गयासुर

गयासुर
पिछले लेख में आपने महर्षि मरीचि की सती पत्नी और धर्मराज की पुत्री धर्मव्रता के बारे में पढ़ा जो उनके श्राप के कारण एक शिला में परिणत हो गयी। बाद में ब्रह्मदेव की आज्ञा के अनुसार धर्मराज ने शिलरूपी अपनी पुत्री को धर्मपुरी में रख दिया। इसी कथा से सम्बद्ध एक और कथा आती है जो गयासुर की है। दैत्यकुल में एक से एक दुर्दांत दैत्य हुए किन्तु जिस प्रकार कीचड में ही कमल खिलता है, उसी प्रकार दैत्य कुल ने महान भगवत भक्त भी इस संसार को दिए। प्रह्लाद, बलि इत्यादि भक्तों के श्रेणी में ही गय नामक दैत्य भी था।

गय, जिसे गयासुर भी कहा जाता है, की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं। सनत्कुमार और देवर्षि नारद के वार्तालाप में इस बात का वर्णन आया है कि गयासुर की उत्पत्ति स्वयं परमपिता ब्रह्मा से हुई थी। हालाँकि उसका सम्बन्ध महर्षि कश्यप और दिति की संतानों के वंश में बताया गया है। कश्यप और दिति की संतानें ही दैत्य कहलाई और उसी कुल में गय दैत्य भी जन्मा। 

गय जन्म से ही भक्ति-भाव में डूबा रहता था। उसका शरीर बहुत विशाल था। भागवत में ऐसा वर्णन आया है कि गयासुर का शरीर १२५ योजन लम्बा और ६० योजन चौड़ा था। एक बार उसने तपस्या करने की ठानी और कोलाहल नामक पर्वत पर १००० वर्षों तक श्रीहरि की घोर तपस्या की। उसके तप के प्रभाव से डरकर इन्द्रादि देवता ब्रह्माजी के पास पहुँचे और उनसे इसका निराकरण करने को कहा। तब ब्रह्मदेव उन सभी को लेकर भगवान शिव के पास पहुँचे। 

महादेव ने उनसे कहा कि अगर कोई भी मनुष्य तप करता है तो उसे उसका फल प्राप्त होता ही है। वैसे भी गयासुर भगवान विष्णु की तपस्या कर रहा है अतः हमें नारायण से ही इसका उपाय पूछना चाहिए। तब महादेव ब्रह्मा और अन्य देवताओं को लेकर भगवान विष्णु के पास पहुँचे। वहाँ भगवान विष्णु ने उन सभी का स्वागत किया और कहा कि वे गयासुर की तपस्या से अत्यंत प्रसन्न है अतः वे उन्हें अवश्य ही दर्शन देंगे। साथ ही उन्होंने देवराज इंद्र को आश्वासन दिया कि वे गयासुर को स्वर्ग का राज्य नहीं देंगे।

इसके बाद श्रीहरि ने गयासुर को दर्शन दिए और उससे पूछा कि वो क्यों इतना घोर तप कर रहा है? तब गयासुर ने उन्हें कहा कि वो तो केवल उन्ही के दर्शन हेतु तप कर रहा था। उसकी सच्चरित्रता देखकर श्रीहरि बड़े प्रसन्न हुए और उससे कोई भी वरदान मांगने को कहा। अब गयासुर सोचने लगा कि वो उनसे क्या आशीर्वाद मांगे। उसके मन में तो सदैव जीवमात्र के कल्याण की चिंता रहती थी। उसने सोचा कि अगर वो सभी जीवों की मुक्ति का साधन बन सके तो उससे सभी का बड़ा कल्याण होगा। 

ये सोचकर गयासुर ने भगवान विष्णु से कहा - "हे सर्वेश्वर! वैसे तो आपके दर्शनों के अतिरिक्त मेरी और कोई लालसा नहीं है किन्तु यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो ये वरदान दीजिये कि मेरे दर्शन मात्र से कोई भी जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाये।" भगवान विष्णु ने उसे वैसा ही वरदान दिया और वापस अपने लोक लौट गए।

अब तो गयासुर का माहात्म्य और भी बढ़ गया। कोई भी प्राणी जो उसे देख लेता सीधा वैकुण्ठ को चला जाता था। इस कारण यमपुरी खाली हो गयी और सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया। पापी पुरुष अब बिना किसी भय के पास करने लगे कि एक बार गयासुर के दर्शन करने से तो उन्हें मोक्ष प्राप्त हो ही जाएगा। सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गयी। गयासुर ने जीव कल्याण के लिए जो वरदान माँगा था वही जीवों के लिए श्राप बन गया। सृष्टि की जो दशा धर्मव्रता के कारण हो गयी थी वही गयासुर के कारण भी हो गयी।

अब जगत में बड़ी अवव्यस्था फ़ैल गयी। ये देख कर सभी देवता श्रीहरि की शरण में पहुँचे और उनसे कहा कि उन्ही के वरदान के कारण गयासुर समस्त संसार को मोक्ष प्राप्त करवा रहा है। मोक्ष की प्राप्ति तो स्वयं देवताओं के लिए भी कठिन है किन्तु आपके वरदान के कारण दुष्ट और पापी भी केवल गयासुर के दर्शन कर मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं। अब आप कृपया हमें इस अव्यवस्थ से बचाएं। 

देवताओं की विनती सुनकर श्रीहरि विष्णु ब्रह्मदेव के पास गए और उनसे कहा कि आप जगत कल्याण के लिए एक महान यज्ञ कीजिये और उस यज्ञ की भूमि के लिए गयासुर से उसका शरीर मांग लीजिये। इस प्रकार सृष्टि के भले के लिए गयासुर ने जो वरदान माँगा है, जो वास्तव में सृष्टि में असंतुलन पैदा कर रहा है, जगत को उससे मुक्ति मिल जाएगी।

ये सुनकर ब्रह्मदेव गयासुर के पास पहुँचे। जब गयासुर ने परमपिता को स्वयं अपने समक्ष पाया तो उन्हें दंडवत प्रणाम कर कहा - "हे परमेश्वर! मेरे अहोभाग्य जो आपने मुझे दर्शन दिए। आपके दर्शनों के लिए तो स्वयं देवताओं को भी घोर तप करना पड़ता है फिर क्या कारण है कि आप स्वयं मेरे समक्ष उपस्थित हुए हैं?" ये सुनकर ब्रह्मदेव उससे बोले - "हे भक्तश्रेष्ठ! श्रीहरि की इच्छा है कि पृथ्वी पर एक ऐसा यज्ञ हो जैसा ना आज से पहले कभी हुआ हो और ना ही आज के बाद कभी वैसा यज्ञ हो सके। उनकी ये भी इच्छा है कि उस यज्ञ को स्वयं मैं संपन्न करवाऊं। किन्तु उस यज्ञ में एक अड़चन है जिसे केवल तुम ही दूर कर सकते हो। यही कारण है कि आज मैं तुम्हारे पास आया हूँ।"

तब गयासुर ने प्रसन्न होते हुए कहा - "मेरे अहोभाग्य जो स्वयं परमपिता मुझसे किसी सहायता की आशा करते हैं। मैं तो स्वयं जगत के कल्याण हेतु तत्पर रहता हूँ। आपने जिस यज्ञ की कामना की है वो तो निश्चय ही समस्त संसार को सुख प्रदान करने वाला होगा। ऐसे यज्ञ का आयोजन तो अवश्य होना चाहिए। किन्तु उसमें अड़चन क्या है? आप मुझे बताएं, मैं उस समस्या के निवारण का पूरा प्रयास करूँगा।"

तब ब्रह्मदेव ने कहा - "गयासुर! अड़चन ये है कि श्रीहरि के अनुसार वो यज्ञ किसी ऐसी भूमि पर होना चाहिए जो विश्व में सबसे अधिक पवित्र हो। उससे प्रवित्र ना को मानव, ना देव, ना गन्धर्व और ना ही कोई सिद्ध महर्षि ही हो। मुझे यज्ञ के लिए एक ऐसी भूमि चाहिए जिसे केवल देखने मात्र से मनुष्य जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाये। उस भूमि का पुण्य ऐसा हो जिसे देखने से समस्त जीव सीधे वैकुण्ठ जा सकें।"

ये सुनकर गयासुर आश्चर्य में पड़ गया और बहुत सोचने के बाद उसने कहा - "हे परमपिता! आपने जिस प्रकार की भूमि की आकांक्षा की है वैसी भूमि तो मिलना असंभव है। फिर जिस भूमि को स्वयं आप नहीं खोज पा रहे हैं जिसने समस्त सृष्टि की रचना की है तो मैं उसे किस प्रकार ढूंढ सकता हूँ। किन्तु एक स्थान ऐसा है जो आपकी सभी शर्तों को पूर्ण कर सकता है और वो मेरा शरीर है। स्वयं श्रीहरि के आशीर्वाद से जो कोई भी मेरे शरीर के दर्शन मात्र करता है वो मुक्त हो जाता है। अतः उस यज्ञ की भूमि हेतु मैं स्वयं अपना शरीर समर्पित करता हूँ। आप निश्चिंत हो मेरे शरीर पर वो यज्ञ संपन्न करें।

तब ब्रह्मदेव ने कहा - "हे गयासुर! तुम वास्तव में भक्तों में श्रेष्ठ हो। अपने शरीर का इस प्रकार दान देना हर किसी के लिए संभव नहीं है। तुम्हारे इस त्याग के कारण तुम्हारा नाम महर्षि दधीचि के सामान आदर से लिया जाएगा। तुम्हारे शरीर पर किया जाने वाला ये यज्ञ तीनों लोकों में अद्वितीय होगा।" ये कहकर ब्रह्मदेव यज्ञ की तैयारियों के लिए वापस अपने लोक चले गए।

ब्रह्मदेव द्वारा अपना शरीर दान में मांगने के पश्चात गयासुर दक्षिण पश्चिम दिशा में पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके चरण दक्षिण दिशा की ओर तथा सर पश्चिम दिशा की ओर कोलाहल पर्वत पर जा गिरा। इस प्रकार १२५ योजन लम्बे और ६० योजन चौड़े उसके शरीर पर स्वयं ब्रह्मदेव यज्ञ करने को बैठे। उन्होंने यज्ञ करना आरम्भ ही किया था कि गयासुर का विशाल शरीर हिलने लगा। 

तब ब्रह्मदेव ने अपने तेज से ४० ऋत्विजों को उत्पन्न किया और उसे भी गयासुर के शरीर पर विराजमान होने को कहा। उनकी आज्ञा अनुसार वे ४० ऋत्विज गयासुर के शरीर पर बैठ गए किन्तु फिर भी उसका शरीर हिलता रहा। अब ब्रह्मदेव ने सभी देवताओं को गयासुर के शरीर पर विराजमान होने को कहा ताकि उसका शरीर स्थिर हो सके किन्तु सभी देवताओं के विराजित होने के बाद भी गयासुर का शरीर, विशेषकर सर हिलता ही रहा।

तब ब्रह्मदेव ने धर्मराज से कहा कि आपने जो महान शिला अपने लोक में रखी है जो वास्तव में आपकी पुत्री धर्मव्रता ही है, उसे लेकर गयासुर के सर पर रख दीजिये। तब उनकी आज्ञा के अनुसार धर्मराज ने धर्मपुरी में रखी शिलरूपी अपनी पुत्री धर्मव्रता को लाकर गयासुर के सर पर रख दिया। किन्तु वो धर्मात्मा उस अत्यंत पवित्र शिला के साथ भी हिलता रहा। 

अब ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। तब श्रीहरि ने अपने ही रूप से एक मूर्ति प्रकट की और उसे गयासुर पर रखने को कहा। साक्षात् विष्णु रुपी उस मूर्ति को भी जब गयासुर पर रखा गया तब भी उसका हिलना बंद नहीं हुआ। तब अंततः भगवान विष्णु ने महादेव से सहायता मांगी। तब महेश्वर ने कहा कि हम त्रिदेव स्वयं इस असुर पर स्थित होते हैं तभी ये स्थिर हो सकता है। 

तब ब्रह्मा अपने पाँच रूपों (प्रपितामह, पितामह, फल्ग्वीश, केदार एवं कनकेश्वर) में गयासुर पर बैठ गए। श्रीहरि अपने तीन रूपों (जनार्दन, पुण्डरीक एवं गदाधर) में गयासुर पर विराजे। अंत में भगवान शंकर अपने एक रूप के साथ गयासुर के शरीर पर विराजमान हुए। फिर श्रीहरि ने अपने गदा को गयासुर के सर पर रखी धर्मव्रता की शिला पर रखकर उसे स्थिर कर दिया। इसी कारण भगवान विष्णु का एक नाम गदाधर भी हुआ।

तब गयासुर ने कहा - "हे श्रीहरि! मुझे तो वरदान भी आपसे ही प्राप्त हुआ था। यज्ञ हेतु मैं अपना शरीर पहले ही भगवान ब्रह्मा को दान में दे चुका हूँ। फिर आप क्यों इस प्रकार मुझे अपनी विशाल गदा से प्रताड़ित कर रहे हैं? जब मैं अपना सब कुछ त्याग सकता हूँ तो क्या केवल आपकी आज्ञा पर स्थिर नहीं हो सकता? यदि आप, ब्रह्मदेव या महादेव में कोई भी मुझे केवल एक बार ही आज्ञा दे दे तो मैं स्थिर हो जाऊंगा।"

उसके ऐसे वचन सुनकर त्रिदेव बड़े प्रसन्न हुए और उसे स्थिर होने की आज्ञा दी। तब गयासुर उनकी आज्ञानुसार स्थिर हो गया। उसकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर त्रिदेवों से उसे वरदान माँगने को कहा। तब गयासुर ने कहा - "हे परमेश्वर! अगर आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे ये वरदान दीजिये कि जब तक सृष्टि रहे तब तक आप त्रिदेव मुझपर स्थित रहें। ये महान तीर्थ मेरे नाम पर जाना जाये। मुझपर स्थित सभी देवता यहाँ मूर्ति रूप में रहें और इस स्थान पर सच्चे मन से पूजा करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति हो।"

तब त्रिदेवों ने उसे ऐसा ही वरदान दिया और तभी से ५ कोस में फैला वो तीर्थ "गयातीर्थ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त ब्रह्मदेव ने सभी ऋत्विजों को गया नगर, ५५ गांव, कल्पवृक्ष और कामधेनु प्रदान की और सबको आज्ञा दी कि वे कभी किसी से कुछ मांगे नहीं। किन्तु बाद में कुछ ब्राह्मणों ने लोभवश वहाँ यज्ञ कर दक्षिणा मांगी। तब ब्रह्मदेव ने श्राप देकर उनका सब कुछ छीन लिया। तब उन ब्राह्मणों ने उनसे रोते हुए जीविका का साधन माँगा। तब ब्रह्मदेव ने कहा कि वे गयातीर्थ पर आने वाले यात्रियों के दान पर जियें।

त्रिदेवों सहित गयासुर के सर पर स्थित शिलरूपी धर्मव्रता "प्रेतशिला" के नाम से प्रसिद्ध हुई। आज भी जो कोई भी तीर्थों में श्रेष्ठ गयातीर्थ में सच्ची श्रद्धा से पूजा करता है उसे त्रिदेवों सहित सभी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये जो तस्वीर इस लेख में लगाई गयी है उसे बड़ा कर अवश्य देखें। इसमें गयासुर और सभी देवताओं का वर्णन किया गया है। जय गयातीर्थ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।