इस लेख में रावण और कार्त्यवीर्य अर्जुन के बीच की प्रतिद्वंदिता के बारे में आप जानेंगे। अपने दिग्विजय के समय रावण सभी देशों और प्रदेशों को जीतता हुआ नर्मदा तट पर स्थित महिष्मति नगर पहुँचा। वहाँ उस समय हैहयवंशी राजा कार्त्यवीर्य अर्जुन का राज था जिसे अपने १००० भुजाओं के कारण सहस्त्रार्जुन भी कहा जाता था। उसने अपनी शक्ति से अपना साम्राज्य हिमालय तक फैला रखा था और संसार में कोई भी ऐसा नहीं था जो उससे युद्ध करने का साहस करता हो।
उसके राज्य तक पहुँचने के बाद रावण के मन में भगवान रूद्र की पूजा करने का विचार आया और वो वही नर्मदा के तट पर पूजा करने को बैठ गया। उसने वहीँ रेत का एक शिवलिंग स्थापित किया और अपने सेवकों को फल-फूल इत्यादि लाने का आदेश देकर पूजा की तयारी करने लगा। वही से कुछ दूर सहस्त्रार्जुन अपने पत्नियों के साथ जल विहार कर रहा था। उसकी पत्नियों ने उससे अनुरोध किया कि वो अपनी शक्ति का प्रदर्शन एक बार उनके समक्ष करे। उनकी इच्छा जानकर सहस्त्रार्जुन ने अपनी १००० भुजाओं से नर्मदा के जल को रोक लिया। उसके ऐसा करने के कारण उसकी भुजाओं की दूसरी ओर नर्मदा का जल तेजी से ऊपर आने लगा और उस बढ़ते जल ने अकस्मात् ही रावण द्वारा बनाये गए शिवलिंग को नष्ट कर दिया।
जब रावण ने ये देखा तो उसके क्रोध की कोई सीमा ना रही। उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि वो जाकर ये पता लगाए कि किसके कारण उसके शिवलिंग का नाश हुआ है। रावण की आज्ञा पर मंत्री आगे गया और उसने एक आश्चर्यजनक दृश्य देखा जहाँ कर्त्यवीर्य अर्जुन अपनी १००० भुजाओं से नर्मदा के जल को रोके हुए था। तब वो वापस आया और रावण को उस विषय में सूचित किया।
जब रावण ने ऐसा सुना तो वो भी आश्चर्य में पड़ गया। उसने सोचा कि अगर उसने इतने शक्तिशाली राजा को परास्त कर दिया तो विश्व में उसकी प्रसिद्धि और फैलेगी। ये सोच कर उसने अपने सेनापति प्रहस्त को हैहयवंशी सहस्त्रार्जुन के पास दूत बना कर भेजा। प्रहस्त की प्रसिद्धि भी बहुत थी इसीलिए जब सहस्त्रार्जुन ने प्रहस्त को दूत बना आया देखा तो उसका स्वागत किया और उससे वहाँ आने का कारण पूछा।
तब प्रहस्त ने कहा - "हे महाराज! मैं प्रहस्त अपने स्वामी लंकापति रावण का दूत बनकर आया हूँ। वे आपसे द्वन्द करना चाहते है। उनका आदेश है कि या तो आप उनसे द्वन्द करें या फिर महिष्मति का राज्य उन्हें सौंप कर स्वयं वन में चले जाएँ। अगर आपने ऐसा नहीं किया तो अपने पूरे कुटुंब का विनाश देखने को तत्पर रहें। लंकापति रावण ने अपने पराक्रम से स्वयं देवताओं को भी पराजित किया है। अतः मेरा आपको यही सुझाव है कि उनसे युद्ध ना करें और स्वयं ही अपना राज्य उन्हें सौंप दें।"
प्रहस्त की बातें सुनकर कार्त्यवीर्य अर्जुन अट्टहास करते हुए बोला - "हे वीर! तो तुम उस रावण के दूत हो जिसने स्वयं अपने ही बड़े भाई से उसकी नगरी और पुष्पक विमान छीन लिया? सुनने में तो ये भी आया है कि वो वीर निर्बल कन्याओं का हरण करता फिरता है। ज्ञात होता है कि परमपिता ब्रह्मा से वरदान पाकर वो अपने आपको सर्वशक्तिशाली समझने लगा है? सुना है वो दशानन है किन्तु क्या उसकी बीस भुजाओं में इतना बल है कि वो मेरी सहस्त्र भुजाओं का सामना कर सके? अतः उससे जाकर कहो कि ये बालकों का हठ छोड़े और वापस अपने राज्य को लौट जाये।"
तब प्रहस्त ने कहा - "महाराज! कदाचित आपको लंकेश की शक्ति का भान नहीं है। मैं स्वयं उनकी शक्ति का बखान कर उनकी प्रसिद्धि को कम नहीं करना चाहता इसीलिए आपसे पुनः अनुरोध करता हूँ कि अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। क्यों नाहक अपनी निर्दोष जनता को युद्ध की आग में झोंकना चाहते हैं? राक्षसराज भी ये नरसंहार नहीं चाहते इसी कारण उन्होंने केवल आपसे द्वन्द का प्रस्ताव भेजा है। अब निर्णय आपके हाथ में है।"
तब सहस्त्रार्जुन ने क्रोध में कहा - "हे राक्षस! अगर तुम दूत बनकर ना आये होते तो ऐसा कहने पर मैं तुम्हारा वध कर देता। किन्तु ठीक है, लगता है कि तुम्हारे स्वामी के बल के घमंड को तोड़ना आवश्यक है। तुम जाओ और उसे मेरी ओर से महिष्मती में आमंत्रित करो। मैं एक बार और उसे समझने का प्रयास करूँगा। अगर वो ना माना तो मैं अवश्य ही उससे युद्ध कर उसे काल के पास भेज दूंगा।" ये सुनकर प्रहस्त रावण के पास लौट गया।
कार्त्यवीर्य अर्जुन के आमंत्रण पर रावण ने माहिष्मति नगर में प्रवेश किया। उसका तेज देखते ही बनता था। सहस्त्रार्जुन ने रावण का स्वागत किया और उसे अपने साथ अपने सिंहासन पर बिठाया। आथित्य सत्कार के बाद सहस्त्रार्जुन ने रावण को एक बार फिर समझाया कि बिना किसी कारण युद्ध करने का कोई औचित्य नहीं है किन्तु रावण उस समय वीररस में डूबा हुआ था। उसने सहस्त्रार्जुन का शांति प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और उसे पुनः युद्ध की चुनौती दी।
कार्त्यवीर्य अर्जुन भी क्षत्रिय था। युद्ध का आह्वान अस्वीकार नहीं कर सकता था। उसने भी रावण के द्वन्द का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। अगले दिन दोनों वीर राजकीय समरांगण में मिले। दोनों महान योद्धा जब पूर्ण वीर रूप में एक दूसरे के समक्ष आये तो ऐसा लगा जैसे अगर दोनों साथ-साथ लड़ें तो त्रिलोक को जीत ले। जब युद्ध का समय आया तो दोनों ने एक दूसरे को अंतिम चेतावनी दी।
कार्त्यवीर्य ने कहा - "हे वीर! तुम्हारी वीरता पर मुझे कोई संदेह नहीं है किन्तु फिर भी मैं तुम्हे एक अंतिम अवसर दे रहा हूँ। यहाँ से मेरा आथित्य ग्रहण कर वापस लंका लौट जाओ और शांति से शासन करो। क्यों व्यर्थ अपने प्राणों के शत्रु बन रहे हो।" इसपर रावण ने कहा - "महावीर! संदेह तो मुझे तुम्हारी शक्ति पर भी नहीं है किन्तु हर किसी की अपनी सीमा होती है। किन्तु मैं लंकेश हूँ और मेरी कोई सीमा ही नहीं है। तुम्हे कदाचित ये ज्ञात नहीं कि मैंने स्वयं देवराज इंद्र को स्वर्ग से पलायन करने को विवश किया है। अतः अगर तुम चाहो तो मेरी सत्ता स्वीकार करो और माहिष्मति पर शासन करो।"
अब संधि की कोई आशा नहीं थी अतः दोनों में भयानक युद्ध आरम्भ हुआ। पहले तो दोनों ने अपने-अपने बाहुबल को तौलते रहे और शीघ्र ही दोनों को ये समझ आ गया कि उनका प्रतिद्वंदी कोई साधारण योद्धा नहीं है। अतः अब दोनों ने अपनी पूर्ण शक्ति का प्रयोग करने का निश्चय किया। सहस्त्रार्जुन ने अपने १००० हाथों को प्रकट किया। ये देख कर माहिष्मति की जनता कोलाहल करने लगी।
ये देख कर रावण भी अपने दशानन रूप में आया। उसका ऐसा रूद्र रूप देख कर राक्षस वीर प्रसन्नतापूर्वक कोलाहल करने लगे। अब दोनों अपनी अपनी पूर्ण शक्ति के साथ भिड़े। दोनों का युद्ध अनवरत रूप से ७ दिनों तक चलता रहा किन्तु हार-जीत का निर्णय नहीं हो पाया। इतने दिनों तक युद्ध करने के पश्चात भी दोनों श्रमित नहीं थे। दोनों के अस्त्र-शस्त्र चुक गए और दोनों बाहुबद्ध होकर युद्ध करने लगे। एक दूसरे पर घात-प्रतिघात करते-करते बहुत समय बीत गया।
अतंतः सहस्त्रार्जुन ने अपने १००० भुजाओं से रावण को इस प्रकार जकड लिया कि वो हिलने-डुलने में असमर्थ हो गया। रावण ने अपना सारा बल लगा दिया किन्तु वो सहस्त्रार्जुन की पकड़ से छूट नहीं सका। सहस्त्रार्जुन ने रावण को इतने बल से जकड़ा कि रावण श्वाश लेने में असमर्थ हो गया और मूर्छित हो गया। तब कार्तवीर्य ने रावण को जंजीरों में डाल कर कारागार में डाल दिया। रावण की सेना को नगर से बाहर निकाल दिया गया किन्तु वे अपने राजा की रक्षा को नगर के बाहर ही रुक गए।
प्रहस्त अविलम्ब रावण के पितामह महर्षि पुलत्स्य के पास पहुँचा और उन्हें सभी चीजें बताई। तब अपने पौत्र को छुड़ाने के लिए माहिष्मति पहुँचे। जब सहस्त्रार्जुन को ये पता चला कि सप्तर्षि महर्षि पुलत्स्य, जो उनके आराध्य भगवान दत्तात्रेय के तात हैं, वो उनके राज्य में पधारे हैं तो वे स्वयं उनके स्वागत को नगर के द्वार पर आये। उन्होंने महर्षि की विधिवत पूजा की और उनसे कई ज्ञान के प्रश्न किये। तब महर्षि पुलत्स्य ने उसकी हर शंका का समाधान किया और उसे आशीर्वाद दिया।
तब सहस्त्रार्जुन ने उनसे वहाँ आने का कारण पूछा। तब महर्षि पुलत्स्य ने कहा - "वत्स! मैंने सुना है कि मेरा पौत्र रावण तुम्हारे कारागार में बंदी है। उसे परास्त कर तुमने अपनी वीरता का परिचय दे दिया है और रावण को भी अपनी करनी का पछतावा होगा। किन्तु अब मेरी इच्छा है कि तुम उसे स्वतंत्र कर दो।" तब सहस्त्रार्जुन ने कहा - "महर्षि! आपकी इच्छा भी मेरे लिए आज्ञा के ही समान है। मुझे बड़ा दुःख है कि इतनी छोटी से बात के लिए आपको यहाँ तक आना पड़ा। अगर आप सन्देश भिजवा देते तो मैं रावण को स्वतंत्र कर देता।"
ये कहकर सहस्त्रार्जुन ने सम्मान सहित रावण को बुलाया। जब रावण ने वहाँ अपने पितामह को देखा तो उन्हें प्रणाम किया किन्तु मारे लज्जा के रावण का शीश भी नहीं उठ सका। जब महर्षि पुलत्स्य ने रावण को ऐसी हीन भावना में देखा तो उसे कई प्रकार के उदेश देकर उन्होंने रावण का आत्मविश्वास वापस लौटाया। तब उनकी आज्ञा से रावण ने सहस्त्रार्जुन से मित्रता की और अपनी सेना को लेकर वापस लंका लौट गया।
रावण का मानमर्दन श्रृंखला:
very good content keep working
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ऋषभ जी।
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