महर्षि अंगिरस के लेख में रानी चोला देवी का वर्णन आया था। महाभारत में युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि "हे माधव! जिसे सुनने से मन प्रसन्न हो और पापों का अंत हो जाये ऐसी कोई कथा मुझे सुनाइए।" ये सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा - "भ्राताश्री! सतयुग में जब दैत्य वृत्रासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया तब देवराज इंद्र ने यही इच्छा देवर्षि नारद के सामने जताई थी। देवर्षि ने जो कथा देवराज को सुनाई वही मैं आपको सुनाता हूँ। इस कथा को सुनने से देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और मनुष्य की सभी इच्छाओं को पूर्ण करती है।"
पुरन्दरपुर नामक एक वैभवशाली राज्य था जहाँ राजा मंगलसेन राज्य करते थे। कहा जाता है कि उनके नगर को स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था और उसके समान और कोई दूसरा नगर विश्व में नहीं था। राजा मंगलसेन की दो रूपवती पत्नियाँ थी - चिल्ल देवी और चोला देवी। जहाँ चिल्ल देवी को धर्म-कर्म में पूर्ण विश्वास था वही चोला देवी नास्तिक तो नहीं थी किन्तु उन्हें धर्म-कर्म, पूजा-पाठ पर कुछ खास श्रद्धा नहीं थी।
एक बार मंगलसेन अपनी पत्नी चोला देवी के साथ अपने भवन के शिखर पर विचरण कर रहे थे कि सहसा चोला देवी की नजर समुद्र के जल से घिरे एक छोटे से द्वीप पर पड़ी। उस रमणीक द्वीप को देख कर चोला देवी ने अपने पति से कहा कि उसकी इच्छा है कि उस द्वीप पर आप मेरे लिए एक अत्यंत सुंदर उद्यान बनवाएं। तब मंगलसेन ने अपनी पत्नी से कहा - "प्रिये! स्वर्ग के नंदनवन को भी लज्जित कर दे, ऐसा ही रमणीक उद्यान मैं तुम्हारे लिए उस द्वीप पर बनवाऊंगा।"
अपने वचन के अनुसार मंगलसेन ने रानी चोला देवी के लिए एक अत्यंत मनोहारी उद्यान का निर्माण करवाया। चोला देवी अब अपना अधिकांश समय उसी उद्यान में बिताने लगी। एक दिन राजा और रानी अपने भवन में बैठे थे कि चोला देवी के उद्यान के सैनिकों ने बताया कि उद्यान में एक विकराल शूकर घुस आया है और पूरे उद्यान का नाश कर रहा है। यही नहीं उसने वहाँ के कई रक्षकों को भी मार गिराया है। ये सुनकर रानी चोला देवी दुःख से विलाप करने लगी।
ये देख कर मंगलसेन अत्यंत क्रोधित हुए और उस शूकर को मरने अपनी सेना उस उद्यान में भेजी। यही नहीं वो स्वयं अपने गज पर बैठ कर उद्यान पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उसने उस शूकर को उत्पात मचाते देखा तो उसने अपनी सेना से कहा - "इस शूकर को तत्काल मार डालो। अगर ये शूकर किसी भी सैनिक के बगल से निकल जायेगा तो मैं उसका वध कर दूंगा।" तभी वो शूकर सभी सैनिकों को घायल करता हुआ राजा के ही बगल से निकल कर भाग गया।
ये देख कर राजा बड़ा लज्जित हुआ। उसने अकेले अपने अश्व पर उस शूकर का पीछा किया और घने वन में अंततः उस शूकर को अपने बाणों से भेद दिया। जैसे ही शूकर ने अपने प्राण त्यागे, वो एक दिव्य पुरुष में बदल गया। उसी समय स्वर्ग से एक दिव्य यान आया और वो देवपुरुष उस यान पर विराजमान हो गए। ये देख कर राजा मंगलसेन ने आश्चर्य से इसका रहस्य उनसे पूछा।
तब उस देव ने कहा - "राजन! मैं चित्ररथ नामक गन्धर्व हूँ। एक बार मैं परमपिता ब्रह्मा के समक्ष गायन कर रहा था किन्तु मेरा मन एकाग्र नहीं था और इसी कारण मेरा स्वर बिगड़ गया। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मदेव ने मुझे शूकर योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। आज आपने मुझे इस योनि से मुक्ति दिलवाई है इसीलिए आपका धन्यवाद। मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ कि भविष्य में आप महालक्ष्मी व्रत को पूर्ण करेंगे और तीनों लोकों में आपका यश गूंजेगा।" ये कहकर वो दिव्यपुरुष अपने दिव्य विमान में स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गए।
चित्ररथ को उसके श्राप से मुक्त कर राजा मंगलसेन अपने राज्य की ओर लौट चले। उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और उनका अश्व भी श्रमित था इसीलिए वे मार्ग में एक सरोवर पर रुक गए। वहाँ उन्होंने देखा कि बहुत सारी स्त्रियाँ सरोवर के किनारे धार्मिक कार्यों में व्यस्त हैं। तब उसने उनसे पूछा कि आप लोग किस की पूजा कर रहीं हैं? तब उन स्त्रियों ने बताया कि हम माता महालक्ष्मी की पूजा कर रहे हैं।
ये सुनकर राजा मंगलसेन वही महालक्ष्मी की कथा को सुनने के लिए बैठ गए। कथा सुन कर और उस व्रत का पालन कर उन्हें अनंत पुण्य की प्राप्ति हुई। उन स्त्रियों ने राजा की सुरक्षा के लिए राजा की भुजा पर महालक्ष्मी का सिद्ध कवच भी बांध दिया। फिर राजा प्रसन्नतापूर्वक अपने राज्य वापस लौट आये। उन्होंने जो पुण्य अर्जित किया था उसका समाचार देने वो सबसे पहले रानी चोला देवी के पास पहुँचे।
राजा मंगलसेन ने अपनी कथा अपनी दोनों पत्नियों, चोला रानी और चिल्ल रानी को सुनाई किन्तु चोला रानी को उनकी कहानी पर विश्वास ना हुआ। जब चोला रानी ने राजा की भुजा पर बंधा डोरा देखा तो उन्हें लगा कि किसी अन्य स्त्री ने उन्हें प्रेम पूर्वक ये धागा बांधा है। ये सोच कर उन्होंने सोते हुए राजा की भुजा से वो डोरा तोड़ कर फेंक दिया किन्तु चिल्ल रानी ने उसे श्रद्धा पूर्वक अपने पास रख लिया।
महालक्ष्मी की कृपा से राजा मंगलसेन पुनः महालक्ष्मी का पूजन करने को सज्ज हुए किन्तु वो धागा अपने हाथ पर बंधा ना देख कर व्यथित हुए। तब चिल्ल रानी ने उन्हें वो धागा दिया और बताया कि किस प्रकार चोला रानी ने उसे फेंक दिया था। ये सुनकर मंगलसेन चोला रानी पर बड़े रुष्ट हुए और चिल्ल रानी से अत्यंत प्रसन्न होकर उनके साथ ही महालक्ष्मी का पूजन किया।
उसके अगले दिन माता लक्ष्मी एक वृद्धा का रूप धर पहले चिल्ल रानी के पास पहुँची जिन्होंने उनका बड़ा सत्कार किया। उसे आश्रीवाद देकर वे चोला रानी के पास पहुंची किन्तु चोला रानी ने उनका अपमान कर वहाँ से उन्हें जाने को कहा। ये देख कर माता लक्ष्मी अपने असली रूप में आ गयी और उसे श्राप दिया - "हे अभिमानी रानी! तुझे वृद्ध का सम्मान करना नहीं आता। मैं तो यहाँ तुझे ऐश्वर्य प्रदान करने आयी थी पर तूने मेरा अपमान किया। इसीलिए जा जिस शूकर का वध तेरे पति ने किया था, तेरा मुख भी उसी शूकर के समान हो जाये।"
माता का ऐसा श्राप पाते ही रानी चोला देवी शूकरी मुख की हो गयी। उन्हें अपनी भूल का पछतावा हुआ और उन्होंने माता के चरण पकड़ कर क्षमा मांगी। तब माँ लक्ष्मी ने कहा - "तू तत्काल महर्षि अंगिरस के आश्रम जा। वो तुझे मेरे श्राप से मुक्ति का उपाय बताएँगे। तब माता की आज्ञानुसार चोला रानी महर्षि अंगिरस के आश्रम पहुँची और उनसे अपनी व्यथा कही।
महर्षि अंगिरस ने कहा - "पुत्री! माता के श्राप को तो माता के व्रत द्वारा हो समाप्त किया जा सकता है। इसीलिए तू उसी महान व्रत को कर जिसे तेरे पति ने किया था।" उनकी आज्ञा के अनुसार रानी चोला देवी ने माता महालक्ष्मी का व्रत पूरी श्रद्धा से किया जिससे उन्हें उनके श्राप से मुक्ति मिली और राजा मंगलदेव ने उन्हें पुनः अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। फिर दोनों महर्षि अंगिरा का आशीर्वाद लेकर अपने राज्य लौट आये।"
इस प्रकार इस कथा को युधिष्ठिर को सुना कर श्रीकृष्ण ने कहा - "हे भ्राता! इस पवित्र कथा का जो भी श्रवण करता है उसे उसके पापों से मुक्ति मिल जाती है।" तब युधिष्ठिर के मन में भी उस व्रत को करने की इच्छा हुई और उन्होंने अपने भाइयों और पत्नी के साथ उस पवित्र व्रत को किया।
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