कथा महाभारत के वन पर्व की है। युधिष्ठिर अपना सारा राज पाठ द्युत में हार कर अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ १२ वर्षों के लिए वन चले गए। वहाँ सभी भाई, विशेषकर युधिष्ठिर ऋषियों-महर्षियों के सानिध्य में अपना दिन काट रहे थे। उनसे मिली शिक्षा उनके मनोबल को और दृढ करती थी। उसी समय लोमश ऋषि घुमते हुए उनके आश्रम में आये। सभी भाइयों ने उनकी बड़ी सेवा की।
तब युधिष्ठिर ने कहा - "हे महर्षि! अपने अंदर पल रहे प्रतिशोध की भावना पर कैसे अंकुश लगाया जा सकता है? आपको तो पता है कि हमारे साथ क्या हुआ है यही कारण है कि हमारे, विशेषकर भीमसेन के ह्रदय में सदैव प्रतिशोध की भावना रहती है।" तब लोमश ऋषि ने कहा - "पुत्र! प्रतिशोध की भावना सदैव अहित ही करती है अतः इससे बच कर ही रहना चाहिए। प्रतिशोध का क्या परिणाम हो सकता है ये बताने के लिए मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ।"
प्राचीन काल में रैभ्य एवं भारद्वाज नामक दो तपस्वी ऋषि थे जिनमे घनिष्ठ मित्रता थी। ऋषि रैभ्य महर्षि विश्वामित्र के पौत्र थे और भारद्वाज देवगुरु बृहस्पति के वंशज थे। जहाँ रैभ्य वेद-वेदाङ्गों के अध्ययन पर जोर देते थे वहीँ भारद्वाज संन्यास को श्रेष्ठ मानते थे। विपरीत विचारधारा होने के बाद भी दोनों ऋषियों में कभी भी किसी भी प्रकार का वैमनस्य नहीं रहता था। दोनों अपने अपने क्षेत्र के प्रकांड पंडित थे।
रैभ्य मुनि के दो पुत्र थे - परावसु एवं अर्वावसु। भारद्वाज मुनि का केवल एक ही पुत्र था - यवक्रीत। ऋषि रैभ्य ने परावसु एवं अर्वावसु को भी अपने ही सामान वेदों और शास्त्रों का पारंगत पंडित बनाया। दूसरी और यवक्रीत का मन कभी भी अध्ययन में नहीं लगता था। ज्ञानी होने के कारण परावसु एवं अर्वावसु का सभी सम्मान करते थे किन्तु यवक्रीत को कोई भी ब्राह्मण अपने साथ बिठाना नहीं चाहता था। ये देख कर यवक्रीत को दोनों भाइयों से बड़ी ईर्ष्या होती थी।
उसके पिता भारद्वाज उसे सदा अध्ययन करने को बोलते थे किन्तु शिक्षा यवक्रीत के स्वाभाव में ही नहीं थी। किन्तु समाज में कहीं मान ना मिलने के कारण अंततः यवक्रीत ने ये निर्णय किया कि वो घोर तप करेगा। उसने अपने पिता से विदा ली और देवराज इंद्र की घोर तपस्या करने लगा। दैवयोग से उस समय वर्षा ना होने के कारण अकाल पड़ गया। तब वहाँ के राजा ऋषि भारद्वाज के पास आये और उनसे उस आपदा का उपाय पूछा। तब भारद्वाज ने उन्हे लगातार ७ वर्षों तक यज्ञ कर इंद्र को प्रसन्न करने को कहा।
तब राजा भारद्वाज से कहा कि आप ही ये यज्ञ करवाइये। तब उन्होंने कहा कि वे तो संन्यास की श्रेष्ठता को मानते हैं और कर्मकांडों का आयोजन नहीं करवाते। किन्तु राजा के बड़ा आग्रह करने पर उन्होंने उसे अपने मित्र रैभ्य के पास भेज दिया। रैभ्य ने राजा का स्वागत किया और कहा कि अब वे वृद्ध हो चुके हैं इसी कारण अनवरत ७ वर्षों तक यज्ञ नहीं करवा सकते।
अब राजा बड़े धर्म संकट में पड़ गए कि क्या किया जाये। उनकी समस्या देखकर ऋषि रैभ्य ने अपने परम ज्ञानी ज्येष्ठ पुत्र परावसु को उनकी जगह यज्ञ को पूरा करवाने के लिए राजा के साथ जाने को कहा। परावसु का विवाह कुछ समय पूर्व ही सुप्रभा नामक कन्या से हुआ था किन्तु अपने पिता की आज्ञा पालन करने को वे ७ वर्षों के लिए राजा के साथ चले गए।
जहाँ रैभ्य के पुत्र परावसु एवं अर्वावसु विद्वान थे वहीँ भारद्वाज का पुत्र यवक्रीत को शिक्षा प्राप्त करने में कोई रूचि नहीं थी। परावसु को वहाँ के राजा ७ वर्षो के यज्ञ को करवाने हेतु अपने साथ ले गए। उधर दूसरों द्वारा सम्मान ना प्राप्त होने के कारण यवक्रीत भी तपस्या करने वन को चले गए। यवक्रीत ने देवराज इंद्र की घोर तपस्या की। उसके तप से प्रसन्न होकर देवराज ने उसे दर्शन दिए और वर माँगने को कहा। तब यवक्रीत ने उनसे वर माँगा कि उसे संसार की सभी विद्या और सिद्धि प्राप्त हो जाये। इसपर देवराज इंद्र ने उससे हँसकर पूछा - "हे वत्स! जब तुम्हे स्वयं अपने पिता से ज्ञान और सिद्धि सहज ही प्राप्त हो सकती है फिर क्यों तुम इस प्रकार कठोर तप कर रहे हो?"
इसपर यवक्रीत ने कहा - "भगवन! शिक्षा में मेरी कोई रूचि नहीं है। अगर मुझे परिश्रम करना ही है तो मैं तप में करना उचित समझता हूँ। मैंने आपको अपने तप से प्रसन्न किया है अतः आप मुझे यही वरदान दीजिये कि मुझे बिना अध्ययन किये ही संसार की सभी विद्या प्राप्त हो जाये।" तब इंद्र ने कहा - "पुत्र! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न अवश्य हूँ किन्तु बिना उद्योग किये इस संसार में कुछ प्राप्त नहीं होता। अतः जो परिश्रम तुम तप करने में कर रहे हो उसी परिश्रम से विद्या अध्ययन करो, तो तुम स्वयं ही संसार के सबसे विद्वान व्यक्ति बन जाओगे।"
ये कहकर इंद्र उसे वरदान दिए बिना वापस चले गए। अब यवक्रीत निराश हो गया और सोचने लगा कि क्या उसे वास्तव में देवराज के कहे अनुसार विद्या प्राप्त करनी चाहिए? ये सोच कर उसने अध्ययन करने का प्रयास किया किन्तु केवल एक ही दिन में उसने अध्यन छोड़ पुनः देवराज इंद्र की आराधना आरम्भ कर दी। यवक्रीत उन मनुष्यों में से था जो थोड़ा मानसिक श्रम करने से कठोर शारीरिक कष्ट सहन करना उचित समझते हैं।
उसने लगातार ७ वर्षों तक पुनः घोर तपस्या की जिससे देवराज इंद्र को पुनः उसे दर्शन देना पड़ा। जब उन्होंने यवक्रीत से वर माँगने को कहा तो उसने पुनः वही वर माँगा कि उसे बिना पढ़े ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाये। तब इंद्र ने पुनः उसे समझने का प्रयत्न किया कि ज्ञान प्राप्त करने का जो मार्ग तुमने अपनाया है वो सही नहीं है। इस प्रकार प्राप्त की हुई विद्या कभी काम में नहीं आती है। किन्तु यवक्रीत अपनी बात पर अड़ा रहा। ये देख कर इंद्र ने उससे कहा कि ठीक है किन्तु पहले तुम नदी तट से स्नान करके आओ।
इंद्र की बात सुनकर यवक्रीत प्रसन्नता पूर्वक नदी के तट पर पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति नदी के किनारे पड़ी रेत को नदी में डाल रहा है। ये देखकर यवक्रीत ने उससे पूछा कि "हे वृद्धवर! आप ये क्या कर रहे हैं?" तब उस वृद्ध ने कहा - "पुत्र! मैं इस नदी पर पुल बनाने का प्रयास कर रहा हूँ।" ये सुनकर यवक्रीत को हँसी आ गयी। उसने हँसते हुए कहा - "महाराज! आपके मुट्ठी भर रेत डालने से गंगा पर पुल नहीं बन सकता अतः ये व्यर्थ प्रयास छोड़ दें।"
तब उस वृद्ध ने कहा - "पुल कैसे नहीं बन सकता? अगर भारद्वाज पुत्र यवक्रीत बिना अध्ययन किये ही विद्वान बन सकता है तब मैं भी इस नदी पर पुल बना सकता हूँ।" ये सुनकर यवक्रीत चौंका और उसने वृद्ध के रूप में देवराज इंद्र को पहचान लिया। उसने कहा - "हे देवराज! आपकी शिक्षा मेरी समझ में तो आ गयी किन्तु मैं क्या करूँ? मेरे लिए अध्ययन संभव ही नहीं है। अगर आप मुझे अब वर नहीं देते तो मैं निश्चय ही अपने हाँथ-पैर काट डालूंगा और स्वयं को अग्नि में झोंक दूंगा।"
यवक्रीत का ऐसा हठ देख कर अंततः इंद्र को उसे वरदान देना ही पड़ा। उन्होंने कहा - "हे ब्राह्मणपुत्र! तुम वापस अपने पिता के पास जाओ। शुभ समय में वेद स्वयं तुम्हारे और तुम्हारे पिता के समक्ष प्रकट होंगे और उस समय मेरे वरदान से तुम अपने पिता द्वारा उस ज्ञान को प्राप्त कर सकोगे और विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त करोगे।" ये सुनकर यवक्रीत प्रसन्नता पूर्वक अपने पिता के पास लौटा और इंद्र के वरदान के कारण उसने अंततः ज्ञान प्राप्त कर ही लिया।" देवराज ने हालाँकि उसके हठ के कारण उसे वरदान अवश्य दिया किन्तु वे जानते थे कि इस प्रकार प्राप्त वरदान से किसी का कल्याण नहीं होता और यवक्रीत को भी इसका मूल्य चुकाना पड़ेगा।
जब यवक्रीत लौट कर आया तब तक सभी जगह ये प्रसिद्ध हो चुका था कि उसने इंद्र को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया है। अब विद्वानों की सभाओं में उसकी भी पूछ होने लगी। जब कोई व्यक्ति लगन और कड़े परिश्रम से स्वयं को प्रशंसा के योग्य बनाता है तो उसे ये ज्ञात रहता है कि उसे कोई सम्मान क्यों दे रहा है। यही कारण है कि उनके व्यहवार में स्थिरता होती है। किन्तु यवक्रीत के साथ ऐसा नहीं था। उसे वरदान उसके हठ के कारण प्राप्त हुआ था। यही कारण था कि शीघ्र ही यवक्रीत के मन में घमंड ने अपना घर कर लिया। अब वो अपने समक्ष किसी को कुछ ना समझने लगा।
एक बार यवक्रीत भ्रमण कर रहा था कि उसकी दृष्टि परावसु की पत्नी सुप्रभा पर पड़ी। उसका सौंदर्य देखकर यवक्रीत हित-अहित भूल गया। उसे ये भी ध्यान ना रहा कि वो एक ब्याहता स्त्री है। जब सुप्रभा ने यवक्रीत को देखा तो उसका स्वागत किया किन्तु शीघ्र ही उसकी बातों से उसे यवक्रीत की नीयत का पता चल गया। पहले यवक्रीत ने सुप्रभा को अपनी मधुर बातों से रिझाना चाहा किन्तु जब वो सफल ना हो सका तो उसने सुप्रभा को बलात वश में करना चाहा। सुप्रभा बहुत कठिनाई से वहाँ से भागी और अपने आश्रम पहुँची।
वहाँ जब रैभ्य ने अपनी पुत्रवधु की ऐसी दशा देखी तो उसका कारण पूछा। तब सुप्रभा ने उन्हें सब कुछ बता दिया। ये देख कर ऋषि रैभ्य आग-बबूले हो गए। उन्होंने यवक्रीत को धिक्कारते हुए कहा - "रे अधम यवक्रीत! तेरा ये दुःसाहस! क्या देवराज इंद्र से तूने यही ज्ञान प्राप्त किया है कि किसी परस्त्री पर कुदृष्टि डाले? मैं तुझे इसका दंड दूँगा। मैं कृत्य का आह्वान करता हूँ और उसे तेरे प्राण लेने भेजूंगा। अपने मित्र भारद्वाज का मैं सम्मान करता हूँ इसीलिए अगर तुझे अपने प्राण बचाने हों तो अपने पिता के आश्रम में छिपा रह। किसी अन्य स्थान पर और कोई तुझे नहीं बचा सकता।"
ये कहकर रैभ्य ने अपनी एक जटा को तोडा और उसे अभिमंत्रित कर धरती पर पटका। उस जटा से काजल से भी काले और यम से भी भयंकर एक कृत्य की उत्पत्ति हुई। उसका रूप ऐसा भयानक था कि सुप्रभा तो उसे देख कर ही मूर्छित हो गयी। वो महाकाय कृत्य अपना विकराल शूल लेकर यवक्रीत को खोजने निकला। उधर गाँव के लोगों ने यवक्रीत को उस कृत्य के विषय में सूचित किया और कहा कि वो तत्काल अपने पिता के आश्रम चला जाये किन्तु यवक्रीत तो अपने पांडित्य पर मुग्ध था। उसे लगा कि वो अपने तपोबल से उस कृत्य को भस्म कर देगा। उसी घमंड में वो बाहर ही कृत्य की प्रतीक्षा करने लगा।
तभी उसे ढूंढता हुआ कृत्य वहाँ पर पहुँचा। उसके आने से दिन में ही अंधकार छा गया, पशु पक्षी भागने लगे और हवाएं तेज चलने लगी। जब यवक्रीत ने उस भयंकर कृत्य को देखा तो भय से कांप उठा। मारे भय के उसकी बुद्धि कुंठित हो गयी और वो मन्त्रों का गलत उच्चारण करने लगा। उसे समझ में आ गया कि उसने कितनी बड़ी गलती कर दी है। वो प्राण बचाने के लिए अपने पिता के आश्रम की ओर भागा किन्तु तब तक देर हो चुकी थी। कृत्य ने उसे मार्ग में ही पकड़ा और अपने शूल के एक ही प्रहार से उसके प्राण हर लिए।
उसकी मृत्यु के पश्चात जब भारद्वाज को इस बात का पता चला तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे जानते थे कि उनके पुत्र ने पाप किया था किन्तु वो स्वयं भी रैभ्य के पुत्र के समान ही था। इसीलिए उसे इतना कठोर दंड देना भारद्वाज को न्याय नहीं ज्ञात हुआ और पुत्रशोक में उन्होंने रैभ्य को श्राप दे दिया कि उनकी मृत्यु स्वयं उनके पुत्र के हाथों ही होगी। जब रैभ्य को इस बात का पता चला तो उन्होंने उसे नियति समझकर स्वीकार कर लिया।
जब यज्ञ की समाप्ति का समय आता है तो उससे केवल १ मास पूर्व परावसु अपनी पत्नी से मिलने आये। उस समय तक उन्हें भारद्वाज ऋषि द्वारा अपने पिता को दिए गए श्राप के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। जब परावसु अपने घर आये तो सुप्रभा और अर्वावसु बड़े प्रसन्न हुए। हालाँकि अर्वावसु को इस बात का आश्चर्य हुआ कि किस प्रकार परावसु यज्ञ को बीच में छोड़ कर केवल १ मास पहले घर वापस आ गए किन्तु उसने कुछ पूछा नहीं।
परावसु भोजन करते हुए दोनों को नगर में होने वाले यज्ञ के बारे में बता रहे थे। तब अर्वावसु ने परावसु से कहा कि उसे भी यज्ञ को देखने की अत्यधिक इच्छा है अतः वो उसे अपने साथ ही नगर ले जाएँ। तब परावसु उसे अपने साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। रात्रि का समय था और उसी समय रैभ्य ऋषि घर की ओर आ रहे थे। जब परावसु ने उनके आने की आहट सुनी तो उन्हें लगा कि कोई वन्य पशु आश्रम में घुस आया है। परावसु ने तत्काल उस दिशा में शब्दवेधी बाण छोड़ा जिससे रैभ्य मुनि की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार भारद्वाज ऋषि का श्राप फलीभूत हो गया।
अब जब परावसु को सत्य का पता चला तो वे बड़े दुखी हुए। एक तो ब्रह्महत्या और वो भी अपने पिता का, इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता था। अब वो यज्ञ करवाने के अधिकारी नहीं रह गए किन्तु यज्ञ अपने अंतिम चरण में था और उसकी सफलता पर उस देश की समृद्धि निर्भर करती थी। तब परावसु ने अर्वावसु को अपने पिता का अंतिम संस्कार करने को कहा और वापस यज्ञ करवाने नगर लौट गए।
अर्वावसु ने अपने बड़े भाई की आज्ञा के अनुसार अपने पिता का अंतिम संस्कार किया और फिर अपने भाई को सूचित करने नगर की यञशाला में पहुँच गए। वहाँ जब परावसु ने अपने भाई को देखा तो वे भयभीत हो गए कि अगर कहीं अर्वावसु ने सबको सत्य बता दिया तो वे इस यज्ञ के राजपुरोहित नहीं रह जायेंगे। इसी कारण उन्होंने अपने भाई को पहचानने से मना कर दिया।
उन्होंने उससे पूछा कि वो कौन है और यहाँ किस लिए आया है? जब अर्वावसु ने अपने भाई को इस प्रकार की बातें करते देखा तो बड़ा आश्चर्यचकित हुआ। किन्तु सबके सामने वो क्या कहता? उसने कहा कि वो एक ब्राह्मण है और अपने पिता का अंतिम संस्कार कर यहाँ आया है। तब परावसु ने पूछा कि उसके पिता की मृत्यु किसके द्वारा हुई? अब अर्वावसु ने सोचा कि परावसु का नाम लेना उचित नहीं है इसी कारण उसने कह दिया कि उनकी मृत्यु उनके पुत्र के हाथों हुई है।
ये सुनते ही परावसु ने राजा से कहा कि इस व्यक्ति ने अपने पिता का वध किया है। ये ब्रह्महत्या का दोषी है अतः इसे यञशाला से बाहर निकाल दिया जाये। राजा की आज्ञा पर प्रहरियों ने अर्वावसु को बहुत मारा और उसे यञशाला से बाहर फेंक दिया। उसने बार बार ये बताने का प्रयास किया कि वो परावसु का भाई है और हत्या उसने नहीं बल्कि परावसु ने की है, पर उसकी किसी ने ना सुनी।
वहाँ से अपमानित होकर अर्वावसु वहीँ यञशाला के बाहर बैठ कर देवराज का आह्वान करने लगा। उसके अपमान की अग्नि इतनी तीव्र थी कि तीनों लोक उससे दग्ध होने लगा। जब इंद्र ना आये तो अर्वावसु ने आत्मदाह करने का निश्चय किया। वो यञकुंड में कूदने ही वाला था कि देवराज प्रकट हुए। उन्होंने राजा को सत्यता से अवगत करवाया और परावसु को राजपुरोहित के पद से निष्काषित करवा दिया। इससे अपमानित होकर परावसु ने आत्मदाह कर लिया।
अब देवराज ने अर्वावसु से वर माँगने को कहा। तब अर्वावसु ने कहा - "हे देवराज! अगर आप मुझपर प्रसन्न हैं तो समय के चक्र को घुमा दें। मेरे पिता, भाई और यवक्रीत जीवित हो जाएँ। मेरे भाई को उसके द्वारा किये गए कर्म याद ना रहें और इस प्रदेश का दुर्भिक्ष समाप्त हो जाये।" फिर देवराज की कृपा से घोर वर्षा होने लगी और ऋषि रैभ्य, परावसु और यवक्रीत जीवित हो गए। यवक्रीत ने देवराज से क्षमा मांगी और कहा कि वे सही थे कि बिना उद्योग के प्राप्त विद्या मनुष्य के किसी काम नहीं आती। देवराज सबको आशीर्वाद देकर वापस स्वर्गलोक चले गए।
ये कथा बताते हुए महर्षि लोमश ने युधिष्ठिर से कहा - "हे धर्मराज! ये उसी रैभ्य मुनि का आश्रम है। इसे प्रणाम करो और कुछ दिन अपने भाइयों और पत्नी सहित यही निवास करो। यहाँ रहने से तुम्हे इस बात का ज्ञान हो जाएगा कि प्रतिशोध की भावना से मनुष्य का केवल अहित ही हो सकता है अतः हमें अपने भीतर की प्रतिशोध की अग्नि का तत्काल त्याग कर देना चाहिए।
अति उत्तम
जवाब देंहटाएंआभार निर्मला जी।
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