नील नल के घनिष्ठ मित्र थे और नल के सामान उन्हें भी ये श्राप मिला था कि वो जिस वस्तु को हाथ लगाएंगे वो जल में डूबेगी नहीं। दोनों की घनिष्ठता ऐसी थी कि आज भी लोग इन दो वानरों को भाई मानते हैं, हालाँकि ऐसा नहीं था। नल विश्वकर्मा के अवतार थे और रामसेतु का निर्माण उन्होंने ही किया था। दूसरी ओर नील अग्निदेव के अंश थे। कई लोगों को लगता है कि श्रीराम की सेना के सेनापति महावीर हनुमान थे किन्तु ऐसा नहीं है। हनुमान सुग्रीव के मंत्री थे जो उनके साथ ऋष्यमूक पर्वत पर भी रहते थे जब बालि ने सुग्रीव को किष्किंधा से निष्काषित कर दिया था। ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान के साथ जो कुछ चुनिंदा वानर सुग्रीव के साथ रहते थे उनमे से एक नील भी थे और वही उनकी सेना के अधिपति भी थे।
अग्निदेव के अंश होने के कारण उनमे स्वाभाविक रूप से शौर्य और वीरता थी। यही कारण था कि जब वानर और रीछ सेना के नेतृत्व की बात आई तब श्रीराम ने सुग्रीव को नील को सेनापति बनाने का सुझाव दिया। नील के नेतृत्व में वानरों और रीछों की कई अक्षौहिणी सेना ने वीरता से युद्ध किया और अंततः राक्षसों की सेना को परास्त कर विजय का स्वाद भी चखा। रामायण के अनुसार नील को वानर सेना में सर्वाधिक तेजस्वी, प्रतिष्ठित एवं युद्धकुशल माना गया है। जब सुग्रीव श्रीराम की सहायता को सज्ज हुए तो सर्वप्रथम उन्होंने नील को ही सेना को सज्ज करने का आदेश दिया। सीता की खोज के लिए सुग्रीव ने अंगद के नेतृत्व में जिस दल को दक्षिण दिशा में भेजा था उस दल में नील भी थे।
जब वानर सेना समुद्र के तट पर पहुँची तब उस विशाल समुद्र को देखकर सभी चिंतित हो गए कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकता है। तब बहुत विचार करने के बाद जांबवंत जी ने जिन चार लोगों का नाम लिया जो समुद्र पार कर सकते थे उनमे से एक नील भी थे। किन्तु उन चारों में भी हनुमान सबसे समर्थ थे इसीलिए जांबवंत उन्हें ही समुद्र पर करने को कहते हैं। हनुमान को उनकी शक्ति याद दिलाते हुए जांबवंत कहते हैं - "हे महाबली! तुम्हारे अतिरिक्त हमारे दल में तीन लोग और हैं जो इस समुद्र को पर करने की शक्ति रखते हैं। एक तो स्वयं मैं हूँ, दूसरे अंगद और तीसरे हमारे सेनापति नील हैं। अंगद युवराज हैं इसीलिए उन्हें नहीं भेजा जा सकता और नील और स्वयं मैं इसे पार तो कर सकते हैं किन्तु वापस लौटने में संदेह है।" तब अंततः बजरंगबली उस १०० योजन लम्बे समुद्र को पार करने को उद्धत होते हैं।
उस समुद्र पर पुल बांधने के लिए भी नील ने अपने मित्र नल का भरपूर साथ दिया। पूरी सेना में केवल वो दोनों ही थे जिनके स्पर्श से पाषाण भी समुद्र पर तैरने लगते थे। इसी कारण पहले नल ने उस सेतु की बनावट तैयार की और फिर दोनों ने उसमें लगने वाले पत्थरों को स्पर्श कर उन्हें जल में तैरने लायक बनाया। फिर वानर सेना ने नल के निर्देशानुसार उन्ही पत्थरों को समुद्र में डाल कर उस महान सेतु का निर्माण कर दिया। हनुमान जी ने हर पत्थरों पर श्रीराम का नाम लिखा जिससे वे एक दूसरे से जुड़ सकें।
लंका युद्ध में भी नील ने अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया। उन्होंने वानर सेना का नेतृत्व तो किया ही किन्तु कई महान राक्षस योद्धाओं का वध भी किया। जब मेघनाद युद्धक्षेत्र में आया और वानर सेना में खलबली मच गयी तब नील ने उसका सामना बड़ी वीरता से किया। तब मेघनाद ने अपने मायावी बाणों से नील को अचेत कर दिया। जब रावण स्वयं युद्ध क्षेत्र में आया तब नील ने उसे भी युद्ध के लिए ललकारा और रावण के भीषण बाणों की परवाह ना करते हुए उसके रथ पर जा चढ़ा। तब स्वयं रावण ने भी उसकी वीरता की प्रशंसा की।
राक्षस यूथपति निकुम्भ से भी नील का भीषण युद्ध हुआ और नील उसमे बड़े आहत हुए। किन्तु अंततः उन्होंने निकुम्भ के रथ के पहिये से ही उसका वध कर दिया। महाभारत में वर्णित है कि नील ने प्रमति नामक वीर राक्षस का भी वध किया था। जब त्रिशिरा और महोदर ने वानर सेना में त्राहि-त्राहि मचा दी तब उन्हें रोकने के लिए हनुमान और नील एक साथ आगे बढे और अपने बल से दोनों राक्षसों को खदेड़ दिया। तत्पश्चात त्रिशिरा का वध श्रीराम ने और महोदर का वध सुग्रीव ने कर दिया।
नील का सबसे प्रसिद्ध और भयानक युद्ध राक्षस सेना के प्रधान सेनापति प्रहस्त के साथ हुआ। प्रहस्त रावण का मामा था और राक्षसों की समस्त सेना उसके निर्देश में ही कार्य करती थी। वो एक महान और मायावी योद्धा था। जब प्रहस्त युद्धक्षेत्र में पहुँचा तब उसका सामना ना करने के कारण वानर सेना पलायन करने लगी। तब उसे रोकने के लिए स्वयं हनुमान आगे बढे किन्तु नील ने उन्हें ये कहते हुए रोक दिया कि प्रहस्त राक्षसों का प्रधान सेनापति है वानरों का प्रधान सेनापति होने के कारण उन्हें ही उससे युद्ध करना चाहिए। तब नील और प्रहस्त में भयानक युद्ध हुआ।
उस युद्ध में नील ने बड़े-बड़े पेड़ उखाड़ कर उससे प्रहस्त पर आक्रमण किया किन्तु प्रहस्त ने उन सभी को मार्ग में ही काट दिया। फिर प्रहस्त ने नील पर सहस्त्रों बाणों की वर्षा कर दी। उन बाणों से नील पूरी तरह घिर गए और उससे बचने का कोई उपाय ना देख कर उन्होंने ऑंखें बंद कर उन सभी बाणों को स्वयं पर सहा। जब प्रहस्त ने नील को आंख बंद किये देखा तो वो उसे मारने मुगदर लेकर दौड़ा। तभी नील सचेत हुए और उन्होंने प्रहस्त पर एक विशाल शिला से प्रहार किया जिससे प्रहस्त रक्तवमन कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। ऐसा भीषण कर्म करने पर श्रीराम सहित सबने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
उस युद्ध में नील ने बड़े-बड़े पेड़ उखाड़ कर उससे प्रहस्त पर आक्रमण किया किन्तु प्रहस्त ने उन सभी को मार्ग में ही काट दिया। फिर प्रहस्त ने नील पर सहस्त्रों बाणों की वर्षा कर दी। उन बाणों से नील पूरी तरह घिर गए और उससे बचने का कोई उपाय ना देख कर उन्होंने ऑंखें बंद कर उन सभी बाणों को स्वयं पर सहा। जब प्रहस्त ने नील को आंख बंद किये देखा तो वो उसे मारने मुगदर लेकर दौड़ा। तभी नील सचेत हुए और उन्होंने प्रहस्त पर एक विशाल शिला से प्रहार किया जिससे प्रहस्त रक्तवमन कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। ऐसा भीषण कर्म करने पर श्रीराम सहित सबने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
नल के ही भांति नील का भी जैन धर्म में वर्णन आता है। जैन ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र के अनुसार नल के साथ-साथ नील ने भी मंगी-तुंगी पर्वत पर जैन धर्म की दीक्षा ली थी और अंततः मोक्ष को प्राप्त किया था।
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