गोकुल वृंदावन में जब श्रीकृष्ण १६ वर्ष के हुए, कंस के निमंत्रण पर अक्रूर उन्हें और बलराम को लेकर मथुरा आ गए। कंस से मिलने से पहले उन्हें कुछ दिन अतिथिशाला में ठहराया गया जहाँ उन्होंने नगर भ्रमण का सोचा। वे दोनों भाई मथुरा की गलियों में भ्रमण करने लगे। वे जिधर भी निकल जाते, लोग उन्हें देखते ही रह जाते। नगर में पहले ही समाचार फ़ैल चुका था कि ये दोनों भाई ही उन्हें कंस के अत्याचारों से मुक्त करवाएंगे।
उसी नगर में एक त्रिवक्रा (कुबड़ी) रहा करती थी। वैसे तो उसका नाम सैरंध्री था किन्तु कुबड़ी होने के कारण उसका "कुब्जा" नाम ही प्रसिद्ध हो गया था। वो देखने में अति सुन्दर थी किन्तु उनकी शारीरिक विकलांगता के कारण सब उसे चिढ़ाते थे। इसी कारण उसने श्रृंगार करना बिलकुल ही छोड़ दिया जिससे उसकी वेश-भूषा अत्यन विकृत हो गयी थी। कुब्जा कंस की दासी थी जो प्रतिदिन उसके लिए पुष्प और चन्दन का उबटन लेकर राजमहल जाया करती थी। कंस को भी उसका सुगन्धित उबटन बहुत प्रिय था और इसीलिए वो भी उसका मान करता था।
जब कृष्ण और बलराम मथुरा की गलियों में घूम रहे थे तभी उन्होंने दंड के सहारे चली आ रही कुब्जा को देखा। उसे देखते ही श्रीकृष्ण रुक गए और आती हुई कुब्जा का मार्ग रोक लिया। कुब्जा को लगा कि आज फिर ये किशोर उसे चिढ़ाने आया है इसीलिए वो बगल से निकलने का प्रयत्न करने लगी किन्तु श्रीकृष्ण ने उसे जाने नहीं दिया। अंत में चिढ कर उस कुब्जा ने कहा - "तुम लोग कौन हो और क्यों मेरा मार्ग अवरुद्ध कर रहे हो। जानते नहीं मैं महाराज कंस की सेविका हूँ और उनके लिए उबटन इत्यादि लेकर जा रही हूँ। तुम लोग मेरा मार्ग छोड़ दो अन्यथा मुझे महाराज की सेवा में विलम्ब हो जाएगा।"
ये सुकर श्रीकृष्ण ने कहा - "सुंदरी! क्या तुम थोड़ा उबटन मुझे भी दोगी?" उनके ऐसा कहना कुब्जा को और अपमानजनक प्रतीत हुआ। आज तक लोग केवल उसके रूप का मजाक ही उड़ाते थे किन्तु आज अपने लिए 'सुंदरी' सम्बोधन सुन कर वो और अपमानित महसूस करने लगी। उसने क्रोधित होते हुए कृष्ण से कहा - "दुष्ट, किसी की कुरूपता का मजाक उड़ाना अच्छी बात नहीं। मुझे पता है कि मैं कितनी कुरूप हूँ अतः मुझे इस प्रकार अपमानित ना करो।"
इस पर श्रीकृष्ण ने अति मृदु स्वर में कहा - "हे सुंदरी! मैं तुम्हारा उपहास नहीं कर रहा हूँ। मेरी दृष्टि में तुम निश्चय ही अद्वितीय सुंदरी हो।" उनकी ऐसी बात सुन्दर कुब्जा ने प्रथम बार उनका मुख देखा। ऐसा तेज देख कर वो उन्हें देखती ही रह गयी। तभी श्रीकृष्ण ने पुनः पूछा - "क्या तुम हम दोनों भाइयों को भी थोड़ा उबटन दोगी?" उनके सम्मोहन में जकड़ी कुब्जा विरोध नहीं कर सकी और उसने प्रथम बलराम को और फिर श्रीकृष्ण को उबटन लगाया। वो कृष्ण की माया में इतना खो गयी कि उसे पता ही नहीं चला कि महाराज कंस का सारा उबटन समाप्त हो चुका है। उसे अब इसकी चिंता भी नहीं थी।
अंतिम बचा हुआ चन्दन का लेप लेकर वो कुब्जा श्रीकृष्ण के मुख पर लगाना चाहती थी किन्तु कमर झुकी होने के कारण उसका हाथ श्रीकृष्ण के मुख तक नहीं पहुँच पा रहा था। ये सब कौतुक देखने को पूरा नगर वहाँ उपस्थित हो गया। आते जाते लोग रुक-रुक कर ये दृश्य देखने लगे। तब कुब्जा ने श्रीकृष्ण ने अनुरोध किया कि वो थोड़ा झुकें ताकि वो उन्हें चन्दन का लेप लगा सके। इसपर श्रीकृष्ण ने अचानक ही उसके पैर को अपने अँगूठे से दबाया और अपनी तर्जनी अंगुली से कुब्जा की ठोड़ी पकड़कर उसे एक झटके में उठा दिया।
आश्चर्य! कुब्जा का शरीर एकदम सीधा हो गया। उसका जो सौंदर्य खो गया था उससे भी अधिक तेज उस कुब्जा के मुख पर आ गया। जिसे सब कुरूप स्त्री कहते थे, आज उसका सौंदर्य अप्सराओं को भी मात कर रहा था। कुब्जा को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ किन्तु जब उसने अपना शरीर और मुख देखा तो वो श्रीकृष्ण के चरणों पर गिर पड़ी। तब श्रीकृष्ण ने उसे उठाते हुए कहा - "देखा, मैंने कहा था ना कि तुम अद्वितीय सुंदरी हो। आज से तुम पुनः सैरंध्री के नाम से ही जानी जाओगी।"
उसके बाद जैसे ही श्रीकृष्ण चलने को हुए, सैरंध्री ने उनके चरण पकड़ लिए और कहा - "हे प्रभु! अब तो जो कुछ भी मेरा है वो आपका ही दिया हुआ है। आपके रूप ने मेरे मन में अनुराग उत्पन्न कर दिया है। अतः कृपया मेरे घर पधारिये।" तब श्रीकृष्ण ने कहा - "सैरंध्री! इस समय तो मैं किसी विशेष कार्य से मथुरा आया हूँ किन्तु मैं तुम्हे वचन देता हूँ कि एक दिन पुनः तुम्हे अवश्य दर्शन दूंगा।" ये कहकर श्रीकृष्ण बलराम के साथ चले गए किन्तु सैरंध्री तब से केवल श्रीकृष्ण के दर्शनों के लिए ही जीती रही।
बहुत काल के बाद श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाया और जरासंध के आक्रमणों से तंग आकर मथुरा छोड़ने से पहले वे उद्धव के साथ सैरंध्री के घर पहुंचे। वहाँ उसके अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने उसे अपना प्रेम प्रदान किया और कुब्जा ने उनसे ये वरदान माँगा कि चिरकाल तक उनका ये प्रेम उसे ऐसे ही प्राप्त होता रहे। उसी के नाम से प्रभावित होकर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को अज्ञातवास में सैरंध्री नाम दिया।
ब्रह्मावर्त पुराण में ऐसा वर्णन है कि रावण की बहन शूर्पणखा ही अगले जन्म में कुब्जा के रूप में जन्मी। पिछले जन्म में उसे श्रीराम के प्रति अनुराग हो गया था किन्तु एक पत्नीव्रत होने के कारण श्रीराम उसकी कामना पूर्ण नहीं कर पाए थे। तब उन्होंने सूर्पनखा को ये आश्वासन दिया था कि अगले जन्म में वो उसकी ये इच्छा अवश्य पूर्ण करेंगे और इसी कारण वो अगले जन्म में कुब्जा के रूप में जन्मी और भगवान विष्णु के नवें अवतार श्रीकृष्ण ने उसकी इच्छा पूर्ण की।
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