भगवान शिव और माता पार्वती के बाद अगर आदर्श गृहस्थ जीवन का कोई बेहतरीन उदाहरण है तो वो महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी माता अरुंधति का ही है। वास्तव में श्रीराम से बहुत काल पहले महर्षि वशिष्ठ ने ही एकपत्नीव्रत का उदाहरण स्थापित किया था और कदाचित यही कारण था कि उनकी शिक्षा के आधार पर श्रीराम ने भी इसी व्रत का पालन किया।
ब्रह्मा के दाहिने अंग से स्वयंभू मनु उत्पन्न हुए और उनके वाम भाग से शतरूपा। इन्ही दोनों से मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। दोनों से दो पुत्र - प्रियव्रत एवं उत्तानपाद एवं तीन पुत्रियाँ - आकूति, देवहूति एवं प्रसूति हुई। आकूति रूचि प्रजापति एवं प्रसूति दक्ष प्रजापति से ब्याही गयी। देवहूति का विवाह महर्षि कर्दम से हुआ और इन दोनों की १० संतानें हुई जिनमे से अरुंधति एक थी। एक पुत्र - कपिल एवं नौ पुत्रियाँ - कला, अनुसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुंधति एवं शांति।
माता अरुंधति माता अनुसूया की छोटी बहन थी और अपनी बहन की भांति ही महान सती थी। इनका विवाह आगे चल कर महर्षि अत्रि से हुआ। महर्षि वशिष्ठ से विवाह करने के लिए इन्हे घोर तप करना पड़ा था और उस तप की प्रेरणा भी इन्हे महर्षि वशिष्ठ से ही मिली थी। वास्तव में अरुंधति पूर्वजन्म में स्वयं ब्रह्मदेव की कन्या संध्या थी। संध्या ने अपने पिता से उपदेश माँगा जिसपर परमपिता ब्रह्मा ने उन्हें तप करने का आदेश दिया। अपने पिता की आज्ञा पाकर संध्या चन्द्रभाग पर्वत के निकट बृहल्लोलित सरोवर के तट पर पहुँची। किन्तु उन्हें ये पता नहीं था कि किसकी तपस्या करे और तपस्या किस प्रकार करनी चाहिए। वे उसी चिंता में उसी सरोवर के निकट बैठ गयी।
उसी समय भ्रमण करते हुए महर्षि वशिष्ठ वहाँ पहुँचे और एक कन्या को इस प्रकार बैठे देख कर उन्होंने उनसे उनका परिचय पूछा। तब संध्या ने उन्हें अपना परिचय दिया। महर्षि वशिष्ठ को देख कर संध्या के मन में उनके लिए अनुराग पैदा हो गया जिसे महर्षि वशिष्ठ ने अपने तपोबल से जान लिया। तब उन्होंने संध्या से कहा कि "हे देवी! आप और हम दोनों परमपिता ब्रह्मा की संतानें है इसी कारण हमारा विवाह तो संभव नहीं है किन्तु अगर तुम परमपिता के कहे अनुसार घोर तप करो तो अगले जन्म में हमारा साथ संभव है।
ये सुनकर संध्या ने उनसे कहा - "हे महर्षि! पिताश्री के आदेशानुसार मैं यहाँ तप के लिए ही आयी थी किन्तु मुझे पता नहीं कि मुझे किसकी तपस्या करनी चाहिए और उसे किस प्रकार करना चाहिए। अतः आपको गुरु मान कर मैं आपसे ही उसका उपाय पूछती हूँ। कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करे कि मैं किसकी और किस प्रकार तपस्या करूँ? उसी से मेरे उद्विग्न मन को शांति मिलेगी।"
तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - "भद्रे! जो इस संसार के मूल कारण हैं उन्ही भगवान विष्णु की तुम तपस्या करो। उनसे तुम्हे मन चाहे वर की प्राप्ति होगी। तप के पहले छः दिनों तक भोजन मत करना। सिर्फ तीसरे और छठे दिन रात्रि को कुछ पत्ते खा कर जल पी लेना। उसके बाद जल का भी त्याग कर देना। तुम्हारी ऐसी तपस्या से भगवान श्रीहरि अवश्य ही प्रसन्न होंगे।" ये कहकर महर्षि वशिष्ठ वहाँ से चले गए।
उनके बताये हुए विधि से संध्या भगवान नारायण की घोर तपस्या करने लगी। उन्होंने चार युगों तक श्रीहरि की घोर तपस्या की और अंततः उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए। उन्हें अपने समक्ष देख कर संध्या अवाक् रह गयी। उसमें उतनी भी शक्ति नहीं बची थी कि वो खड़े होकर उन्हें प्रणाम कर पाती। उसकी ऐसी भक्ति देख कर नारायण ने उसे स्वस्थ कर दिया और पूछा कि वो किस कारण ऐसी घोर तपस्या कर रही थी? तब संध्या ने उनसे तीन वर मांगे:
- किसी भी जीव में जन्म लेते ही काम की भावना ना हो।
- मैंने जिनकी कामना की है वो ही मुझे पति रूप में प्राप्त हो और मेरा पतिव्रत अखंड रहे।
- मेरे पति के अतितिक्त और कही भी मेरी सकाम दृष्टि ना हो और उनके अतिरिक्त जो कोई भी मुझे सकाम भाव से देखो वो तत्काल नपुंसक हो जाये।
तब श्रीहरि ने प्रसन्न होकर कहा - "पुत्री! तुमने उचित वरदान माँगा है। मैं तुम्हे वर देता हूँ कि अगले जन्म में तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हे पति प्राप्त होगा और तुम दोनों कल्प के अंत तक जीवित रहोगे। कोई अन्य पुरुष अगर तुमपर काम दृष्टि डालेगा तो वो तत्काल नपुंसक हो जाएगा। आज के पश्चात किसी भी जीव में जन्म लेते ही काम भावना जाग्रत नहीं होगी। मनुष्य की चार अवस्थाओं - बाल्य, कौमार्य, यौवन एवं वृद्धावस्था में से अन्य तीन में तो काम भावना जाग्रत हो पायेगी किन्तु बाल्यावस्था में नहीं।"
"अब तुम जाओ और चन्द्रभाग पर्वत के निकट महर्षि मेघतिथि १२ वर्षों से यज्ञ कर रहे हैं जो आज समाप्त होने वाला है। उसी यज्ञ की अग्नि में तुम अपने शरीर का त्याग करो। मेरे आशीर्वाद से तुम अग्नि की कन्या बन जाओगी और कोई तुम्हे देख नहीं पायेगा।" ये कहकर श्रीहरि ने अपने चरणों से संध्या को स्पर्श किया जिससे वो यज्ञ के हविष्य के रूप में बदल गया और वो अदृश्य हो गयी। उसके पश्चात श्रीहरि अंतर्ध्यान हो गए।
भगवान विष्णु की कृपा से अदृश्य होकर संध्या महर्षि मेघतिथि के यज्ञ में गयी और वहाँ महर्षि वशिष्ठ को पति रूप में पाने की कामना लेकर उन्होंने यञकुंड में अपना शरीर समर्पित कर दिया। उस अग्नि में भस्म होने के बाद उत्पन्न उनकी पवित्र ऊर्जा को स्वयं सूर्यदेव ने दो भाग कर सृष्टि के कल्याण हेतु अपने रथ पर स्थापित किया। यही दो भाग प्रातः काल और संध्या काल कहलाये।
अगले जन्म में वही संध्या महर्षि कर्दम की पुत्री के रूप में जन्मी और उनका नाम रखा गया अरुंधति। जब वो पांच वर्ष की हुई तब स्वयं ब्रह्मदेव ने महर्षि कर्दम को ये आदेश दिया कि इस कन्या को उचित शिक्षा के लिए उसे माता सावित्री और माता बहुला के पास भेज दें। उनकी आज्ञा अनुसार महर्षि कर्दम सावित्री और बहुला से मिले और उन्हें अपनी कन्या सौंप दी। उन दोनों के देख रेख में अरुंधति ने १६ वर्ष में प्रवेश किया और उन्ही के समान सर्वगुणसम्पन्न बन गयी।
एक दिन वो मानस पर्वत पर भ्रमण कर रही थी जहाँ उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को देखा। उन्हें देख कर उन्हें अपने पूर्वजन्म की बात स्मरण में आयी और उन्होंने वशिष्ठ को मन ही मन अपना पति मान लिया। जब माता सावित्री को इस बात का पता चला तो उन्होंने अरुंधति को पुनः महर्षि कर्दम को सौंपा और उनका विवाह महर्षि वशिष्ठ से करने का सुझाव दिया। बाद में उनका विवाह महर्षि वशिष्ठ से हुआ और दोनों सुख पूर्वक अपने आश्रम में रहने लगे। इन दोनों का स्थान सप्तर्षि तारामंडल में बताया गया है।
एक बार महर्षि वशिष्ठ अन्य सप्तर्षियों के साथ १२ वर्ष की घोर तपस्या के लिए चले गए। उस काल में अरुंधति अकेली अपने आश्रम पर ही रही। दैवयोग से सप्तर्षियों के जाते ही भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। ७ दिनों तक देवी अरुंधति के मुख में अन्न का एक दाना तक नहीं गया। तब उन्होंने केवल वायु पीकर भगवान शिव की आराधना आरम्भ की ताकि उनका अंत हो जाये। तब उनकी परीक्षा लेने के लिए २१वें दिन स्वयं महादेव उनके आश्रम में एक वृद्ध के रूप में पधारे।
उन्होंने अरुंधति से खाने को कुछ माँगा। तब अरुंधति ने क्षमा याचना करते हुए महादेव से कहा कि उनके पास तो खाने को कुछ नहीं है। तब महादेव ने उन्हें कुछ बदरी के बीज दिए और उन्हें पकाने को कहा। अरुंधति उसे पकाने बैठी। समय काटने के लिए उन्होंने वृद्धरूपी भगवान शंकर से धर्म-कर्म की बातें आरम्भ कर दी। तब शंकर जी उन्हें धर्म का वास्तविक रूप समझाने लगे।
भगवान शंकर की माया के कारण जब तक अरुंधति ने उन बदरी के बीजों को पकाया, तब तक १२ वर्ष बीत गए और उनकी कृपा से अकाल भी समाप्त हो गया किन्तु अरुंधति को लगा जैसे कुछ समय ही बीता हो। उसी समय सप्तर्षि अपनी घोर तपस्या समाप्त कर वहाँ पधारे। तब उन्हें देख कर अरुंधति आश्चर्य से बोली कि आप सब तो १२ वर्षों के लिए गए थे फिर इतनी जल्दी कैसे आ गए? तब महर्षि वशिष्ठ ने आश्चर्यचकित होकर उन्हें बताया कि वे सब तो १२ वर्ष के पश्चात ही वापस आ रहे हैं।
उसके पश्चात सातों महान ऋषि इस बात पर बहस करने लगे कि उन सातों में किसकी तपस्या सबसे उत्तम थी। जब कोई निर्णय नहीं हुआ तो अरुंधति ने वृद्धरूपी महादेव से इसका निर्णय करने को कहा। महादेव ने अरुंधति की भक्ति से प्रसन्न होकर उन सभी को दर्शन दिए और कहा कि आप सातों ऋषियों की सम्मलित तपस्या से भी अधिक कठोर व्रत अरुंधति का है। मैंने जो ज्ञान अरुंधति को दिया है आप सभी ऋषि उस ज्ञान को इनसे प्राप्त करें और जगत में उसका प्रचार करें। ये कहकर महादेव अंतर्ध्यान हो गए।
तब सप्तर्षि अरुंधति के तेज के समक्ष नतमस्तक हुए और उनसे वो ज्ञान प्राप्त किया जो अरुंधति ने १२ वर्षों में महादेव से प्राप्त किया था। वही ज्ञान आगे चलकर वेद और पुराण की कथाओं के रूप में प्रसिद्ध हुआ जिसका विस्तार जगत में सप्तर्षियों ने किया। माता अरुंधति से ही वार्तालाप करते हुए महर्षि वशिष्ठ ने "राजर्षि" विश्वामित्र को "ब्रह्मर्षि" विश्वामित्र कहकर पुकारा था।
सप्तर्षि तारामंडल के बारे में हमारे वेद-पुराणों में सहस्त्रों वर्षों पहले लिखा जा चुका था और आज आधुनिक वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हमारे तारामंडल में दो युगल तारे हैं जो एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। वे महर्षि वसिष्ठ और माता अरुंधति ही है और आज भी वैज्ञानिक उन युगल तारों को "अरुंधति-वशिष्ठ" के नाम से ही जानते हैं। धन्य है ऐसी महान सती जिनकी महिमा से हमारा भारतीय समाज ओत-प्रोत है।
बहुत श्रेष्ठ जानकारी..
जवाब देंहटाएंबहुत आभार राज भाई।
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