नल

नल
रामायण की कथा में नल और नील नामक दो वानरों की कथा आती है। दोनों महान योद्धा थे और लंका युद्ध में उन्होंने कई प्रमुख राक्षस योद्धाओं का वध किया। कई लोगों को ये लगता है कि नल और नील भाई थे। कई ये भी कहते हैं कि दोनों जुड़वाँ भाई थे, किन्तु ये सत्य नहीं है। रामायण में जो वानर सेना थी वे सभी किसी ना किसी देवता के अंश थे। उसी प्रकार नल भगवान विश्वकर्मा और नील अग्निदेव के अंशावतार थे।

वाल्मीकि रामायण में लंका सेतु की रचना का श्रेय केवल नल को ही दिया गया है और सेतु निर्माण में नील का कोई वर्णन नहीं। है यही कारण है कि इस सेतु को लंका सेतु एवं रामसेतु के अतिरिक्त नलसेतु के नाम से भी जाना जाता है। विश्वकर्मा के पुत्र होने के कारण नल में स्वाभाविक रूप से वास्तुशिल्प की कला थी। अपने पिता विश्वकर्मा की भांति वो भी एक उत्कृष्ट शिल्पी थे। यही कारण है कि समुद्र पर सेतु निर्माण का दायित्व नल को ही दिया गया था।

जब भगवान ब्रह्मा भविष्य में श्रीराम की सहायता के लिए देवताओं को उनका दायित्व समझा रहे थे उसी दौरान उन्होंने श्री विश्वकर्मा को भी इस कार्य के लिए बुलाया। तब विश्वकर्मा जी ने उनसे पूछा - "हे ब्रह्मदेव! मुझे पता है कि रावण के अत्याचार को रोकने श्रीहरि शीघ्र ही अवतार लेने वाले हैं। उस अवतार में उनका भयानक युद्ध रावण से होगा। किन्तु मैं तो एक शिल्पी हूँ, योद्धा नहीं। फिर उस युद्ध में मैं किस प्रकार अपना योगदान दे सकता हूँ?"

तब ब्रह्मदेव ने कहा - "पुत्र! नारायण जो अवतार लेने वाले हैं वो तब तक सार्थक नहीं है जब तक तुम उनकी सहायता नहीं करोगे। तुम्हे उनके अवतार काल में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण करना है जो समय आने पर तुम स्वतः ही समझ जाओगे।" इस प्रकार ब्रह्मदेव के आदेश पर विश्वकर्मा के अंश से नल का जन्म वानर योनि में हुआ। कहा जाता है कि अग्निदेव के अंश से जन्मे नील भी उसी दिन पैदा हुए और दोनों बहुत घनिष्ठ मित्र थे।

बचपन में नल बहुत चंचल थे। वे वन में तपस्या कर रहे ऋषियों की देव मूर्तियों को सरोवर में डाल देते थे। नील भी उनके इस कृत्य में उनका बराबर साथ देते थे। ऋषियों की उनकी शरारतों से बड़ा कष्ट होता था और उन्हें अपनी देव मूर्तियां बार-बार बनानी पड़ती थी। इससे उन्हें क्रोध तो बड़ा आता था किन्तु बालक होने के कारण वे उन्हें कोई दंड नहीं देते थे।

एक बार शिवरात्रि के दिन ऋषियों ने शिवलिंग की स्थापना की किन्तु सदा की भांति नल ने उस शिवलिंग को चुराकर सरोवर में डाल दिया। ऋषियों को इससे विलम्ब हुआ और पूजा का शुभ मुहूर्त बीत गया। इससे रुष्ट होकर ऋषियों के धैर्य का बांध टूट गया और उन्होंने नल को ये श्राप दे दिया कि उसके द्वारा स्पर्श की गयी कोई भी वस्तु जल में नहीं डूबेगी। उसके बाद जब भी नल ऋषियों की मूर्तियाँ सरोवर में डाल देते थे तो वो जल पर ही तैरती रहती थी और ऋषि उसे वापस ले आते थे।

ऋषियों द्वारा दिया गया यही श्राप नल के लिए वरदान बन गया। कई कथा में नल के साथ-साथ ये वरदान नील को भी दिया गया बताया गया है। जब श्रीराम ने देवी सीता की खोज के लिए अंगद के नेतृत्व में सेना दक्षिण की ओर भेजी तो नल-नील भी उनके साथ थे। जब श्रीराम ने समुद्र को सुखाने के लिए बाण का संधान किया तब समुद्र ने उनसे  कहा - "हे प्रभु! अगर आपने मेरे जल को सुखा दिया तो उसमे आश्रय पाने वाले असंख्य जीव और वनस्पतियों का भी नाश हो जाएगा। अतः आप मेरे ऊपर एक सेतु का निर्माण करें और उसपर होकर लंका में प्रवेश करें।"

जब श्रीराम ने पूछा कि १०० योजन लम्बे इस समुद्र पर पुल कैसे बनाया जा सकता है तब समुद्र ने कहा - "प्रभु! आपकी सेना में स्वयं देवशिल्पी विश्वकर्मा के पुत्र नल हैं। वे उन्ही की भांति एक महान शिल्पी हैं और वे समुद्र पर पुल बना सकते हैं।" तब जांबवंत जी ने श्रीराम को नल और नील को मिले गए श्राप के बारे में बताया। तब नल के नेतृत्व में, नल और नील को दिए गए श्राप के प्रभाव से पाषाण समुद्र में तैरने लगे और उसी को जोड़ कर वानर सेना ने ५ दिनों में उस १०० योजन लम्बे समुद्र पर महान सेतु बांध दिया।

तेलुगु, बंगाली एवं इंडोनेशिया में रचित रामायण के अनुसार नल और नील पत्थर को अपने बाएं हाथ से समुद्र से डालते थे। ये देख कर महावीर हनुमान ने उन्हें समझाया कि उन्हें बांये हाथ से पत्थर उठा कर दाहिने हाथ से समुद्र में डालना चाहिए क्यूंकि दाहिना हाथ पवित्र माना जाता है। ये प्रथा आज भी हिन्दू धर्म में प्रचलित है कि कोई भी शुभ कार्य अपने दाहिने हाथ से ही करना चाहिए।

आनंद रामायण के अनुसार ऐसा वर्णन है कि नल द्वारा स्पर्श किये गए पहले ९ पाषाणों से श्रीराम ने नवग्रहों की पूजा की और उसे सबसे पहले समुद्र में प्रवाहित किया ताकि सेतु का कार्य निर्विघ्न पूरा हो सके। कम्ब रामायण के अनुसार लंका में प्रवेश करने वाली सेना के लिए शिविर बनाने का दायित्व भी श्रीराम ने नल को ही दिया था। उन्होंने लंका में उपलब्ध स्वर्ण और मणियों से अपने सेना के लिए शिविर बनाया किन्तु अपना शिविर उन्होंने बांस और लकड़ियों से बनाया। ये दर्शाता है कि वे कितने कुशल सेनापति थे।

लंका युद्ध में भी नल ने बढ़-चढ़ के भाग लिया। जब इंद्रजीत ने वानर सेना में त्राहि-त्राहि मचा दी तब नल ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। उस युद्ध में मेघनाद ने नल को अपने सहस्त्र बाणों से बींध दिया था किन्तु फिर भी उनका वध करने में वो असमर्थ रहा। राक्षस यूथपति तपना का वध भी नल ने उस युद्ध में किया। महाभारत के अनुसार तुण्डक नमक महान राक्षस योद्धा का वध भी नल ने उससे ३ प्रहर युद्ध कर किया था।

जैन धर्म में भी नल और नील का वर्णन आता है। जैन ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र के अनुसार नल ने मंगी-तुंगी पर्वत पर जैन धर्म की दीक्षा ली थी और अंततः मोक्ष को प्राप्त किया था।

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