने लगे। आत्मग्लानि के कारण उनके अश्रु रुक ही नहीं पा रहे थे। अंततः नारायण ने स्वयं उन्हें उठाया और उनके अश्रु पोंछे। तब उनकी इस विनम्रता से अभिभूत महर्षि भृगु ने समस्त जगत में घोषणा की - "ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का महत्त्व एक सामान ही है किन्तु इन तीनों में केवल भगवान् विष्णु ही त्रिगुणातीत हैं।" जय श्रीहरि!
अपने पति के वक्ष में पाद प्रहार करने के कारण ही देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु से रुष्ट हो कर चली गयी थी। तब श्रीहरि को तिरुपति बालाजी का रूप लेकर उन्हें पुनः प्राप्त करना पड़ा था। इसके विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
Vishnu
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