माता सती की मृत्यु के उपरांत भगवान शिव बैरागी हो गए। तब सती ने पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। उस जन्म में भी उनका महादेव के प्रति अनुराग था और इसी कारण उन्होंने भगवान शिव की घोर तपस्या की और अंततः उन्हें पति के रूप में प्राप्त किया। दोनों का विवाह बड़ी धूम धाम से हुआ और फिर वे दोनों अपने निवास कैलाश पर लौट आये और कुछ काल उन्होंने बड़े सुख से बिताये।
एक दिन महादेव और देवी पार्वती कैलाश में बैठे हास-परिहास कर रहे थे कि अचानक महादेव ने उन्हें परिहास में "काली" शब्द से सम्बोधित कर दिया। महादेव का ये सम्बोधन माता पार्वती को चुभ गया और वे तत्काल अपने श्याम रंग से मुक्ति पाने हेतु तपस्या के लिए निकल गयी। महादेव ने उन्हें रोकने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु उन्होंने ये निश्चय कर लिया था कि वो गौर वर्ण प्राप्त कर के ही रहेंगी।
वे पृथ्वी पर एक घोर वन में पहुंची और महादेव की तपस्या करना आरम्भ कर दिया। पहले उन्होंने भोजन, फिर जल और अंत में वायु का भी त्याग कर दिया और तपस्या में ऐसी रत हो गयी कि उन्हें किसी और चीज की सुध ही नहीं रही। उसी समय जंगल में घूमता हुआ एक विशाल सिंह वहाँ पहुंचा। उसका आकर इतना विशाल था कि अन्य जानवरो की तो क्या बात है, हाथी भी उसके सामने आने का साहस नहीं करता था। वो शेर कई दिनों से भूखा था और भोजन की खोज में घूम रहा था।
तभी उसकी दृष्टि तपस्या में रत माँ पार्वती पर पड़ी। जब उसने एक मनुष्य को देखा तो उसे खाने को आगे बढ़ा किन्तु जैसे ही वो माता के निकट पहुँचा, उनका तेजस्वी रूप देख कर वो उनपर आक्रमण ना कर सका। दैवयोग से उस सिंह के मन में भी भक्ति का संचार हो गया और वो भी वही माता के निकट बैठ कर उनके समान ही तपस्या करने लगा। ऐसा करते हुए कई वर्ष बीत गए।
माता पार्वती की तपस्या से महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रकट होकर उन्हें गौर वर्ण होने का वरदान दिया। अपनी तपस्या पूर्ण होने और वरदान प्राप्त करने के पश्चात माता ने वही एक सरोवर में स्नान किया। स्नान करते ही महादेव के वरदान स्वरुप उनके शरीर से एक गौर वर्णीय देवी प्रकट हुई जो "गौरी" कहलाई। उनका श्याम रूप जो बच गया वो माँ "कौशकी" के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जब वे स्नान कर आई तो उन्होंने देखा कि वहाँ एक सिंह उन्ही की भांति तपस्यारत है। उन्हें पता चल गया कि इतने वर्षों तक उनके समान उस सिंह ने भी तपस्या की है। तब उन्होंने उस सिंह को चेतना प्रदान की और अपने प्रति उसका ऐसा अनुराग और भक्ति देख कर माता ने उसे अपना वाहन बनने का वरदान दिया। तब से ही सिंह माता का वाहन है और उनका एक नाम शेरावाली भी है।
इसके विषय में एक और कथा का वर्णन है। जब तारकासुर ने उत्पात मचाया तब महादेव और पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। स्कन्दपुराण में ऐसा वर्णन है कि उस युद्ध में कार्तिकेय का युद्ध तारकासुर के दो भाई "सिंहमुखम" और "सुरापदमन" से हुआ। उस युद्ध में कार्तिकेय ने दोनों भाइयों को परास्त किया। पराजित होने के बाद सिंहमुखम उनसे अपने प्राणों की भिक्षा मांगने लगा। तब कार्तिकेय ने उसे एक सिंह का रूप देकर माता दुर्गा का वहाँ बनने का आशीर्वाद दिया। तब से सिंह माँ दुर्गा का वाहन है। जय माता दी।
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