भूरिश्रवा महाभारत के सबसे प्रसिद्ध योद्धाओं में से एक थे। इन्होने महाभारत युद्ध में कौरवों के पक्ष से युद्ध किया था। कौरव सेना के प्रधान सेनापति भीष्म ने अपनी ११ अक्षौहिणी सेना के लिए जिन ११ सेनापतियों का चयन किया था, भूरिश्रवा उन सेनापतियों में से एक थे। भूरिश्रवा का वध युद्ध के १४वें दिन सात्यिकी ने किया था। वास्तव में भूरिश्रवा कुरुवंशी ही थे और महाभारत युद्ध में उनके साथ उनके पिता और दादा ने भी युद्ध किया था।
चक्रवर्ती सम्राट ययाति से समस्त राजवश चले। उनके सबसे बड़े पुत्र यदु से यदुवंश चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। इसी कुल में एक योद्धा हुए शिनि, जो श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के मित्र थे। शिनि के पुत्र हुए महारथी सात्यिकी जो श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र थे। शिनि ने वसुदेव के साथ कई युद्धों में भाग लिया था और उनके प्राणों की रक्षा की थी। दोनों तत्कालीन राजा उग्रसेन और उसके पश्चात कंस के विश्वासपात्र थे।
दूसरी ओर ययाति के सबसे छोटे पुत्र पुरु से पुरुवंश चला जिसमे दुष्यंत, भरत, कुरु, हस्ती इत्यादि महान सम्राट हुए। इसी वंश में एक प्रतापी सम्राट हुए प्रतीप। उनके तीन पुत्र थे - देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु। देवापि ने संन्यास ग्रहण कर लिया और बाह्लीक हस्तिनापुर की सीमा बढ़ाने और उसकी सुरक्षा का दायित्व उठा कर युद्ध में रत हो गए। इसी कारण सिंहासन प्रतीप के सबसे छोटे बेटे शांतनु को प्राप्त हुआ। शांतनु ने गंगा से विवाह किया जिनसे उन्हें ८ संतानें हुईं। ७ शीघ्र मुक्त हो गए और ८वें पुत्र गंगापुत्र देवव्रत हुए जो भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।
प्रतीप के पुत्र बाह्लीक के पुत्र हुए सोमदत्त जो अपने पिता की भांति ही श्रेष्ठ योद्धा थे। सोमदत्त भीष्म के चचेरे भाई थे। इन्ही सोमदत्त के पुत्र हुए भूरिश्रवा जो भीष्म के भतीजे थे। इस प्रकार भूरिश्रवा कुरुवंशी ही थे और उन्होंने युद्ध में अपने पिता सोमदत्त और दादा बाह्लीक के साथ कौरव पक्ष का साथ दिया। इस प्रकार एक ही वंश की तीन पीढ़ियों ने महाभारत युद्ध में हिस्सा लिया।
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। कंस की बहन थी देवकी जो भगवान श्रीकृष्ण की माता थी। यादवों ने देवकी का स्वयंवर बड़ी धूम-धाम से रचाया जिसमे वसुदेव, शिनि और अन्य यादव वीरों ने भाग लिया। किन्तु देवकी के रूप और गुण की चर्चा इतनी थी कि कुरु राजकुमार बाह्लीक पुत्र सोमदत्त भी उस स्वयंवर में भाग लेने आये। किन्तु यादव नहीं चाहते थे कि यादवों की कन्या कुरुओं से ब्याही जाये। इसी कारण वहाँ देवकी को प्राप्त करने हेतु सभी योद्धा आपस में उलझ पड़े।
शिनि ये जानते थे कि वसुदेव देवकी से प्रेम करते हैं इसीलिए उन्होंने वसुदेव के लिए देवकी का हरण कर लिया और उसे अपने रथ पर लेकर वसुदेव के साथ स्वयंवर स्थल से लेकर भागे। जब सोमदत्त ने शिनि को कन्या का हरण करते हुए देखा तो वे उसका प्रतिकार करने हेतु उनके पीछे लपके। उन्होंने बीच राह में शिनि को युद्ध के लिए ललकारा। तब शिनि ने देवकी को वसुदेव के साथ भेज दिया और वे सोमदत्त को रोकने के लिए वही रुक गए।
दोनों में घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ जो बहुत देर तक चला। किन्तु अंततः शिनि ने सोमदत्त को पराजित कर दिया। वे सोमदत्त का सर काटना चाहते थे किन्तु अंत समय में उन्होंने दया में आकर सोमदत्त को जीवनदान दिया। सोमदत्त लज्जित होकर हस्तिनापुर लौट आये। जब भीष्म ने ये सुना तो उन्होंने यादवों पर आक्रमण करने की ठानी किन्तु फिर सोमदत्त के पिता और उनके चाचा बाह्लीक ने उन्हें ये कहकर रोक लिया कि कन्या तो वसुदेव से ब्याही जा चुकी है इसी कारण उसके लिए इतना व्यापक युद्ध नहीं छेड़ना चाहिए। किन्तु तब तक यादवों और कुरुओं के बीच वैमनस्व बढ़ गया। सोमदत्त अपने अपमान से इतने दुखी हुए कि उन्होंने शिव की तपस्या आरम्भ कर दी।
उधर वसुदेव के विवाह के पश्चात शिनि ने भी महादेव की तपस्या आरम्भ की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे दर्शन दिए तो शिनि ने उनसे एक ऐसे वंशज की मांग की जो सोमदत्त के वंशज का नाश कर सके। तब महादेव ने कहा कि शिनि के पुत्र सत्यक का एक प्रतापी पुत्र होगा जो महान योद्धा बनेगा और जिसपर श्रीकृष्ण की कृपा रहेगी। उन्ही के कृपास्वरूप शिनि के पुत्र सत्यक को एक पुत्र हुआ जिसका नाम उसके पिता के नाम पर "सात्यिकी" रखा गया। वो एक श्रेष्ठ यादव वीर और श्रीकृष्ण के परम मित्र हुए।
उसी दिन महादेव सोमदत्त की तपस्या से भी प्रसन्न हुए और उन्हें भी दर्शन दिए। तब सोमदत्त ने वरदान में एक ऐसे पुत्र की कामना की जो शिनि के पुत्र का वध कर सके। तब महादेव बोले कि उन्होंने पहले ही शिनि को अजेय पुत्र का वरदान दे दिया है इसी कारण वो उसे ऐसे पुत्र का वरदान नहीं दे सकते। किन्तु सोमदत्त की तपस्या विफल ना जाये इसीलिए महादेव ने उसे एक ऐसे पुत्र का वरदान दिया जो शिनि के वंशज को युद्ध में मूर्छित कर सकेगा और अगर उस समय उसे किसी की सहायता ना मिले तो वो उसका वध कर सकेगा। यही नहीं, वो युद्ध में शिनि के उस वंशज के सभी पुत्रों का वध करेगा। उसी वरदान स्वरुप सोमदत्त के पुत्र के रूप में "भूरिश्रवा" ने जन्म लिया।
महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले पितामह भीष्म प्रधान सेनापति बनाये गए। उसके बाद भीष्म ने अपनी ११ अक्षौहिणी सेना के लिए ११ सेनापति नियुक्त किये जिनमे से भूरिश्रवा को १ अक्षौहिणी सेना का सेनापति बनाया गया। महाभारत में वर्णित है कि भूरिश्रवा ने बड़ी कुशलता से अपनी सेना का नेतृत्व किया और भीष्म को युद्ध जीतने में सहायता की। कर्ण के युद्ध में भाग लेने से पहले भूरिश्रवा ने ही पांचालों को रोके रखा।
युद्ध के पांचवें दिन सात्यिकी के १० पुत्र भूरिश्रवा से प्रतिशोध लेने को उससे जा भिड़े। उन १० योद्धाओं ने एक साथ भूरिश्रवा पर आक्रमण कर दिया किन्तु वो बिलकुल भी विचलित नहीं हुए। उनकी युद्धकला बहुत उत्कृष्ट थी और इसी कारण उन्होंने ना केवल उन सभी के प्रहार रोके बल्कि केवल आधे प्रहार के युद्ध में ही उन्होंने सात्यिकी के सभी १० पुत्रों का वध कर दिया।
जब सात्यिकी को अपने पुत्रों के वीरगति को प्राप्त होने का समाचार मिला तो उन्हें भूरिश्रवा पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने ये प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे भी हो किन्तु वो भूरिश्रवा का वध इस युद्ध में अवश्य कर देंगे। इसके बाद भी आने वाले दिनों में सात्यिकी और भूरिश्रवा के बीच युद्ध हुआ किन्तु कोई निर्णय नहीं हो पाया। दोनों के बीच हुए कई युद्धों में दोनों ने एक दूसरे को पराजित किया किन्तु उन्हें एक दूसरे का वध करने का समय नहीं मिला।
उधर युद्ध के १०वें दिन पितामह भीष्म शिखंडी और अर्जुन के छल के कारण धराशायी हो गए। उनके पतन के बाद दोनों पक्षों ने युद्ध के नियमों को ताक पर रख दिया। जो अधर्म पितामह भीष्म के साथ आरम्भ हुआ था उसकी भेंट कई अन्य योद्धा भी चढ़े। युद्ध के १३वें दिन जब अर्जुन सप्तशंशकों से युद्ध में व्यस्त थे तब उनके पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फसा कर ७ महारथियों द्वारा मार डाला गया।
जब अर्जुन को इस बात का पता चला तब उसने अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली। अगले दिन प्रातः अर्जुन और श्रीकृष्ण सबसे पहले जयद्रथ को खोजते हुए कौरव सेना का संहार करते हुए आगे बढ़ने लगे। उनकी सहायता को भीम आगे बढे और कौरव सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब कौरव सेना के सेनापति आचार्य द्रोण ने भूरिश्रवा को जयद्रथ की रक्षा करने को कहा और अर्जुन को रोकने स्वयं आगे बढे।
तब सात्यिकी आगे ढ़ कर भूरिश्रवा से भिड़ गए। दोनों में द्वेष तो था ही, अब भयानक युद्ध छिड़ गया। बहुत देर युद्ध होने के पश्चात अचानक भूरिश्रवा ने अपनी गदा से सात्यिकी के सर पर प्रहार किया। उससे सात्यिकी मूर्छित होकर वही रथ पर गिर पड़े। उसे अपने सामने इस प्रकार पड़े देख भूरिश्रवा उसके वध को आगे बढे। उन्हें ये ज्ञात था कि महादेव के वरदान के अनुसार अब वो उसका वध कर सकते थे।
तभी अचानक अर्जुन और श्रीकृष्ण वहाँ आये और देखा कि सात्यिकी के प्राण संकट में हैं। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वो सात्यिकी की सहायता करे। तब अर्जुन ने कहा - "हे माधव! ये तो युद्ध के नियमों के विरुद्ध है। जब दो योद्धा युद्ध कर रहे हों तो तीसरे को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये अन्याय है।" तब श्रीकृष्ण ने कहा - "पार्थ! इस युद्ध में हम न्याय-अन्याय से बहुत आगे बढ़ आये हैं। कौरवों ने कब धर्म के बारे में सोचा है? और ये भी तो सोचो कि सात्यिकी तुम्हारा मित्र और शिष्य है और इस नाते उसकी रक्षा करना तुम्हारा धर्म है। अतः सात्यिकी की सहायता करो।"
उधर भूरिश्रवा सात्यिकी का वध करने ही वाला था कि अर्जुन ने अपने बाण से उसकी भुजा काट दी। जब भूरिश्रवा ने ये देखा तो कृष्ण और अर्जुन को धिक्कारते हुए बोला - "पुत्र अर्जुन! मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी।कोई कुरुवंशी कभी ऐसी कायरता नहीं कर सकता। जब मुझमे और सात्यिकी में द्वन्द चल रहा था तब तुमने मुझे चेतावनी दिए बिना पीछे से मुझपर प्रहार किया। तुम किस प्रकार अपने आपको वीर कह सकते हो?"
तब श्रीकृष्ण ने कहा - "हे वीरश्रेष्ठ! सात्यिकी अर्जुन का शिष्य था और अर्जुन उसकी रक्षा को वचनबद्ध था। और आपने ही कौन से धर्म का पालन किया? आप उसका वध उस स्थिति में करना चाह रहे थे जब वो मूर्छित है। आप भी अधर्म ही कर रहे थे और उसे रोकना अर्जुन का धर्म था। इस प्रकार मूर्छित योद्धा का वध करने के प्रयास करने के कारण आपको लज्जा आनी चाहिए।
श्रीकृष्ण द्वारा ऐसी बातें सुनकर भूरिश्रवा उस अधर्म से दुखी और क्रोधित होकर वहीँ रणभूमि पर अनशन पर बैठ गए। उसी समय सात्यिकी की मूर्छा टूटी। अपने सामने भूरिश्रवा को इस प्रकार बैठा देख कर उसे धर्म-अधर्म का ज्ञान ना रहा। वो नंगी तलवार लेकर समाधि में बैठे भूरिश्रवा की ओर बढ़ा। ये देख कर दोनों ओर की सेना हाहाकार कर उठी। अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उसे ऐसा करने से मना किया किन्तु उसने तत्काल अपनी तलवार से निहत्थे भूरिश्रवा का सर काट डाला। इस प्रकार छल द्वारा एक और महान योद्धा का वध हुआ।
युद्ध के ३६ वर्ष के बाद प्रभास तीर्थ पर कृतवर्मा ने इस बात का उल्लेख करते हुए सात्यिकी को धिक्कारा कि उसने निहत्थे भूरिश्रवा का वध किया। इससे क्रोधित होकर सात्यिकी ने असावधान कृतवर्मा का भी वध कर डाला। उसी से यादव आपस में लड़ मरे और यादव वंश समाप्त हो गया। इस बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें। ॐ शांति।
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