हिन्दू धर्म के महान प्रवर्तक जगतगुरु आदि शंकराचार्य को कौन नहीं जनता? किन्तु अगर मैं कहूँ कि हममें से अधिकतर लोग उनके विषय में सत्य नहीं जानते तो आपको आश्चर्य होगा। किन्तु सत्य यही है कि आदि शंकराचार्य के विषय में जो मिथ्या और भ्रामक जानकारी उपलब्ध है उसे ही अधिकतर हिन्दू जानते और मानते हैं। सबसे अधिक मिथक तो इनके जन्म का समय है जो इन्हे ८वीं सदी का विद्वान बताता है किन्तु सत्य ये नहीं है। तो आइये आदि शंकराचार्य के विषय में कुछ जानने से पहले अपने मन पर जमी अज्ञानता की धूल हम हटा लें।
अधिकतर आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि शंकराचार्य का जन्म ८वीं शताब्दी में सन ७८८ ईस्वी में हुआ था और ७८० ईस्वी में इन्होने निर्वाण लिया। किन्तु ये सत्य नहीं है। आज से १३८ वर्ष पहले १८८२ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा था कि आदि शकराचार्य का जन्मकाल लगभग २२०० वर्ष पूर्व का है। उस समय स्वामी दयानन्द सरस्वती ५८ वर्ष के थे और एक वर्ष बाद १८८३ में ५९ वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई।
इस समय सन २०२० अर्थात विक्रम सम्वत २०७७ चल रहा है। अगर कलि सम्वत की बात करें तो अभी ५१२१ चल रहा है। अगर उससे भी प्राचीन युधिष्ठिर सम्वत की बात करें जो कलि संवत से ३८ वर्ष पूर्व का माना जाता है तो अभी ५१५९ युधिष्ठिर संवत चल रहा है। ये तो सर्व विदित है कि आदि शंकराचार्य ने देश के चारो दिशाओं में ४ महान मठों की स्थापना की थी। अभी हम मठों के विवरण की ओर नहीं जायेंगे और केवल कालखंड देखेंगे। ये कालखंड उन्ही मठों में रखे लिखित स्मृतियों से प्राप्त हुआ है। जब आप इन मठों में जायेंगे तो ये कालखंड वहाँ लिखा मिल जाएगा।
- बद्री ज्योतिर्मठ पीठ: २६४५ युधिष्ठिर संवत
- द्वारका कलिका पीठ: २६४८ युधिष्ठिर संवत
- श्रृंगेरी शारदा पीठ: २६४८ युधिष्ठिर संवत
- पुरी गोवर्धन पीठ: २६५५ युधिष्ठिर संवत
इन सभी मठों में सभी गुरु और शिष्य का विवरण संरक्षित रखा हुआ है। जब कोई व्यक्ति गुरुपद प्राप्त करता है और जब वो निर्वाण प्राप्त करता है, ये दोनों तिथि इस विवरण में जोड़ दी जाती है। इसी तरह अगला जो गुरु होता है उसका कालखंड भी आगे जुड़ता रहता है। ये तिथियाँ श्लोक के रूप में लिखी जाती है और शिष्य इसे कंठस्थ कर लेते हैं। शारदा मठ के इतिहास में ऐसा ही एक श्लोक लिखा गया है:
युधिष्ठिरशके २६३१ वैशाखशुक्लापंचमी। श्री मच्छशंकरावतार:।।
तदुन २६६३ कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां। श्रीमच्छंशंकराभगवत्।।
पूज्यपाद निजदेहेनैव निजधाम प्रविशन्निति।।
अर्थात: २६३१ युधिष्ठिर संवत में शंकर अवतार आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था एवं युधिष्ठिर संवत २६६३ में वे निर्वाण लेकर अपने निजधाम को चले गए।
अभी ५१५९ युधिष्ठिर सम्वत चल रहा है। इसका अर्थ ये है कि आदि शंकराचार्य का जन्म ५१५९ - २६३१ = २५२८ वर्ष पहले हुआ था। यदि वर्तमान ईसा काल २०२० को उसमे घटा दिया जाये तो २५२८ - २०२० = ५०८ ईस्वी पूर्व उनका जन्म माना जा सकता है। इसी प्रकार ४७४ ईस्वी पूर्व उन्होंने निर्वाण ले लिया था।
आदि शंकराचार्य के काल में ही राजा सुधनवा हुए जिन्होंने एक ताम्रपत्र लिखा जो उनकी मृत्यु के एक मास पूर्व लिखा गया था। उसमे शंकराचार्य का जन्म तिथि २६३१ युधिष्ठिर सम्वत ही लिखी थी। इसके अतिरिक्त शंकराचार्य के सहपाठी चित्तसुखाचार्य जी ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था "वृहत शंकर विजय" और उसमें भी शंकराचार्य के जन्म का समय २६३१ ही बताया गया है। हालाँकि ये पुस्तक अब अपने मूल रूप में तो उपलब्ध नहीं है किन्तु उसमें वर्णित दो श्लोक शंकराचार्य के जन्म के समय की पुष्टि करते हैं।
आदि शंकराचार्य के जन्म की मिथ्या तिथि जनमानस में कैसे फैली?
इस भ्रम का कारण एक और आचार्य है जिनका नाम भी शंकर था। कहा जाता है कि आगे चल कर ये आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों मठों में से एक श्रृंगेरी मठ के मठाधीश बने जो अन्य सभी मठाधीशों से अधिक तेजस्वी और प्रसिद्ध थे। इन मठों के अधिपति को भी शंकराचार्य की उपाधि मिलती है। इन अभिनव शंकराचार्य की वेश-भूषा और जीवन भी बिलकुल आदि शंकराचार्य की ही तरह था। ऊपर से शंकराचार्य की उपाधि प्राप्त होने के कारण अधिकतर इसिहासकारों ने इन्ही को आदि शंकराचार्य के रूप में प्रचारित करना आरम्भ कर दिया।
इस भ्रम का कारण एक और आचार्य है जिनका नाम भी शंकर था। कहा जाता है कि आगे चल कर ये आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों मठों में से एक श्रृंगेरी मठ के मठाधीश बने जो अन्य सभी मठाधीशों से अधिक तेजस्वी और प्रसिद्ध थे। इन मठों के अधिपति को भी शंकराचार्य की उपाधि मिलती है। इन अभिनव शंकराचार्य की वेश-भूषा और जीवन भी बिलकुल आदि शंकराचार्य की ही तरह था। ऊपर से शंकराचार्य की उपाधि प्राप्त होने के कारण अधिकतर इसिहासकारों ने इन्ही को आदि शंकराचार्य के रूप में प्रचारित करना आरम्भ कर दिया।
किन्तु ये शंकराचार्य आदि शंकराचार्य नहीं थे। इनका जन्म ८वीं शताब्दी में वर्तमान तमिलनाडु राज्य के चिदंबरम जिले में हुआ। इनके पिता का नाम "श्रीविश्वजी" था। जबकि आदि शंकराचार्य का जन्म वर्तमान के केरल राज्य के मालाबार क्षेत्र में कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण कुल में हुआ। उनके माता पिता का नाम "अर्याम्बा" और "शिवगुरु" था। नवीन शंकराचार्य भी बहुत कम आयु में कैलाश में तपस्या करने चले गए। जहाँ आदि शंकराचार्य नेे केेवल ३२ वर्ष की आयु में केदारनाथ में निर्वाण प्राप्त किया वहीं नवीन शंकराचार्य (या केवल शंकराचार्य) ने लगभग ४५ वर्ष में कैलाश पर निर्वाण प्राप्त किया।
दोनों में इतनी समानता होने के कारण ही इतना भ्रम उत्पन्न हुआ है और लोगों को वास्तविक जानकारी नहीं है। आदि शंकराचार्य ने ४ मठों के अतिरिक्त १० संप्रदाय की स्थापना की थी। ऐसी मान्यता है कि धर्म की रक्षा हेतु अपना सामर्थ्य बढ़ने के लिए नवीन शंकराचार्य ने ही अखाड़ों की स्थापना की थी जो आज ना केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। अब आप लोग समझ गए होंगे कि ये दोनों शंकराचार्य अलग-अलग हैं और भगवान शंकर (शिव नहीं) का अवतार आदि शंकराचार्य को माना जाता है, नवीन शंकराचार्य को नहीं।
पुराणों में कई ऐसे श्लोक हैं जो इन्हे भगवान शंकर का अवतार सिद्ध करते हैं। आइये उनमें से कुछ पर दृष्टि डालते हैं -
सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते।
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले।
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि।।
अर्थात: सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादिक महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया, अभ्युदय तथा निःश्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी जिसके फलस्वरूप स्वर्ग दुर्गम होने लगा तथा अपवर्ग अगम हो गया तब इस भूतल पर भगवान भर्ग (शंकर) अवतीर्ण हुए।
भविष्योत्तर पुराण के ३६वें श्लोक में लिखा है -
कल्यब्दे दविसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भिः सह शिष्यैस्तु शंकरोSअवतरिष्यति।।
अर्थात: कलि के दो सहस्त्र वर्ष बीतने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शंकर अपने चार शिष्यों सहित अवतार धारण कर अवतरित होते हैं।
लिंगपुराण के ४०.२०-२१.१/२ में लिखा है -
निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजाः कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेवः शंकरो नीललोहितः।।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थ धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शकरं।।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्।।
अर्थात: कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निंदा करने लगते हैं, रूद्र संज्ञक विकटरूप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिए अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण और सेवन करते हैं वो परमपद को प्राप्त होते हैं।
कूर्मपुराण के १.२८.३२-३४ में लिखा है -
कलौ रुद्रो महादेवो लोकनामीश्वर: परः।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांचं दैवतं।।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहितः।
श्रौतस्मार्तप्रतिष्ठार्थ भक्तानां हितकाम्यया।।
उपदेक्ष्यति तज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदांतसार हि धर्मान वेदनदिर्शितं।।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केणोपाचरतः।
विजित्य कलिजान दोषान यन्ति ते परम पदम्।।
अर्थात: कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रूद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिए उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिए विविध अवतारों को ग्रहण करेंगे। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदांतसार ब्रह्मज्ञानरूप मोक्ष धर्मों का उपदेश देंगे। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनका सेवन करते हैं वे कलिप्रभाव दोषों को जीत कर परमपद को प्राप्त करते हैं।
शिवपुराण के रुद्रखण्ड ७.१ में लिखा है -
व्याकुरवन व्याससुत्रार्थ श्रुतेर्राथं यथोचीवान।
श्रुतेन्यायः स एवार्थः शंकरः सविताननः।।
अर्थात: सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिव अवतार आचार्य शंकर श्री बादरायण वेदव्यास रचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं।
इनका जन्मस्थान वर्तमान के केरल के मालाबार क्षेत्र में स्थित कालड़ी नामक स्थान है। इनके जन्म की एक कथा है कि इनके माता पिता ने पुत्र प्राप्ति हेतु भगवान रूद्र की घोर तपस्या की। तब एक दिन उन्होंने इन्हे स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि वे कैसा पुत्र चाहते हैं? दीर्घायु गुणहीन पुत्र अथवा अल्पायु असाधारण गुणी पुत्र? तब इनके माता पिता ने आयु की जगह गुणों को प्राथमिकता दी और अल्पायु, किन्तु गुणी पुत्र माँगा। तब भगवान शंकर की कृपा से इनके यहाँ एक बालक का जन्म हुआ। भगवान शंकर की आराधना करने के पश्चात उन्होंने इन्हे पुत्र के रूप में पाया था इसीलिए इनका नाम शंकर रखा गया। तीन वर्ष की अल्पायु में इनके पिता का देहांत हो गया किन्तु माता ने इनका पालन पोषण किया।
इनकी मेधा इतनी असाधारण थी कि केवल छः वर्ष की अवस्था में इन्होने सभी वेदों, पुराणों और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। जब वे सात वर्ष के थे तब भिक्षा मांगने एक दरिद्र वृद्धा की कुटिया में जा पहुँचे। उस वृद्धा के पास अन्न का एक दाना ना था। तब उन्होंने एक आंवला शंकर की हाथों में रख दिया और रोते हुए बोली कि उसके पास देने को यही है। उनकी ये दशा देख कर उस बालक का ह्रदय द्रवित हो गया और उसी समय उन्होंने श्री लक्ष्मी स्त्रोत्र की रचना की और माता लक्ष्मी से प्रार्थना की कि उनकी दरिद्रता समाप्त कर दे। माता ने उनका अनुरोध माना और उस वृद्धा के घर पर स्वर्ण आंवलों की वर्षा कर दी।
आठ वर्ष की आयु में इन्होने संन्यास लेने का निश्चय किया किन्तु संन्यास ग्रहण करने के बीच में इनकी माता थी। वे कभी नहीं चाहती थी कि जिस पुत्र को उन्होंने इतनी प्रार्थना के बाद प्राप्त किया है और जिसे उनके पिता के निधन के बाद उन्होंने इतने जतन से पाला है, वो संन्यासी हो जाये। इससे शंकर धर्मसंकट में पड़ गए क्यूंकि वे माता की अवज्ञा भी नहीं करना चाहते थे और सांसारिक बंधनों में बंध कर भी नहीं रहना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने एक लीला रची। एक दिन स्नान के समय इनका पैर एक मगर ने पकड़ लिया। तब इन्होने चिल्ला कर अपनी माता से कहा कि "हे माता! जल्दी से मुझे संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा दो अन्यथा ये मगर मुझे खा जाएगा।"
उस संकट को देखकर अर्याम्बा ने उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा दे दी। आश्चर्य कि जैसे ही उन्हें माता की आज्ञा मिली, उस मगर ने उनका पैर छोड़ दिया। अपनी माता से बिछड़ने से पूर्व उन्होंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा - "माता! तुम दुखी ना हो। तुम्हारी कृपा छाया तो मेरे ऊपर सदैव बनी रहेगी। मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारे निर्वाण से पूर्व मैं तुम्हारे पास लौटूँगा और अपने पुत्र धर्म के सभी दायित्वों का निर्वहन करूँगा।" तत्पश्चात उन्होंने आचार्य गोविंदनाथ से संन्यास की दीक्षा ली और शंकराचार्य कहलाये।
संन्यासी होते हुए भी आदि शंकराचार्य ने अपना ये वचन निभाया और अपनी माता की मृत्यु के समय वे उनके पास वापस लौटे और एक पुत्र होने के सभी दायित्व निभाए। ऐसा कहा गया है कि अपनी माता की मृत्यु के बाद भावुक हो शंकराचार्य उन्हें अग्नि देने आगे बढे किन्तु उनके शिष्य और अन्य विद्वानों ने संन्यास के परंपरागत नियम की दुहाई देकर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। तब उन्होंने कहा कि "अपनी माता को मुखाग्नि देना धर्म के विपरीत नहीं है किन्तु आप सभी की इच्छा है इसी कारण आपकी सम्मति मिलने तक मैं अपनी माता को मुखाग्नि नहीं दूंगा।"
इससे वहाँ उपस्थित ब्राह्मण समाज और उनके शिष्यों के मन में शंका उत्पन्न हो गयी। उनसे पूछा - "हे आचार्य!जब आपने पुनः माता के पास लौट कर एक बार संन्यास का नियम भंग कर ही दिया है तो फिर उन्हें मुखाग्नि देने के लिए समाज की सम्मति क्यों आवश्यक है?" तब शंकराचार्य ने कहा - "हे सज्जनों! अभी मैं संन्यास के नियमों से बंधा हुआ हूँ इसीलिए अपनी माता को मुखाग्नि नहीं दे पाया किन्तु जब मैंने अपनी माता को वचन दिया था, उस समय मैं संन्यासी नहीं था और इसीलिए अपने वचन के पालन हेतु मैं अपनी माता के पास लौटा।" उनका ये उत्तर सुनकर सभी धन्य-धन्य कहने लगे और उन्हें अपनी माता को मुखाग्नि देने को कहा। तब उन्होंने अपने घर के बाहर ही अपनी माता को मुखाग्नि दी। आज भी दक्षिण भारत में घर के बाहर ही अंतिम करने की प्रथा आपको दिख जाएगी।
एक बार काशी में वे अपने शिष्यों सहित जा रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक चाण्डाल लेटा हुआ मिला। उनके शिष्यों ने उसे हटने को कहा पर उस चाण्डाल ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब आदि शंकराचार्य स्वयं आगे आये और उसे मार्ग से हटने को कहा। तब चाण्डाल ने कहा - "किसे हटाऊँ? शरीर को या आत्मा को? आकर को या निराकार को? सीम को अथवा असीम को?" ये सुनकर शंकराचार्य आश्चर्य में पड़ गए। उनकी विद्वता को देख कर उन्होंने उस चाण्डाल को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। ब्राह्मण होकर चाण्डाल की गुरुता स्वीकार करना उनकी आतंरिक शुद्धि को दर्शाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि चाण्डाल का रूप धर कर स्वयं भगवान शंकर उन्हें ज्ञान देने आये थे।
जब वे युवा हुए तो उनके ज्ञान का प्रकाश पूरे आर्यावर्त में फ़ैल गया। ब्रह्मसूत्रों की जैसी गहन और गूढ़ व्याख्या आदि शंकराचार्य ने की वैसी किसी और ने नहीं की। इसके अतिरिक्त इन्होने सभी उपनिषदों पर गहन शोध किया और उनपर अलग-अलग भाष्य लिखे। इसीलिए कहा जाता है कि सतयुग में मनु, त्रेता में दत्तात्रेय, द्वापर में वेदव्यास और कलियुग में आदि शंकराचार्य का ज्ञान के प्रसार में जो योगदान है वैसा किसी और का नहीं है। इनके विषय में कहा गया है -
अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्।
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्।।
अर्थात: आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया।
आदि शंकराचार्य ने केवल १२ वर्ष की आयु तक २५० से अधिक ग्रंथों की रचना कर ली थी। इन्होने ही श्री शिव पंचाक्षर स्त्रोत्र की रचना की। इनका एक विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है "विवेक चूड़ामणि"। इसी ग्रन्थ का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है:
वाक्य ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः
अर्थात: ब्रह्म सत्य है, जीवन मिथ्या है, जीव और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं है।
मिथ्या जगत की बात करने के बाद भी आदि शंकराचार्य १२ ज्योतिर्लिंगों, ५१ शक्तिपीठों और ४ विष्णुधामों की एक ऐसी महान यात्रा पर निकले जो पूरे आर्यावर्त को एक सूत्र में पिरोने वाला था। भारत, जो सदा से विविधताओं से भरा था उसमे भी अपनी यात्रा पर आदि शंकराचार्य ने हर जगह केवल एक संस्कृत भाषा का प्रयोग किया और ये सिद्ध कर दिया कि इतनी विविधताओं के बाद भी सम्पूर्ण देश एक और अखंड है।
मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ
मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ
अपने गुरु से योग की शिक्षा और ३ वर्ष के गहन अध्ययन के बाद आदि शंकराचार्य ने उनकी आज्ञा लेकर काशी की यात्रा की। यहाँ पर उन्होंने असंख्य विद्वानों को बात ही बात में परास्त कर दिया। किन्तु उनका जो सर्वाधिक प्रसिद्ध शास्त्रार्थ का वर्णन आता है वो बिहार के मण्डन मिश्र और उससे भी कठिन प्रतियोगिता मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी उभय भारती के साथ आता है। जब उत्तर भारत के सभी बड़े विद्वान शंकराचार्य के हाथों परास्त हुए तो उन्होंने उन्हें चुनौती दी कि वे मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिखाएँ।
तब आदि शंकराचार्य बिहार के "महिषी" नामक स्थान पहुँचे जहाँ मण्डन मिश्र अपनी पत्नी भारती के साथ रहते थे। मण्डन देश के प्रख्यात विद्वान थे और आज तक कोई उन्हें शास्त्रार्थ में परास्त नहीं कर पाया था। गांव में पहुंच कर उन्होंने सबसे मण्डन मिश्र के विषय में पूछा तब लोगों ने बताया कि आप बढ़ते रहें, आपको स्वयं उनके घर का पता चल जाएगा। तब शंकराचार्य घूमते हुए एक ऐसे घर पहुँचे जहाँ एक मैना वेदमंत्रों का पाठ कर रही थी। उसे देख कर शंकराचार्य आश्चर्यचकित रह गए और समझ गए कि यही मण्डन मिश्र का घर है।
वहाँ मण्डन मिश्र और भारती ने उनकी बड़ी आव-भगत की। तब शंकराचार्य ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी जिसे मण्डन मिश्र ने हँसते हुए स्वीकार कर लिया। किन्तु निर्णयकर्ता कौन हो? तब शंकराचार्य ने कहा कि आप अपनी पत्नी को निर्णय करने दीजिये कि कौन विजयी हुआ। उनकी ये बात सबने मान ली। फिर एक शुभ तिथि को अनेक विद्वानों के बीच भारती ने निर्णायिका का पद ग्रहण किया और दोनों में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। आज से पहले किसी भी विद्वान को परास्त करने में शंकराचार्य को अधिक समय नहीं लगा था किन्तु मण्डन मिश्र अद्वितीय थे।
दोनों को शास्त्रार्थ करते हुए तीन महीने और सोलह दिन का समय बीत गया किन्तु कोई निर्णय नहीं हो पाया। फिर अगले दिन शंकराचार्य को परास्त करने के संकल्प के कारण मण्डन मिश्र को अत्यंत क्रोध आ गया। जब आधे दिन का शास्त्रार्थ हो गया तो भारती अचानक उठ गयी और कहा कि उन्हें एक आवश्यक कार्य है इसीलिए वो थोड़ी देर में वापस आएगी। तब लोगों से कहा कि अगर आप ही चली जाएँगी तो निर्णय कौन करेगा? तब भारती के निर्देश पर दोनों को ताजे पुष्पों की माला पहनाई गयी। फिर भारती ने कहा कि आप चिंता ना करें, निर्णय हो जाएगा।
दोनों का शास्त्रार्थ चलता रहा और जब माधवी संध्या को वापस आयी तब विद्वानों ने पूछा कि इनमे से कौन विजय हुआ। तब भारती ने दोनों को देखा और शंकराचार्य को विजय घोषित किया। तब विद्वानों ने आश्चर्य से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि "क्रोध की अधिकता के कारण मेरे पति की माला के पुष्प सूख गए हैं किन्तु शंकराचार्य के पुष्प अभी तक ताजे हैं। जो व्यक्ति अपने क्रोध को जीत चुका हो वही विजयी कहलाता है।" इस प्रकार तीन महीने सत्रह दिनों के पश्चात शंकराचार्य ने अंततः मण्डन को परास्त कर दिया।
चहुँ ओर भारती के निर्णय की प्रशंसा होने लगी। स्वयं मण्डन मिश्र ने अपनी पत्नी की प्रशंसा की और अपनी हार स्वीकार की। किन्तु भारती ने अपनी पति की हार के बाद स्वयं शंकराचार्य को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी जिसे शंकराचार्य ने स्वीकार किया। अगले दिन प्रतियोगिता प्रारम्भ हुई और शंकराचार्य ने प्रथम भारती को प्रश्न करने को कहा। तब भारती ने काम कला सम्बन्धी प्रश्न पूछना आरम्भ किया। शंकराचार्य ब्रह्मचारी थे, काम कला के विषय में क्या उत्तर देते। इसपर भारती ने कहा कि उनका ज्ञान अधूरा है। इससे व्यथित होकर उन्होंने भारती से अनुरोध किया कि उन्हें थोड़ा समय दिया जाये। तब भारती ने उन्हें एक वर्ष का समय दिया।
शंकराचार्य भारती को शास्त्रार्थ में परास्त करने का निर्णय ले चुके थे। घूमते हुए वे कश्मीर पहुंचे जहाँ वहाँ के सम्राट आमरू की मृत्यु हो गयी थी। तब शंकराचार्य परकाया प्रवेश विद्या का प्रयोग किया और मृत आमरू के शरीर में प्रवेश कर गए। राजा जीवित हो उठा और उसके शरीर में रहते हुए शंकराचार्य ने लम्बे समय तक सभी प्रकार की काम क्रीड़ाओं का अनुभव प्राप्त किया। उन्होंने एक कामुक ग्रन्थ "आमरू-शतक" की रचना की जिसमे उन्होंने अपने काम अनुभवों का वर्णन किया। आमरू के शरीर में शंकराचार्य छः मास और बीस दिनों तक रहे।
तब वे भारती के पास आये और शास्त्रार्थ पुनः आरम्भ हुआ। इस बार उन्होंने भारती के काम संबंधी प्रश्नों का ऐसे रस में उत्तर देना आरम्भ किया कि स्वयं भारती को रोमांच हो आया। भारती पतिव्रता थी और इस भय से कि कहीं वो शंकराचार्य के प्रति आकर्षित ना हो जाये, उन्होंने स्वयं अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इस प्रकार शंकराचार्य ने भारती को भी शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया और पूरे विश्व में अपनी विद्वता का डंका बजा दिया। शंकराचार्य से परास्त होने के बाद मण्डन मिश्र उनके शिष्य बन गए और "सुरेश्वराचार्य" के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हे आदि शंकराचार्य ने श्रृंगेरी मठ का प्रथम शंकराचार्य बनाया।
वैसे तो आदि शंकराचार्य ने अनेक महान कार्य किये किन्तु उनमे से जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है वो उन चार मठों की स्थापना करना है जिसने वास्तव में पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया। हिन्दू धर्म का समस्त संत समाज इन्ही चारो मठों के अधीन है। जिसे इन चारो मठों में से किसी एक से भी स्वीकृति मिलती है, केवल वही संत माना जा सकता है।
जब शंकराचार्य ने अपनी यात्रा आरम्भ की तो उनके साथ उनके चार प्रमुख शिष्य थे - तोटकाचार्य, हस्तामलक, सुरेश्वर एवं पद्मपाद। ऐसी मान्यता है कि शंकराचार्य ने जिन भी विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त किया था ये चारों उनमे सर्वश्रेष्ठ थे। ये चारो शिष्य चार अलग वर्णों से थे। इन्ही चारो शिष्यों को अदि शंकराचार्य ने इन चार मठों का प्रथम अधिपति बनाया और उन्हें शंकराचार्य की उपाधि प्रदान की। इसी कारण आज भी इन मठों के मठाधीशों को "शंकराचार्य" के नाम से ही जाना जाता है। आइये अब उन चार मठों और उनके अधिपति शिष्यों के विषय में संक्षेप में जानें।
- ज्योतिर्मठ पीठ
- दिशा: उत्तर
- स्थान: जोशीमठ (उत्तराखंड)
- तीर्थ: बद्रीनाथ
- स्थापना: २६४५ युधिष्ठिर सम्वत
- प्रथम शंकराचार्य: तोटकाचार्य - इनका वास्तविक नाम गिरी था जो सदैव शंकराचार्य की सेवा में रत रहते थे। इस कारण वेदाभ्यास में वे कच्चे थे। एक बार अन्य शिष्यों द्वारा परिहास उड़ाने के कारण शंकराचार्य ने इन्हे मानसिक ज्ञान दिया। तब इन्होने टोटक वृत्त की रचना की जिससे इनका नाम तोटकाचार्य पड़ गया। इन्होने केरल के त्रिशूर में "वदक्के मठ" की स्थापना की।
- वर्तमान शंकराचार्य: स्वामी माधवाश्रम (४४वें)
- महावाक्य: अयंआत्मानं ब्रह्म।
- वेद: अथर्ववेद
- संप्रदाय: नन्दवल
- कलिका पीठ
- दिशा: पश्चिम
- स्थान: द्वारिका (गुजरात)
- तीर्थ: द्वारिका प्रभास तीर्थ
- स्थापना: २६४८ युधिष्ठिर सम्वत
- प्रथम शंकराचार्य: हस्तामलक - इनसे शंकराचार्य कोल्लूर के श्रीवल्ली ग्राम में मिले। इनके पिता का नाम भास्कर था। उस गांव में २००० परिवार थे और सभी विद्वान और वेद अग्निहोत्र करने वाले। एक दिन भास्कर अपने पुत्र को लेकर शंकराचार्य के पास आये और उनसे कहा कि उनका पुत्र मुर्ख है, कृपया उसे कुछ शिक्षा दें। तब शंकराचार्य ने उस बालक से पूछा कि वो कौन है? इसपर वो बालक, जिसके हाथ में "आमलक" (आंवला) था, उसने अद्वैत सिद्धांत के के १२ श्लोक सुना दिए। तब शंकराचार्य ने उसे अपना शिष्य स्वीकारा और उसका नाम हस्तामलक (हाथ में आंवला रखने वाला) रख दिया। इन्होने त्रिशूर में "इडयिल मठ" की स्थापना की।
- वर्तमान शंकराचार्य: स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती (७९वें)
- महावाक्य: तत्त्वमसि।
- वेद: सामवेद
- संप्रदाय: कितवल
- शारदा पीठ
- दिशा: दक्षिण
- स्थान: श्रृंगेरी, चिकमंगलूर (कर्नाटक)
- तीर्थ: रामेश्वरम
- स्थापना: २६४८ युधिष्ठिर सम्वत
- प्रथम शंकराचार्य: सुरेश्वर - इन्ही का नाम पहले मण्डन मिश्र था जिन्हे शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में परास्त किया था। इन्होने त्रिशूर में "नाडूविल मठ" की स्थापना की।
- वर्तमान शंकराचार्य: स्वामी भारती कृष्णतीर्थ (३६वें)
- महावाक्य: अहं ब्रह्मास्मि।
- वेद: यजुर्वेद
- संप्रदाय: भूरिवल
- गोवर्धन पीठ
- दिशा: पूर्व
- स्थान: पुरी (उड़ीसा)
- तीर्थ: पुरी जगन्नाथ
- स्थापना: २६५५ युधिष्ठिर सम्वत
- प्रथम शंकराचार्य: पद्मपाद - ये शंकराचार्य के प्रिय शिष्य थे जिन्होंने अद्वैतवाद में गहन शोध किये। इनकी और मण्डन मिश्र की घनिष्ठ मित्रता थी। आदि शंकराचार्य की आज्ञा पर इन्होने ब्रह्मसूत्रभाष्य पर एक शोध लिखा था किन्तु उनके चाचा ने ईर्ष्यावश इसे जला दिया। इन्होने गुरु-शिष्य परंपरा का प्रचार किया। इन्होने त्रिशूर में "थेक्के मठ" की स्थापना की।
- वर्तमान शंकराचार्य: स्वामी निश्चलानंद सरस्वती (१४५वें)
- महावाक्य: प्रज्ञानं ब्रह्म।
- वेद: ऋग्वेद
- संप्रदाय: भोगवल
जैसे-जैसे समय बीता, कुछ शंकराचार्य के शिष्यों ने स्वयं अपने मठ बना लिए तथा स्वयं को शंकराचार्य कहने लगे। उनमे से सबसे प्रसिद्ध तमिलनाडु स्थिति काँचीपीठ है। किन्तु केवल इन्ही चार पीठों के मठाधीशों को शंकराचार्य की उपाधि रखने का अधिकार है और अन्य किसी भी मठ को इनसे मान्यता प्राप्त नहीं हुई है। इन्ही मठों में से श्रृंगेरी मठ के मठाधीश शंकराचार्य को ही आज के लोग भूल से आदि शंकाचार्य समझ लेते हैं।
इन चार पीठों के अतिरिक्त आदि शंकराचार्य ने ही दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। चार वैदिक ऋषि इन सम्प्रदायों के इष्ट के रूप में माने जाते हैं।
- गिरि: ऋषि - भृगु
- पर्वत: ऋषि - भृगु
- सागर: ऋषि - भृगु
- पुरी: ऋषि - शांडिल्य
- भारती: ऋषि - शांडिल्य
- सरस्वती: ऋषि - शांडिल्य
- वन: ऋषि - कश्यप
- अरण्य: ऋषि - कश्यप
- तीर्थ: ऋषि - अवगत
- आश्रम: ऋषि - अवगत
आदि शंकराचार्य के जीवन की प्रमुख घटनाएं
- जन्म: २६३१ युधिष्ठिर संवत, वैशाख शुक्ल पंचमी
- उपनयन संस्कार: २६३९ युधिष्ठिर संवत, चैत्र शुक्ल नवमी
- संन्यास ग्रहण: २६३९ युधिष्ठिर संवत, कार्तिक शुक्ल एकादशी
- गुरु श्री गोविन्द भगवत्पाद से उपदेश: २६४० युधिष्ठिर संवत, फाल्गुन शुक्ल द्वितीय
- भाष्य रचना: २६४६ युधिष्ठिर संवत, ज्येष्ठ कृष्ण पूर्णिमा तक
- मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ: २६४७ युधिष्ठिर संवत, मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीय
- मंडन मिश्र की पराजय: २६४८ युधिष्ठिर संवत, चैत्र शुक्ल चतुर्थी (तीन महीने सत्रह दिन तक शास्त्रार्थ चला।)
- मंडन मिश्र की पत्नी भारती द्वारा काम कला सम्बन्धी प्रश्न: २६४८ युधिष्ठिर संवत, चैत्र शुक्ल षष्ठी
- परकाया प्रवेश: २६४८ युधिष्ठिर संवत, चैत्र शुक्ल अष्टमी (छह महीने बीस दिन परकाया में रहे।)
- पुनः अपने शरीर में प्रवेश: २६४८ युधिष्ठिर संवत, कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी
- भारती की पराजय: २६४८ युधिष्ठिर संवत, कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा
- शारदा मठ का निर्माण: २६४८ युधिष्ठिर संवत, कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी
- श्रृंगेरी मठ का निर्माण: २६४८ युधिष्ठिर संवत, कार्तिक शुक्ल नवमी
- मंडन मिश्र को सुरेश्वराचार्य की उपाधि: २६४९ युधिष्ठिर संवत, चैत्र शुक्ल नवमी
- सुरेश्वराचार्य का शारदा पीठ का अधिपति बनना: २६४९ युधिष्ठिर संवत, मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी
- तोटकाचार्य का संन्यास: २६५३ युधिष्ठिर संवत, श्रावण शुक्ल सप्तमी
- हस्तामलकाचार्य का संन्यास: २६५४ युधिष्ठिर संवत, आषाढ शुक्ल एकादशी
- गोवर्धन मठ का निर्माण एवं पद्मपादाचार्य का अभिषेक: २६५४ युधिष्ठिर संवत, वैशाख शुक्ल दशमी
- निर्वाण: २६६३ युधिष्ठिर संवत, कार्तिक पूर्णिमा
प्रमुख रचनाएँ
- अष्टोत्तरसहस्रनामावलिः
- उपदेशसहस्री
- चर्पटपंजरिकास्तोत्रम्
- तत्त्वविवेकाख्यम्
- दत्तात्रेयस्तोत्रम्
- द्वादशपंजरिकास्तोत्रम्
- पंचदशी
- कूटस्थदीप
- चित्रदीप
- तत्त्वविवेक
- तृप्तिदीप
- द्वैतविवेक
- ध्यानदीप
- नाटक दीप
- पंचकोशविवेक
- पंचमहाभूतविवेक
- पंचकोशविवेक
- ब्रह्मानन्दे अद्वैतानन्द
- ब्रह्मानन्दे आत्मानन्द
- ब्रह्मानन्दे योगानन्द
- महावाक्यविवेक
- विद्यानन्द
- विषयानन्द
- परापूजास्तोत्रम्
- प्रपंचसार
- भवान्यष्टकम्
- लघुवाक्यवृत्ती
- विवेकचूडामणि
- सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह
- साधनपंचकम
- भाष्य
- अध्यात्म पटल भाष्य
- ईशोपनिषद भाष्य
- ऐतरोपनिषद भाष्य
- कठोपनिषद भाष्य
- केनोपनिषद भाष्य
- छांदोग्योपनिषद भाष्य
- तैत्तिरीयोपनिषद भाष्य
- नृसिंह पूर्वतपन्युपनिषद भाष्य
- प्रश्नोपनिषद भाष्य
- बृहदारण्यकोपनिषद भाष्य
- ब्रह्मसूत्र भाष्य
- भगवद्गीता भाष्य
- ललिता त्रिशती भाष्य
- हस्तामलकीय भाष्य
- मंडूकोपनिषद कारिका भाष्य
- मुंडकोपनिषद भाष्य
- विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र भाष्य
- सनत्सुजातीय भाष्य
- अद्वैत अनुभूति
- अद्वैत पंचकम्
- अनात्मा श्रीविगर्हण
- अपरोक्षानुभूति
- उपदेश पंचकम् किंवा साधन पंचकम्
- एकश्लोकी
- कौपीनपंचकम्
- जीवनमुक्त आनंदलहरी
- तत्त्वोपदेश
- धन्याष्टकम्
- निर्वाण मंजरी
- निर्वाणशतकम्
- पंचीकरणम्
- प्रबोध सुधाकर
- प्रश्नोत्तर रत्नमालिका
- प्रौढ अनुभूति
- यति पंचकम्
- योग तरावली
- वाक्यवृत्ति
- शतश्लोकी
- सदाचार अनुसंधानम्
- साधन पंचकम् किंवा उपदेश पंचकम्
- स्वरूपानुसंधान अष्टकम्
- स्वात्म निरूपणम्
- स्वात्मप्रकाशिका
- गणेश स्तुति
- गणेश पंचरत्नम्
- गणेश भुजांगम्
- शिव स्तुति
- कालभैरवाष्टक
- दशश्लोकी स्तुति
- दक्षिणमूर्ति अष्टकम्
- दक्षिणमूर्ति स्तोत्रम्
- दक्षिणमूर्ति वर्णमाला स्तोत्रम्
- मृत्युंजय मानसिक पूजा
- वेदसार शिव स्तोत्रम्
- शिव अपराधक्षमापन स्तोत्रम्
- शिव आनंदलहरी
- शिव केशादिपादान्तवर्णन स्तोत्रम्
- शिव नामावलि अष्टकम्
- शिव पंचाक्षर स्तोत्रम्
- शिव पंचाक्षरा नक्षत्रमालास्तोत्रम्
- शिव पादादिकेशान्तवर्णनस्तोत्रम्
- शिव भुजांगम्
- शिव मानस पूजा
- सुवर्णमाला स्तुति
- शक्ति स्तुति
- अन्नपूर्णा अष्टकम्
- आनंदलहरी
- कनकधारा स्तोत्रम्
- कल्याण वृष्टिस्तव
- गौरी दशकम्
- त्रिपुरसुंदरी अष्टकम्
- त्रिपुरसुंदरी मानस पूजा
- त्रिपुरसुंदरी वेद पाद स्तोत्रम्
- देवी चतु:षष्ठी उपचार पूजा स्तोत्रम्
- देवी भुजांगम्
- नवरत्न मालिका
- भवानी भुजांगम्
- भ्रमरांबा अष्टकम्
- मंत्रमातृका पुष्पमालास्तव
- महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्
- ललिता पंचरत्नम्
- शारदा भुजंगप्रयात स्तोत्रम्
- सौन्दर्यलहरी
- नर्मदाष्टक
- विष्णु एवं उनके अवतारों की स्तुति
- अच्युताष्टकम्
- कृष्णाष्टकम्
- गोविंदाष्टकम्
- जगन्नाथाष्टकम्
- पांडुरंगाष्टकम्
- भगवन् मानस पूजा
- मोहमुद्गार (भजगोविंदम्
- राम भुजंगप्रयात स्तोत्रम्
- लक्ष्मीनृसिंह करावलंब (करुणरस) स्तोत्रम्
- लक्ष्मीनरसिंह पंचरत्नम्
- विष्णुपादादिकेशान्त स्तोत्रम्
- विष्णु भुजंगप्रयात स्तोत्रम्
- षट्पदीस्तोत्रम्
- अन्य देवताओं एवं तीर्थों की स्तुति
- अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्
- उमा महेश्वर स्तोत्रम्
- काशी पंचकम्
- गंगाष्टकम्
- गुरु अष्टकम्
- नर्मदाष्टकम्
- निर्गुण मानस पूजा
- मनकर्णिका अष्टकम्
- यमुनाष्टकम्
- यमुनाष्टकम्-२
रचनाओं का सन्दर्भ: साभार, विकिपीडिआ
आभार - डॉ विदुषी शर्मा का इन पौराणिक श्लोकों का सन्दर्भ उपलब्ध करवाने हेतु।
अत्यंत उपयुक्त और दुर्लभ जानकारी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर। आपको जानकारी साझा करने के लिए। बार बार प्रणाम।
जवाब देंहटाएं