मूल वाल्मीकि रामायण की कथाओं के अतिरिक्त भी कई ऐसी कथाएं हैं जो जनमानस में लोक कथाओं के रूप में प्रसिद्ध हैं। ऐसी ही एक कथा में ऐसा वर्णन है जब माता सीता ने गौ माता, फल्गू नदी एवं केतकी के पुष्प को श्राप दिया था। देश के कई राज्य, विशेषकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ये कथा बहुत प्रसिद्ध है। इस कथा के अनुसार जब पंचवटी में श्रीराम को अपने पिता महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार मिला तब वे माता सीता और लक्ष्मण सहित उनके श्राद्ध कर्म हेतु पवित्र नगरी गया पहुंचे। वहाँ पहुँच कर श्रीराम ने विधिवत पूजा की और फिर श्राद्ध का सामान जुटाने हेतु लक्ष्मण के साथ नगर को चले गए। उधर महाराज दशरथ की आत्मा ने विलम्ब होता देख कर माता सीता से ही पिंडदान की मांग कर दी। अब माता सीता बड़े धर्म संकट में पड़ गयी क्यूंकि एक स्त्री द्वारा पिंडदान नहीं किया जा सकता था। विशेषकर श्रीराम के होते हुए उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा। किन्तु फिर महाराज दशरथ की आत्मा द्वारा बार=बार अनुरोध करने पर उन्होंने फल्गू नदी, केतकी के पुष्प, एक गाय एवं वटवृक्ष को साक्षी मान कर महाराज दशरथ की आत्मा को पिंडदान दे दिया।
जब श्रीराम वापस आये तो उन्होंने इसकी सूचना उन्हें दी। तब श्रीराम ने कहा कि ऐसा कैसे संभव है और उनसे इसका प्रमाण माँगा। इसपर माता सीता ने फल्गू नदी, केतकी, गौ एवं वटवृक्ष को सत्य बताने को कहा किन्तु फल्गू, केतकी और गौ ने इसके लिए मना कर दिया। तब वटवृक्ष ने श्रीराम को बताया कि देवी सीता सत्य कह रही हैं। फिर सीता माता ने महाराज दशरथ की आत्मा का आह्वान किया जिन्होंने स्वयं आकर श्रीराम और लक्ष्मण को माता सीता के सत्य वचन की पुष्टि की। ये सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
किन्तु माता सीता फल्गू, केतकी एवं गौ के असत्य वचन से बहुत क्रोधित हुई और उन्होंने तीनों को श्राप दे दिया।
- फल्गू नदी को उन्होंने सूख जाने का श्राप दिया। उसके क्षमा याचना करने पर उन्होंने कहा कि केवल वर्षा ऋतु में उस नदी में जल रहेगा, अन्य समय नहीं।
- केतकी को उन्होंने पूजा में त्याज्य होने का श्राप दिया। उसके क्षमा याचना करने पर माता सीता ने कहा कि अन्य देवताओं की पूजा में तो उन्हें चढ़ाया जाएगा किन्तु भगवान शंकर की पूजा में वो वर्जित होगा। केतकी को भगवान शंकर की पूजा में ना चढाने की एक और कथा भी है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
- गौ माता को उन्होंने श्राप दिया कि जिस मुख से उन्होंने असत्य भाषण किया है वो मुख अपवित्र माना जाएगा और उसकी कभी पूजा नहीं की जाएगी। उनके क्षमा याचना करने पर उन्होंने कहा कि ऐसा होने पर भी गौ माता का जो महत्त्व है वो और भी बढ़ जाएगा।
- अंत में उन्होंने वटवृक्ष को ये वरदान दिया कि वो लम्बी आयु तक जियेगा और सदैव पवित्र माना जाएगा। तब से ही वटवृक्ष को हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र वृक्ष के रूप में मान्यता प्राप्त है।
कुछ कथाओं में हमें फल्गू नदी एवं केतकी के पुष्प की जगह ब्राह्मण और कौवे का वृतांत मिलता है। ब्राह्मण को उनके असत्य भाषण पर माता सीता द्वारा दरिद्रता का और कौवे को पिंडदान के पिंड को खाने के श्राप का वर्णन आता है। हालाँकि अधिकतर जगह इन्ही चारों का वर्णन है।
इसी श्राप के विषय में एक और कथा आती है जो भगवान शंकर एवं माता पार्वती से सम्बंधित है। इस कथा के अनुसार तीज के दिन माता पार्वती ने व्रत किया था किन्तु जब उनके भोजन का समय हुआ तो भगवान शंकर लीला दिखाते हुए छिप गए। अब माता पार्वती ने उन्होंने बहुत ढूंढा किन्तु वे नहीं मिले। तब हार कर उन्होंने वहाँ उपस्थित एक गौ को साक्षी मान कर एक शिवलिंग की स्थापना की और उन्ही की पूजा की।
पूजा के पश्चात वे भोजन करने बैठी किन्तु तब तक उस गौ ने वहाँ उपस्थित पूजन सामग्री को खा लिया। उधर जैसे ही माता पार्वती ने भोजन आरम्भ करना चाहा, भगवान शंकर प्रकट हुए और दिखावटी रुष्ट होते हुए उनसे कहा कि आज तीज के दिन उन्होंने उनके बिना कैसे भोजन कर लिया। तब माता पार्वती ने कहा कि उन्होंने उनकी पूजा की है। इसपर महादेव ने कहा कि उन्हें तो कोई पूजा सामग्री नहीं दिख रही। तब माता पार्वती ने उस गौ से सत्य बताने को कहा किन्तु उसने ना में सर हिला दिया।
तब महादेव ने हँसते हुए कहा कि वे तो बस ठिठोली कर रहे थे, उन्हें सत्य का ज्ञान है। ये कहकर वे माता पार्वती सहित वहाँ से जाने लगे। किन्तु माता गौ के असत्य भाषण से अत्यंत क्रुद्ध हुईं और उन्होंने उन्हें श्राप दे दिया कि आज से उन्होंने जूठन खा कर ही जीवित रहना होगा। तब स्वयं उन्हें अपने श्राप कर क्षोभ हुआ तो उन्होंने पुनः गौ माता को आशीर्वाद दिया कि वे दिव्य जन्मा हैं और उनके सभी गुण यथावत ही रहेंगे।
माता पार्वती और माता सीता की ये कथा हमें शिक्षा देती है कि असत्य भाषण के कितने भयंकर परिणाम हो सकते हैं। आपमें चाहे किनते ही दिव्य गुण क्यों ना हो, असत्य भाषण का दुष्परिणाम हमें उठाना ही पड़ता है।
ये कथा रामायण में नही दी गई है, स्थल पुराण में इसका वर्णन आता है।
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