गोवर्धन पूजा हिन्दू धर्म का एक प्रमुख त्यौहार है जो दीपावली के दो दिन के बाद मनाया जाता है। उत्तरप्रदेश के ब्रज, गोकुल और वृन्दावन में तो दीवाली के अगले दिन से ही गोवर्धन पूजा का आरम्भ हो जाता है। उत्तर भारत, विशेषकर बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखण्ड और मध्यप्रदेश में इस पूजा को धूम धाम से मनाया जाता है। इसका एक नाम अनंतकूट भी है और बिहार में इस पर्व को भाई दूज और चित्रगुप्त पूजा के साथ ही मनाया जाता है। बिहार में इसे अपभ्रंश रूप से "गोधन पूजा" भी कहा जाता है।
इस दिन घर के सभी सदस्य एक जगह इकट्ठे होते हैं और गाय के गोबर से गोवर्धन की प्रतिमा बनाते हैं। उस दिन सभी का भोजन उसी जगह बनता है। उसी गोवर्धन के निकट अन्न को कूट कर उससे विभिन्न प्रकार के पदार्थ बनाये जाते हैं और इसी कारण इसे अन्नकूट भी कहा जाता है। पूजा के बाद सभी गोबर से बनें गोवर्धन की ७ परिक्रमाएं करते हैं। इस दिन दैत्यराज बलि और देवशिल्पी विश्वकर्मा की भी पूजा करने का विधान है।
इसके पीछे की कथा द्वापर युग की है। एक बार श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ घूमने निकले तो उन्होंने देखा कि सभी ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के निकट ही ५६ भोग लगाकर पूजा कर रहे हैं। तब कृष्ण ने पूछा कि आप लोग ये किसकी पूजा कर रहे हैं। इसपर ग्राम वासियों ने बताया कि ये भोग और ये पूजा वृत्रासुर के संहारक और देवताओं के राजा इंद्र के लिए है। उन्ही की कृपा से वर्षा होती है और हमारा घर धन-धान्य से भरा रहता है।
तब कृष्ण ने कहा कि क्या कभी इंद्र ने स्वयं आकर इस भोग को स्वीकार किया है? अगर नहीं, तो फिर उनकी पूजा क्यों कर रहे हैं? इससे अच्छा तो हम सभी को इस गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। यही गोवर्धन हमारे ग्राम के ऊपर जा रहे मेघों को रोकता है जिससे वर्षा होती है। किन्तु अज्ञानता के कारण आपलोग ये समझते हैं कि वर्षा देवराज इंद्र करवाते हैं। अतः आज से ही हमें इंद्रदेव की पूजा छोड़ कर गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।
श्रीकृष्ण की वाक्पटुता के आगे कोई कुछ ना कर सका और सबने गोवर्धन की पूजा आरम्भ कर दी। इससे इंद्र को हविष्य मिलना बंद हो गया। उन्होंने देवर्षि नारद से इसका कारण पूछा। तब नारद ने उन्हें बताया कि ब्रज के निवासियों ने कृष्ण के कहने पर आपकी पूजा छोड़ कर गोवर्धन की पूजा करना आरम्भ कर दिया है। इससे क्रोधित हो देवराज इंद्र ने ब्रजवासियों को दंड देने का निश्चय किया।
उन्होंने मेघों को आदेश दिया कि अपनी पूर्ण गति से ब्रजभूमि पर बरसें। उनके आदेश से ब्रज में मूसलाधार वर्षा होने लगी और सभी नगरजन उससे भयभीत हो नन्द के पास पहुंचे। उन्होंने नन्द से कहा कि आपके पुत्र कृष्ण की बातों आकर हमने देवराज इंद्र की पूजा बंद की जिसका हमें दंड मिल रहा है। अब कृष्ण से कहिये कि वही कोई उपाय करे।
तब श्रीकृष्ण ने कहा कि सब लोग गोवर्धन पर्वत के पास चलिए, अब वही हमारी रक्षा करेंगे। सभी लोग कृष्ण और बलराम के पीछे-पीछे गोवर्धन के पास पहुंचे। उधर इंद्र ने वर्षा और तेज करवा दी। ये देख कर श्रीकृष्ण ने तत्काल पूरे गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठा लिया और उसी के नीचे सभी लोगों ने अपनी गाय और बछड़े सहित शरण ली। अपनी रक्षा होने पर सभी ग्रामजनों ने एक स्वर में श्रीकृष्ण की जय जयकार की। सभी को विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण अवश्य ही चमत्कारी अवतार हैं।
जब इंद्र ने ये देखा तो वे आश्चयचकित रह गए किन्तु उनका कोप शांत नहीं हुआ। उन्होंने वर्षा की गति और तेज कर दी। तब श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र को कहा कि पर्वत के ऊपर रह कर वर्षा से लोगों की रक्षा करें। साथ ही उन्होंने शेषनाग को आदेश दिया कि वे पर्वत के चारो ओर मेड़ बनकर खड़े रहें जिससे वर्षा का पानी लोगों तक ना पहुँच सके। इस प्रकार सभी की पूर्ण सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
क्रोधित इंद्र लगातार ७ दिनों तक वर्षा करते रहे किन्तु कृष्ण और ग्रामवासियों का कुछ ना बिगड़ा। ये देख कर वे परमपिता ब्रह्मा की शरण में गए और उनसे इसका रहस्य पूछा। तब ब्रह्मदेव ने इंद्र को बताया कि जिसे वो साधारण ग्वाला समझने की भूल कर रहे हैं वो स्वयं भगवान विष्णु के पूर्णावतार हैं। तुम्हे तो तभी समझ लेना चाहिए था जब उन्होंने केवल एक अंगुली से पूरे पर्वत को उठा लिया था। अतः अब विलम्ब ना करो और जाकर उनसे क्षमा याचना करो।
ब्रह्मदेव की आज्ञा पाकर देवराज अविलम्ब श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और उनसे अपनी धृष्टता की क्षमा मांगी। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें क्षमा किया और बदले में इंद्र ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि अब वहाँ कभी भी अतिवृष्टि अथवा अनावृष्टि नहीं होगी। उसी दिन से गोवर्धन पूजा का पर्व आरम्भ हुआ। श्रीकृष्ण एक दिन में ८ बार भोजन करते थे और वे ग्रामवासियों की रक्षा के लिए ७ दिन तक भूखे रहे। इसी कारण तब से श्रीकृष्ण को ५६ भोग (८ x ७ = ५६) लगाने की प्रथा भी आरम्भ हुई।
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