इस लेख में हम उस चौथे योद्धा का वर्णन करेंगे जिसके हाथों रावण को अपमानजनक पराजय का स्वाद चखना पड़ा था। वो योद्धा था इंद्रपुत्र और किष्किंधा का राजा वानरराज बाली। कथा तब की है जब बाली के बल और शौर्य का डंका पूरे विश्व में बज रहा था। उस पर बाली ने उस दुदुम्भी, जिससे लड़ने को स्वयं समुद्र और हिमवान ने भी मना कर दिया था, केवल एक प्रहार में ही वध कर दिया था और उसके विशाल शव को अपने हाथों में उठा कर १ योजन दूर फेक दिया था। यही कारण था कि विश्व का कोई भी योद्धा उससे लड़ने का साहस नहीं जुटा पाता था।
दूसरी ओर रावण का यश भी चहुँओर फैला था। उसने अपनी भुजाओं पर कैलाश उठा कर महादेव को प्रसन्न कर लिया था और इंद्र और नवग्रहों को भी युद्ध कर अपने अधीन कर लिया था। एक बार देवर्षि नारद पृथ्वी लोक पर भ्रमण कर रहे थे जब उनकी भेंट बाली से हुई। बाली ने उन्हें प्रणाम किया और बहुत सत्कार कर पूछा कि "हे देवर्षि! आप कहाँ जा रहे हैं?" इसपर देवर्षि ने कहा - "कपिराज! मैं राक्षसराज रावण के आमंत्रण पर लंका जा रहा हूँ जो देवराज इंद्र पर विजय का उत्सव मना रहा है। सच पूछो तो आज संसार में उससे बड़ा योद्धा कोई नहीं। तुम्हे भी एक बार उससे अवश्य द्वन्द करना चाहिए।"
ये सुनकर बाली ने नम्रतापूर्वक कहा - "हे देवर्षि! मुझे मेरे बल का अभिमान नहीं है अतः मेरी रावण से क्या प्रतिस्पर्धा?" ये कहकर बाली ने देवर्षि को आदरपूर्वक विदा किया। जब वे लंका पहुँचे तो रावण ने उनकी खूब आव-भगत की और उनका कुशल पूछा। तब देवर्षि ने उसे भी चिढ़ाने के लिए कहा - "हे सप्तद्वीपाधिपति! अभी मैं किष्किंधा से आ रहा हूँ। वहाँ के सम्राट बाली के बल का क्या वर्णन करूँ? आज संसार में कोई नहीं जो उससे लोहा ले सके।"
ये सुनकर रावण के अभिमान को ठेस लगी। उसने कहा - "अगर ऐसी बात है देवर्षि तो मैं आज ही उसपर आक्रमण करूँगा।" तब नारद ने कहा - "अरे! विश्वविजेता रावण को एक योद्धा को पराजित करने के लिए सेना की क्या आवश्यकता?" तब रावण ने कहा - "आप सही कहते हैं। मैं एकाकी ही जाऊंगा और उसे परास्त कर ये सिद्ध कर दूंगा कि आज त्रिलोक में मुझसे शक्तिशाली और कोई नहीं।"
ये कहकर रावण तत्काल अपने पुष्पक विमान पर बैठ कर किष्किंधा पहुँचा और वहाँ सीधे बाली के राजभवन में घुस कर उसे ललकारने लगा। तब बाली के साले और महामंत्री तार ने रावण से पूछा कि वो क्या चाहता है? तब रावण ने बाली से युद्ध की इच्छा जताई। ये सुनकर तार हँसते हुए बोला - "हे महाराज! आप तनिक विश्राम कीजिये। महाराज बाली अभी संध्या वंदन को गए हैं। उनका ये नियम है कि प्रत्येक दिन वे चारो दिशाओं के समुद्र के जल से सूर्यदेव को अर्ध्य देते हैं। जब वे आ जाएँ तो आप उनसे अपना निवेदन कहें।"
लेकिन रावण को प्रतीक्षा नहीं करनी थी इसीलिए वो सीधा समुद्र तट पर गया जहाँ बाली संध्या वंदन कर रहा था। रावण उससे कुछ दूर खड़ा उसे ललकारने लगा किन्तु बाली ने कोई उत्तर नहीं दिया। इससे रावण क्रुद्ध हो गया और बाली के पास ये सोच कर गया कि उसे पीछे से उठा कर आकाश में फेंक देगा। तभी बाली ने रावण को अपनी पूछ में जकड़ा और कांख में दबा कर उसी प्रकार संध्या वंदन करता रहा। रावण ने उसकी पकड़ से छूटने का बड़ा प्रयास किया किन्तु सफल ना हो पाया।
अब बाली उसी प्रकार उसे अपनी कांख में दबाये उड़ा और दक्षिण से पूर्व फिर उत्तर और फिर पश्चिम दिशा में जाकर सागर जल से संध्या वंदन कर पुनः उड़ता हुआ अपने महल आ पहुँचा। अपने महल में आकर उसने रावण को मुक्त किया और उसका सम्मान कर पूछा - "हे राक्षसराज! देवर्षि से आपके विषय में बड़ा सुना था, आज दर्शन भी हो गए। बताइये कि मैं आपकी कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ?"
रावण ने देखा कि वो तो केवल बाली की पकड़ से छूटने के उद्यम में ही थक कर चूर हो गया था किन्तु उसे उठा कर चारो दिशा घूमने के पश्चात भी बाली के मुख पर जरा भी थकान नहीं थी। अब रावण कैसे उससे युद्ध की याचना करता? उसने कहा - "हे वानरराज! देवर्षि से मैंने भी आपके विषय में बहुत कुछ सुना था। मैं तो आपको यहाँ युद्ध की चुनौती देने आया था किन्तु आपने मेरा अभिमान तोड़ दिया। यदि मुझे इस योग्य समझें तो अपने मित्र के रूप में स्वीकार करें। तब बाली ने रावण के बल की बड़ी प्रशंसा की और अग्नि को साक्षी मान कर रावण से मित्रता की जो उसने मृत्युपर्यन्त निभाई।
रावण का मानमर्दन श्रृंखला:
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